ताकत के ऊंचे पदों पर बैठे लोगों का भ्रष्टाचार हमारे लोकतंत्र में हमेशा से चिंता का बड़ा विषय रहा है. इस मुद्दे पर आंदोलन भी हुए हैं, चुनाव लड़े गये हैं और सरकारें बदली हैं. लेकिन, कई दफे ऐसा भी हो सकता है कि शासन के ऊंचे पदों पर होनेवाला भ्रष्टाचार खुद में कोई रोग न हो, बल्कि एक महारोग का लक्षण भर हो.
एक सतर्क और जागरूक लोकतंत्र के रूप में हर राष्ट्र को चिंता करनी पड़ती है कि उसके सार्वजनिक जीवन को किसी महारोग ने ग्रस न लिया हो. इसकी पहली सूचना हमेशा सार्वजनिक जीवन की भाषा से मिलती है- उस भाषा से, जिसमें हम सार्वजनिक जीवन को नियमित और अनुशासित करनेवाली संस्थाओं, जैसे- विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका, मीडिया, नागरिक समाज आदि के सदस्य के रूप में एक-दूसरे की प्रशंसा, आलोचना या मूल्यांकन करते हैं.
सार्वजनिक जीवन की यह भाषा भ्रष्ट हो जाये, तो समझ लेना चाहिए कि एक लोकतंत्र के रूप में हम कहीं बहुत गहराई में अपने लिए घोषित मूल्यों से चूक रहे हैं. आज हमें इस कोण से विचार करने की बहुत ज्यादा जरूरत है. आये दिन की घटनाओं से यह आशंका बलवती हो रही है कि सार्वजनिक बरताव के मान-मूल्यों की हम परवाह नहीं कर रहे हैं. हमने आलोचना और निंदा, चेतावनी और धमकी, हंसी-मजाक और अपमान, व्यंग्य और अपशब्द का जरूरी अंतर भुला दिया है.
मैदान सियासत का हो, समाज का हो या फिर संस्कृति का, हम अपने चुने हुए विरोधी पर एक भयावह क्रोध और घृणा में लगभग संपूर्ण रूप से नकार देने की भावना के साथ हमलावर हो रहे हैं. युवा कांग्रेस द्वारा सोशल मीडिया में प्रधानमंत्री की आलोचना में इस्तेमाल की गयी भाषा सार्वजनिक जीवन को घेरती ऐसी ही आक्रामकता की सूचना देती है. उस पोस्ट को हटा लिया गया, आनाकानी के अंदाज में ही सही, माफी भी मांग ली गयी, लेकिन यह भाषा अपने पीछे एक बड़ा सवाल छोड़ गयी है.
सवाल यह कि भाषा के भीतर बढ़ता भ्रष्टाचार किसी एक व्यक्ति, पार्टी, समाज या वक्त तक सीमित नहीं है. वह अब चहुंओर है. यह भाषा नाक काटने, जबान कतरने, गला उतारने जैसी धमकियों से लेकर किसी सार्वजनिक व्यक्तित्व के वंश-परंपरा में खोट खोजने और उसके नितांत निजी प्रसंगों पर अपमानजनक टिप्पणी करने तक लगातार हर कुछ को अपने सर्वभक्षी जबड़े में समेटते जा रही है.
वह हर कुछ, जिसे सार्वजनिक जीवन में बरताव के लिए संविधान ने निषिद्ध ठहराया है, आज एक-दूसरे की निंदा-आलोचना का मानक बनाया जा रहा है और होड़ इस चलन को रोकने की नहीं है, बल्कि अपशब्द के प्रयोग के मामले में अपने को दूसरे से कहीं ज्यादा बढ़ कर साबित करने की मची है. इस चलन पर समय रहते हम नहीं चेते, तो एक जाग्रत विवेक वाला समाज बनने का हमारा संकल्प हमेशा के लिए अधूरा रह जायेगा.