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आदिवासी लेखन की उभरती नयी प्रवृत्तियां

महादेव टोप्पो, आदिवासी समाज में जैसे-जैसे एक छोटा मध्यवर्ग उभर रहा है वैसे ही इस समुदाय से लोग नये और आधुनिक, तकनीक, विचार, सोच, जीवन-शैली के अलावा नये कार्य क्षेत्रों को भी अपना रहे हैं. आधुनिक शिक्षा एवं उभरती सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक जटिलताओं और अवसरों ने उनके जीवन को कई तरह से प्रभावित किया है. […]

महादेव टोप्पो,
आदिवासी समाज में जैसे-जैसे एक छोटा मध्यवर्ग उभर रहा है वैसे ही इस समुदाय से लोग नये और आधुनिक, तकनीक, विचार, सोच, जीवन-शैली के अलावा नये कार्य क्षेत्रों को भी अपना रहे हैं. आधुनिक शिक्षा एवं उभरती सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक जटिलताओं और अवसरों ने उनके जीवन को कई तरह से प्रभावित किया है. उनमें कई तरह की आकांक्षाओं को भी जन्म दिया है. फलतः, कल तक गुलेल लेकर जंगल में भटकने या हल जोतनेवाला आदिवासी युवा- साक्षर होकर अपने लिए जीवन-यापन का अलग क्षेत्र भी चुन रहा है.
क्लर्क, प्रशासनिक सेवा, डॉक्टर, इंजीनियरिंग, समाज-सेवा जैसे लोकप्रिय नौकरी को छोड़ कला, साहित्य, पत्रकारिता, सिनेमा, फैशन आदि के क्षेत्र में भले ही मुट्ठी भर लोग ही सही लेकिन वे इस नई क्षितिज में अपने लिए नया आकाश और पहचान ढूंढ़ते दिख रहे हैं. ये लोग पिछले कुछ दशकों में चर्चा में आये विशेषतः झारखंड गठन के आस पास. निश्चय ही झारखंड आंदोलन की आंच ने आदिवासी रचनाकारों को कहीं न कहीं प्रभावित किया और वे अपने बारे लिखने के लिए प्रवृत हुए हैं.
अधिकांश आदिवासी लेखकों का अनुभव संसार तिक्तता और विविधता से भरी पड़ी है. लेकिन लिखने के लिए समुचित प्रोत्साहन या वातावरण नहीं मिलने के कारण यह अब तक सोयी पड़ी दिखती है.
लेकिन वे छोटे बड़े कई प्रकार का लेखन कार्य अपने पाठकों के लिए कर रहे है जिसे इस प्रकार देखा जा सकता है जैसे – (क) वैचारिक लेखन–(ख) विकास, विस्थापन के मुद्दे (ग) कानूनी एवं संवैधानिक प्रावधानों का विश्लेषण (घ) इतिहास में अपनी खोज (ङ) भाषा-संस्कृति के मुद्दे (च) राजनीतिक मुद्दे (छ) कला संबंधी लेखन (ज) विविध सामाजिक मुद्दे, समस्याओं पर लेखन (झ)साहित्य संबंधी लेखन (ञ) इसके अलावा गीत, भजन आदि भी लिखे जा रहे हैं.
रामदयाल मुंडा, रोज केरकेट्टा, ग्रेस कुजूर, वाहरू सोनवणे, हरिराम मीणा, निर्मला पुतुल, सरिता बड़ाइक, सावित्री बड़ाइक, वंदना टेटे, अनुज लुगुन, ज्योति लकड़ा, डोमिनिक बाड़ा, जसिंता केरकेट्टा, मोनिका तोपनो, शशि नीलिमा डुंग़डुंग, लीमा टुटी, चंद्रमोहन किस्कू, विश्वासी टोप्पो वाल्टर भेंगरा, पीटर पौल एक्का, फ्रांसिस्का कुजूर मंगल सिह मुंडा, जैकब लकड़ा, ज्योति लकड़ा, पीटर पौल एक्का, जोराम यालम नाबाम, सिकरादास तिर्की, भीखू तिर्की, जीतू उरांव, पुष्पा टेटे, जिंदर सिंह मुंडा, दयामनी बारला, ग्लैडसन डुंगडुंग, सुनील मिंज, जेवियर कुजूर, महादेव टोप्पो, अर्जुन इंदवार, सावित्री बड़ाईक आदि के लेखन कार्य ने जहां आदिवासी दुनिया को समझने का अवसर दिया, वहीं आदिवासी सवालों ने विकास, पर्यावरण, जल, जंगल, जमीन, धरती उर्वरता, हवा की शुद्धता, हरियाली की रक्षा, प्रकृति की रक्षा की एक नयी समझ एवं चेतना विश्व भर में उभरती दिखती है, जिसे नकारना प्रबुद्ध लोगों को मुश्किल हो रहा है. यही कारण है कि कल तक कारखाने एवं तकनीक से विकास की बातें करने वाला विश्व, आज धरती और प्रकृति की रक्षा के लिए संजीदा होता नजर आ रहा है. हिंदी में पिछले एक दो सालों में नए पुराने कवियों के स्वर बदले हैं और वे पृथ्वी, प्रकृति से जुड़े सवालों पर कविताएं लिखी जा रही हैं.
