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मौलिक अधिकारों का संघर्ष जारी, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार चार्टर के 70 साल

मनुष्यों के लिए नागरिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक अधिकार मौलिक मानवाधिकारों की श्रेणी में आते हैं. विभिन्न रिपोर्टें इस बात की पुष्टि करती हैं कि दुनिया की एक बड़ी आबादी आज भी अपने बुनियादी अधिकारों के लिए संघर्षरत है और मानवाधिकार उल्लंघन का शिकार है. मानवाधिकार के पक्ष में आवाज बुलंद करने की जरूरत को […]

मनुष्यों के लिए नागरिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक अधिकार मौलिक मानवाधिकारों की श्रेणी में आते हैं. विभिन्न रिपोर्टें इस बात की पुष्टि करती हैं कि दुनिया की एक बड़ी आबादी आज भी अपने बुनियादी अधिकारों के लिए संघर्षरत है और मानवाधिकार उल्लंघन का शिकार है.
मानवाधिकार के पक्ष में आवाज बुलंद करने की जरूरत को समझते हुए कई देश संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में 70 साल पहले एकजुट हुए थे और अधिकार-पत्र तैयार किया था. इन 70 सालों में बहुत कुछ बदला है, लेकिन मानवाधिकार की लड़ाई अभी जारी है. इन्हीं बातों के इर्द-गिर्द आज का इन डेप्थ…
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार अधिकार-पत्र
फ्रांस की राजधानी पेरिस में, 10 दिसंबर 1948 के दिन संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव 217 की घोषणा के साथ विश्व समुदाय पहली बार धर्म, जाति, नस्ल, लिंग आदि से परे होकर सभी लोगों के लिए लागू मौलिक अधिकारों पर राजी हुआ था.
इसमें शामिल लोगों ने यह मानते हुए कि सभी लोग गरिमा और अधिकार के मामले में जन्म से स्वतंत्र और बराबर हैं, इस अधिकार-पत्र पर हस्ताक्षर किया था और दुनिया के सामने प्रस्तुत किया था. इसे ही संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार अधिकार-पत्र (चार्टर) कहते हैं, जिसके 70 साल पूरे हुए हैं. जहां भी मानवाधिकार उल्लंघन की घटनाएं होती हैं, संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में दल और कई स्वतंत्र संगठन मानवाधिकारों के लिए काम करते हैं. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार केंद्र भी मानवाधिकार संबंधी सभी गतिविधियों के लिए एक बॉडी के रूप में काम करता है.
यह संयुक्त राष्ट्र द्वारा मानवाधिकार के मामलों को देखने के लिए प्रमुख निकाय के रूप में 1982 में स्थापित किया गया था. किसी भी विशेष क्षेत्र में मानवाधिकार से जुड़ी समस्याओं को हल करने के लिए, विशेषज्ञों और बौद्धिकों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चुना जाता है, ताकि वे इनके समाधान व उपायों का अध्ययन कर सकें. संयुक्त राष्ट्र के संस्थानों के अलावा, संबंधित क्षेत्रों में मानवाधिकारों की रक्षा के लिए कुछ क्षेत्रीय संस्थान भी कार्यरत हैं. ऐसे संस्थानों में यूरोप की परिषद (1949 में स्थापित), अफ्रीकी एकता संगठन (1981 में स्थापित) और अमेरिकी राज्य संगठन (1959 में स्थापित) आदि शामिल हैं.
यूरोप की परिषद ने मानवाधिकारों पर यूरोपीय सम्मेलन की स्थापना की है, जिसके 39 देश सदस्य हैं. इसकी प्रस्तावना में यह कहा गया है कि यूरोपीय देशों की सरकारों के सामने राजनीतिक परंपराओं, आदर्शों और कानून के शासन की एक साझी विरासत है, जिसके आधार पर हमें मानवाधिकारों के लिए काम करना चाहिए.
अफ्रीकी एकता संगठन में 50 सदस्य राज्य हैं. उन्होंने भी संयुक्त राष्ट्र चार्टर और मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा से प्रेरित मानवाधिकार का अफ्रीकी अधिकार-पत्र (चार्टर) अपनाया है. यह संस्था सामूहिक अधिकारों के साथ-साथ लोगों के व्यक्तिगत अधिकारों के लिए काम करती है. अमेरिकी राज्य संगठन के पास 30 सदस्य राज्य हैं, जो मानवाधिकारों की रक्षा और इसके उल्लंघन को रोकने के लिए काम करते हैं. इसके अतिरिक्त, साल 2006 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद् की भी स्थापना की गयी थी.
