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नाले में मरते नागरिक

सर्वोच्च न्यायालय ने नालों में मरते सफाईकर्मियों के मसले पर सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा है कि कोई भी दूसरा देश अपने नागरिकों को गैस चैंबर में मरने के लिए नहीं भेजता है. खंडपीठ ने पूछा है कि इन कर्मियों को ऑक्सीजन मास्क जैसी बुनियादी चीजें मुहैया क्यों नहीं करायी जा रही हैं. […]

सर्वोच्च न्यायालय ने नालों में मरते सफाईकर्मियों के मसले पर सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा है कि कोई भी दूसरा देश अपने नागरिकों को गैस चैंबर में मरने के लिए नहीं भेजता है.

खंडपीठ ने पूछा है कि इन कर्मियों को ऑक्सीजन मास्क जैसी बुनियादी चीजें मुहैया क्यों नहीं करायी जा रही हैं. इस वर्ष के पहले छह महीनों में देश के केवल आठ राज्यों में नालों की सफाई करते हुए कम-से-कम 50 लोगों की मौत हो चुकी है. ये राज्य हैं- उत्तर प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु. भारत में तीन दर्जन राज्य व केंद्रशासित प्रदेश हैं तथा आये दिन मीडिया में ऐसी खबरें आती रहती हैं.

इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि स्थिति कितनी भयावह है. सिर पर मैला ढोने और नालियों में घुस कर सफाई करने जैसे कामों पर 1993 में ही पाबंदी लगायी जा चुकी है. संसद के कानून द्वारा स्थापित राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के अनुसार, उस समय से लेकर अब तक 20 राज्यों में 817 मौतें हो चुकी हैं. वर्ष 2017 से हर पांचवें दिन औसतन एक सफाईकर्मी की मौत हो रही है.

लेकिन, सफाई कर्मचारी आंदोलन का कहना है कि बीते एक दशक में 1,850 लोग नाले की जहरीली हवा में दम घुटने से मारे गये हैं. इसके अलावा लगभग सभी कर्मियों को गंभीर और जानलेवा बीमारियों का भी शिकार होना पड़ता है. वर्ष 2013 में मैला ढोने व नाला साफ करने के काम पर लोगों को लगाने पर रोक तथा ऐसे सफाईकर्मियों के पुनर्वास का कानून भी पारित हो चुका है.

इसके तहत मार्च, 2017 में ही सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को निर्दिष्ट किया था कि नाले साफ करते हुए मौत का शिकार लोगों की पहचान कर उनके परिजनों को 10 लाख रुपये का मुआवजा दिया जाये. कुछ सप्ताह पहले सरकार ने लोकसभा को बताया था कि अवैध होने के बावजूद ऐसे काम कराये जा रहे हैं तथा किसी भी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश में इसके दोषियों को दंडित करने की कोई जानकारी नहीं है.

पिछले साल हुए एक सरकारी सर्वेक्षण में कई राज्यों में हजारों ऐसे कर्मियों के होने की जानकारी मिली है. घरों और मुहल्लों को तो छोड़ दें, भारतीय रेल समेत कुछ सरकारी विभाग भी अवैध रूप से ऐसे कर्मियों से काम ले रहे हैं. यह भी उल्लेखनीय है कि किसी अन्य देश में ऐसा कानून भी नहीं है, क्योंकि कहीं और जाति आधारित मैला ढोने की परंपरा भी नहीं है. सर्वोच्च न्यायालय ने इस तथ्य को रेखांकित किया है कि आज भी हमारा देश जातिगत भेदभाव और अस्पृश्यता से मुक्त नहीं हो पाया है.

ऐसे में बदलाव की जरूरत पर जोर देते हुए न्यायालय ने समुचित प्रयास का निर्देश दिया है. हम राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का 150वां जयंती वर्ष मना रहे हैं. स्वच्छ भारत अभियान सकारात्मक परिणामों के साथ अग्रसर है. सरकार और समाज को मिल कर मैला ढोने, नाले में उतर कर सफाई और जातिवादी मानसिकता की अमानवीयता को रोकने के लिए संकल्पबद्ध होना चाहिए.

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