जसिंता केरकेट्टा के कविता संग्रह ‘अंगोर’ हिंदी के अलावा जर्मनी और अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ है अभी इसके इतालवी अनुवाद प्रकाशित होने खबर आयी है. वहीं दूसरा संग्रह ‘जड़ों की जमीन’ भी द्विभाषी रूप में प्रकाशित है जो एक नया प्रयोग दिखता है. ‘बाघ और सुगना मुंडा की बेटी’ अनेक पुरस्कारों से सम्मानित बहुचर्चित युवा कवि अनुज लुगुन की लंबी कविता है, जो वाणी प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित है. इनकी कविता संकलन अघोषित उलगुलान के प्रकाशन की प्रतीक्षा है.
उपन्यास एवं नाटक का कम लेखन यह दर्शाता है कि आदिवासी लेखक अभी साहित्य की सभी प्रवृतियों को आत्मसात नहीं कर पाया है. जबकि नाटक और उपन्यास के क्षेत्र में उसे बहुत कुछ करना शेष है.
बोडो एवं संताली भाषा में उपन्यास एवं नाटक प्रचुर मात्रा में लिखा गया है. जोवाकिन तोपनो, मंगल सिंह मुंडा तथा कुड़ुख में महादेव टोप्पो के नाटक लिखने की सूचना है. साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत होने के कारण बोडो एवं संताली भाषाओं के लेखकों की राष्ट्रीय पहचान भी बन रही है. इन भाषाओं के अनुवादकों को प्रोत्साहन एवं मान्यता मिल रही है वह अलग. लेकिन अन्य आदिवासी भाषाओं को अभी यह कर दिखाना शेष है.
एक दूसरे की रचनात्मकता का सम्मान करना सीखें
पिछले दो तीन वर्षों में संतोष किड़ो का ‘इटर्नल मिस्ट्री’ हांसदा सोवेन्द्र शेखर का ‘मिस्टीरियस एलमेन्ट ऑफ रूपी बास्के (उपन्यास)’, समीर भगत का ‘सलवेजिंग आदिद्वीप (उपन्यास)’ प्रकाशित होकर अंग्रेजी पाठकों का ध्यान आकृष्ट कर सकने में सफल हुए हैं, साहित्य अकादमी से पुरस्कृत भी हुए हैं.
झारखंड में हांसदा सोवेन्द्र शेखर की कहानी पुस्तक ‘द आदिवासी विल नॉट डान्स ’ संग्रह की एक कहानी इन द मंथ ऑफ नवंबर पर अश्लीलता का आरोप लगाते हुए प्रतिबंध लगा दिया गया. हालांकि बाद में यह प्रतिबंध हटा दिया गया.
आदिवासी-जीवन पर आधारित रचनाओं को लेकर मतांतर भी उभरा और लोगों ने देखा कि आदिवासी हो या गैर-आदिवासी जब कोई कुछ नया रचता है तो कई बार विवाद उठते हैं. यह स्वाभाविक है क्योंकि एक रचनाकार, एक पाठक, एक समीक्षक और एक रचनाकार-पाठक की प्रतिक्रियाएं किसी एक रचना-विशेष के प्रति अलग-अलग देखी गयी हैं.
संभवतः, ऐसा इसलिए कि हर रचनाकार का संस्कार, शिक्षा, अनुभव, दृष्टिकोण, रूझान, उद्देश्य और पाठक-लक्ष्य-समूह अलग-अलग होता है. ऐसे में एक दृष्टिकोण, किसी दूसरे के लिए अवांछित हो सकता है. इस परिस्थिति में यह देखना बेहतर होगा कि लेखक व्यापक हित में, किन परिस्थितियों में किस प्रकार से क्या नया कहना चाहता है.
लेकिन, जब कोई किसी की लोकप्रियता से ईर्ष्यावश किसी के प्रति दुष्प्रचार करता है और उसके पेट पर लात मारने का प्रयास करता है तो यह भी निश्चय गलत है. लगता है एनजीओ संस्कृति ने उनमें यह नयी प्रतिद्वंद्विता की प्रवृत्ति उभार दी है.
आदिवासी रचनाकार के समक्ष चुनौती यह है कि वह बेहतर रचना का सृजन लगातार कैसे करते रहें. क्योंकि लेखन की यही उच्च स्तर और निरंतरता उनके लेखन को बहु-स्वीकार्य छवि प्रदान कर सकती है.
बाजार के मायाजाल में उलझकर आदिवासी लेखक बिना प्रतियोगिता श्रेष्ठतम रचने के लिए प्रवृत हों. साथ ही प्रसिद्धि की आत्ममुग्धता से मुक्त होकर, निरंतर अपने लेखन को सशक्त बनाने की इच्छा को बनाए रखें. वैचारिक विभिन्नता के बावजूद एक दूसरे की रचनात्मकता का सम्मान करना सीखें तो स्थिति आदर्श होगी, नहीं तो उनमें और मुख्यधारा के लेखकों में अंतर क्या रहेगा?

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