विशेष
दुनियाभर में मानवाधिकारों की स्थिति की मूल्यांकन करनेवाली वैश्विक रिपोर्ट-2018 में 90 से अधिक देशों में मानवीय जीवन से जुड़े तमाम तथ्यों को प्रस्तुत किया गया है. वर्ष 2016 से नवंबर, 2017 तक की प्रमुख घटनाओं को इस रिपोर्ट में शामिल किया गया है. बीते कुछ वर्षों में विकसित देशों में मानवाधिकारों से जुड़े मसलों के समाधान को लेकर अरुचि बढ़ी है. अमेरिका के मौजूदा राष्ट्रपति ने अधिकारों की अवहेलना करने की अपनी विशेष पहचान बना ली है.
वहीं ब्रेक्जिट की प्रक्रिया से गुजर ब्रिटेन में ऐसे सवाल पीछे छूट चुके हैं, तो मानवाधिकारों के कई बड़े तरफदार हाल के वर्षों में कोई ठोस पहल करते नहीं दिखे. नस्लवादी और शरणार्थी विरोधी राजनीतिक विचारों का उभार जर्मनी, फ्रांस के साथ तमाम यूरोपीय देशों में देखने को मिला है. वहीं ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, इंडोनेशिया, जापान और दक्षिण अफ्रीका जैसे लोकतांत्रिक देश भी शायद ही मानवाधिकारों के मुद्दे पर मजबूती से खड़े नजर आये हों.
मानवाधिकारों के पैरोकारों के सामने बड़ी चुनौती
मानव अधिकारों के समर्थकों को प्रोत्साहित करने के बजाय तमाम सरकारों का उपेक्षापूर्ण रवैया स्थानीय स्तर पर अराजकता और हिंसा का कारण बन रहा है. यमन, सीरिया, बर्मा और दक्षिण सूडान में जारी हिंसा और पलायन इसके सबसे दुर्भाग्यपूर्ण उदाहरण रहे हैं. अधिकारों की उल्लंघन की विकट होती स्थिति अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के सामने बड़ी चुनौती बन रही है.
हालांकि, इस अराजक माहौल में भी कुछ छोटे और मध्यम आकार वाले देशों ने सकारात्मक नेतृत्व दिखाया है. अापसी सहयोग को बेहतर बनाकर ये मानवाधिकारों की चुनौतियों का मजबूती से सामना कर रहे हैं. जिन शक्तियों का ह्रास हो चुका है, उसे भले ये देश प्रतिस्थापित न कर पायें, लेकिन उनका उभार यह दर्शाता है कि मानवाधिकार के मुद्दे अभी भी जीवित हैं.
बहुसंख्यकवाद के निशाने पर उपेक्षित समुदाय
दुनिया के तमाम हिस्सों में बीते कुछ वर्षों के दौरान बहुसंख्यकवाद यानी पॉपुलिज्म की अवधारणा तेजी से फैली है. इसके पीछे आर्थिक विस्थापन और बढ़ती असमानता बड़ा कारण रहा है. जिस तेजी से ग्लोबलाइजेशन, ऑटोमेशन और तकनीकी बदलाव बढ़ा है उससे एक बड़ा तबका प्रभावित हुआ है. ऐसे में इन बदलावों से लाभान्वित होनेवाले वर्ग में सांस्कृतिक बदलाव और सामाजिक स्तर पर हुए वर्गीकरण ने एक भय पैदा किया है.
हालांकि, इन मसलों का ठोस हल निकालने के बजाय वंचित अल्पसंख्यक और समाज से कटे लोगों को निशाना बनाया जाता रहा है. नतीजा यह होता है कि समरसता, उदारता और सम्मान की भावना को ठेस पहुंचती है, जो मानवाधिकारों के आधार स्तंभ हैं. लोकलुभावन वाद की इस चुनौती से निपटने के लिए जरूरी है उन मानवीय मूल्यों और सिद्धांतों को संरक्षित और पुख्ता किया जाये, जिसे बहुसंख्यकवादी अक्सर दरकिनार कर देते हैं. बीते वर्ष में लोकतांत्रिक अधिकारों को लेकर विमर्श की शुरुआत हुई है, जो एक सकारात्मक संकेत है.
