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बैंकिंग सुधार की पहल

कुछ सालों से सरकार बैंकिंग क्षेत्र में दीर्घकालिक सुधारों के लिए प्रयासरत है. इसके तहत गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों का दबाव कुछ हद तक कम किया जा सका है. बैंकों को पूंजी उपलब्ध करा कर उनके वित्तीय स्थिति को पटरी पर लाने की कवायद हुई भी है. इसके अलावा कानून और नियमन तथा बैंकों की संरचना में […]

कुछ सालों से सरकार बैंकिंग क्षेत्र में दीर्घकालिक सुधारों के लिए प्रयासरत है. इसके तहत गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों का दबाव कुछ हद तक कम किया जा सका है.
बैंकों को पूंजी उपलब्ध करा कर उनके वित्तीय स्थिति को पटरी पर लाने की कवायद हुई भी है. इसके अलावा कानून और नियमन तथा बैंकों की संरचना में बदलाव की कोशिशें भी हुई हैं, लेकिन देश की अर्थव्यवस्था को गति देने तथा बैंकिंग सेक्टर को चुस्त-दुरुस्त करने की दिशा में अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है.
इस सिलसिले में सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के तमाम बैंकों को निचली शाखा से लेकर शीर्ष प्रबंधन तक आंतरिक चर्चा कर भविष्य के लिए रूप-रेखा तैयार करने का निर्देश दिया है. एक महीने तक चलनेवाली यह चर्चा शनिवार से शुरू हो चुकी है. इसके तहत शाखा स्तर की चुनौतियों और कामकाज के साथ फंसे हुए कर्ज की वसूली और विभिन्न ऋण योजनाओं की समीक्षा की जायेगी. बैंकिंग सेक्टर अर्थव्यवस्था का आधार स्तंभ है.
अनेक बाहरी और घरेलू कारणों से आर्थिक वृद्धि में कमी आ रही है तथा इसका नकारात्मक असर बैंकों पर भी पड़ रहा है. हालांकि सरकार और रिजर्व बैंक ने लगातार कोशिश की है कि व्यक्तिगत, व्यावसायिक और औद्योगिक स्तर पर बैंक कर्ज दें तथा अपने वित्तीय अनुशासन को भी मजबूत करें, परंतु बचत घटने और कर्ज की मांग कम होने तथा जोखिम के चलते कर्ज देने से परहेज के कारण ऋण भी अपेक्षित मात्रा में मुहैया नहीं कराया जा रहा है.
कमजोर अर्थव्यवस्था ने बैंकों को असमंजस में डाल दिया है. हाल में बैंकों को पूंजी देने के साथ ब्याज दरों में कमी कर इस स्थिति से निकलने के प्रयास हुए हैं, पर इनके नतीजे कुछ समय बाद ही सामने आ सकेंगे.
मौजूदा आर्थिक चिंताओं से उबरने और भविष्य की आशंकाओं से निबटने के लिए बैंकों ने अपने स्तर पर भी पहलकदमी की है तथा उन्हें विशेषज्ञों के सुझाव भी लगातार मिल रहे हैं. सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार के सुब्रमण्यन ने सलाह दी है कि कर्ज मांगनेवालों के चुनाव और निगरानी के लिए सार्वजनिक बैंकों को स्वतंत्र इकाई का गठन करना चाहिए. कुछ पर्यवेक्षक चाहते हैं कि बैंकों को जोखिम की बहुत अधिक चिंता नहीं करनी चाहिए. छोटे बैंकों के विलय से बड़े बैंकों का गठन और डिजिटल तकनीक के अधिक उपयोग पर भी जोर दिया जाता रहा है.
प्रबंधन और सेवा की गुणवत्ता बेहतर करने की मांग भी लंबे समय से चलती आ रही है. उल्लेखनीय है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने उद्योग को पूंजी देने के साथ देहात और दूर-दराज तक अपनी सेवाएं दी हैं तथा वित्तीय व्यवस्था से समाज के निचले पायदान पर खड़े लोगों को जोड़ने का काम किया है.
ऐसे में अर्थव्यवस्था के आधार के मजबूत होने तथा उसकी बढ़त के कमजोर होने के मौजूदा माहौल ने बैंकों को बेहद अहम मौका दिया है कि वे महीनेभर की चर्चा में अपनी खामियों और खूबियों को पहचान कर बेहतर भविष्य के लिए दीर्घकालिक रणनीति बनाएं.

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