सर्वाधिक मत पाकर भारत सदस्य बना
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार चार्टर के सात दशक पूरे होने के साल 2018 में मानवाधिकार परिषद् की सदस्यता के लिए हुए चुनाव में भारत सबसे अधिक मत पाकर निर्वाचित हुआ है. अक्तूबर में हुए चुनाव में भारत एशिया-प्रशांत श्रेणी में उम्मीदवार था. उसे कुल 188 मत प्राप्त हुए थे.
तीन साल की सदस्यता अवधि एक जनवरी, 2019 से शुरू होगी. इससे पहले भारत 2011-14 तथा 2014-17 के दौरान भी सदस्य था. फिर से इतनी भारी संख्या में समर्थन मिलने का मतलब है कि सदस्य के तौर पर उसने अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह ठीक से किया है और अंतरराष्ट्रीय समुदाय में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ी है. परिषद की सदस्यता के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा के 193 सदस्य देश मतदान करते हैं.
कुल 18 नये सदस्य निर्वाचित हुए हैं. किसी देश को मानवाधिकार परिषद में सदस्य निर्वाचित होने के लिए न्यूनतम 97 देशों के समर्थन की जरूरत होती है. इस वर्ष एशिया-प्रशांत श्रेणी से भारत समेत पांच देश उम्मीदवार थे. बहरीन, बांग्लादेश, फिजी और फिलीपींस अन्य देश थे. सिर्फ पांच ही उम्मीदवार होने के कारण भारत की जीत सुनिश्चित ही थी. लेकिन उसे सभी श्रेणियों में जीते कुल 18 देशों में सबसे अधिक समर्थन मिलना बेहद अहम माना जा रहा है.
नियमों के मुताबिक कोई देश एक कार्यकाल समाप्त होने के साथ ही फिर से उम्मीदवार नहीं हो सकता है. इस कारण पहले दो बार भारत को साल भर का इंतजार करना पड़ा है. महासभा ने मार्च, 2006 में मानवाधिकार परिषद का गठन किया था. इसमें कुल 47 सदस्य होते हैं, जिनका क्षेत्रवार वितरण इस प्रकार है- अफ्रीका से 13, एशिया-प्रशांत से 13, पूर्वी यूरोप से 06, लातिनी अमेरिका और कैरेबियाई देशों से 08 तथा यूरोप एवं अन्य देशों के 07 सदस्य देश. चिली की पूर्व राष्ट्रपति मिशेल बेशलेत इस साल सितंबर में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयुक्त निर्वाचित हुई हैं.
भारत में मानवाधिकार की स्थिति
भारत में मानवाधिकार की स्थिति को लेकर संयुक्त राष्ट्र रिपोर्ट 2018 की मानें तो धार्मिक अल्पसंख्यकों, हाशिए पर रहनेवाले समुदायों और सरकार की आलाेचना करनेवालों के खिलाफ वर्ष 2017 में सुनियोजित रूप से हिंसा को अंजाम दिया गया. असहमति को राष्ट्र विरोधी बताया गया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाते हुए कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और अकादमिक जगत से जुड़े लोगों को उनके विचारों के लिए और सरकारी कार्यों या नीतियों की आलोचना करने वाले गैर सरकारी संगठनों को विदेशी अंशदान नियमों का इस्तेमाल कर निशाना बनाया गया.
रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र है कि उत्तर प्रदेश, हरियाणा, छत्तीसगढ़ व जम्मू-कश्मीर सहित अन्य राज्यों में यातना देने और गैर-न्यायिक हत्याओं के आरोप लगने के बावजूद सुरक्षा बलों को इसके लिए जवाबदेह मानने में कोताही बरती गयी.
वर्ष 2017 के पहले 10 महीनों में, जम्मू-कश्मीर में 42 आतंकी हमले हुए जिनमें 44 सुरक्षा बल के जवानों सहित 184 लोग मारे गए. सरकारी बलों द्वारा हिंसक विरोधों को रोकने के क्रम में भी कई लोग घायल हुए व मारे गये.
जम्मू-कश्मीर एवं पूर्वोत्तर के कुछ हिस्सों में लागू सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (अफ्स्पा) की समीक्षा और निरस्त करने में सरकार विफल रही.
इसी वर्ष अप्रैल में, छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में माओवादी हमले में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के 26 अर्द्धसैनिक जवान मारे गये.
2017 में कोई फांसी नहीं हुई लेकिन लगभग 400 कैदी मृत्यु दंड का इंतजार करते रहे. साल 2015 से 2016 के बीच ऐसे लोगों की संख्या लगभग दोगुनी (70 से बढ़कर 136) हो गई जिन्हें मौत की सजा सुनाई गयी. इन लोगों को जिन अपराधों के लिए मौत की सजा दी गई, उनमें से ज्यादातर अपराध हत्या और यौन हिंसा के बाद की गयी हत्या से जुड़े हैं.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले से मौलिक अधिकारों को मिली मजबूती
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट 2018 में उच्चतम न्यायालय की तारीफ करते हुए कहा गया है कि वर्ष 2017 में उच्चतम न्यायालय द्वारा लियेे गये फैसलों से एक ओर जहां मौलिक अधिकारों और महिलाओं के लिए समान अधिकारों को मजबूती मिली, वहीं सुरक्षा बलों पर मानवाधिकार उल्लंघन को लेकर जवाबदेही तय की गयी.
इतना ही नहीं, न्यायालय द्वारा पिछले वर्ष देश के संविधान के अंतर्गत व्यक्तिगत निजता को ‘अभिन्न’ और ‘मौलिक अधिकार’ घोषित किये जाने के साथ ही अभिव्यक्ति की आजादी, कानून के शासन और सत्तावादी आचरण से सुरक्षा के लिए संवैधानिक संरक्षण पर भी जोर दिया गया. इसी वर्ष न्यायालय ने ‘तीन तलाक’ के चलन को खत्म कर मुस्लिम महिलाओं को राहत दी, वहीं 1979 से 2012 के बीच मणिपुर में सरकारी बलों द्वारा कथित 87 अवैध हत्याओं की जांच के आदेश दिये.
शरणार्थियों का संकट
जहां-जहां युद्ध की स्थितियां हैं, बार-बार प्राकृतिक आपदाएं आती हैं, पर्यावरण में बड़े परिवर्तन हो रहे हैं, ज्यादा दमन है और मानवाधिकारों का हनन होता हैं, वहां-वहां विस्थापन बड़े पैमाने पर जारी है. अपनी जान-माल की सुरक्षा के लिए चिंतित इन विस्थापितों को ही शरणार्थी कहा जाता है. विश्व के कई देशों के निवासियों को विस्थापित होकर अन्य देशों में शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है.
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार घोषणापत्र यह कहता है कि हर इंसान को दमन, यातना, हिंसा और उत्पीड़न आदि से बचने के लिए दूसरे देशों में शरण लेने का हक प्राप्त है. हालांकि, शरण पाने के लिए कोई अंतरराष्ट्रीय मान्यताप्राप्त कानून नहीं बनाया गया है. लेकिन, जेनेवा संधि शरणार्थियों के पक्ष में बात करती है और शरणार्थियों को उन देशों में भेजे जाने को प्रतिबंधित करती है, जहां उनका शोषण किया गया है.
6.85 करोड़ लोग पिछले एक दशक से भी कम समय में यातना और उत्पीड़न से बचने के लिए अपना घर छोड़ने को मजबूर हुए हैं, जिसमें लगभग आधे बच्चे हैं.
22.5 करोड़ लोग ऐसे हैं, जो बेहतर अवसरों और नौकरी की तलाश में दूसरे देशों में अपना घर ढूंढ रहे हैं.
258 मिलियन यानी 25.8 करोड़ विस्थापितों की संख्या है पूरी दुनिया में, संयुक्त राष्ट्रकी रिपोर्ट के अनुसार.
49 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गयी है, साल 2000 के बाद शरणार्थियों की संख्या में,90 प्रतिशत हिस्सा शरणार्थियों की कुल संख्या का, विकासशील देशों में शरण लिए हुए है.
जलवायु परिवर्तन मानवता के लिए खतरा
जलवायु परिवर्तन के रूप में सबसे बड़ा खतरा आज मानवता के सामने खड़ा है. जलवायु परिवर्तन मानवता के लिए सबसे बड़ा खतरा इसलिए है क्योंकि इसने हमारे जीवन, भोजन, स्वास्थ्य व यथोचित जीवन स्तर को बुरी तरह प्रभावित किया है.
विनाशकारी तूफान, प्रलयंकारी बाढ़ से लेकर जानलेवा जंगल की आग समेत बारंबार तबाही मचाने वाले तमाम प्राकृतिक आपदायें जलवायु परिवर्तन की ही देन हैं. ये अापदाओं सामाजिक-आर्थिक असमानता, लिंग असमानता व तमाम तरह के भेदभाव को बढ़ावा देने का काम करती हैं.

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