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शिक्षा में नियमन

सर्वोच्च न्यायालय ने 2001 के बाद की उन सभी इंजीनियरिंग डिग्रियों को खारिज कर दिया है जिन्हें निजी संस्थानों ने पत्राचार माध्यम से दिया है. इस कड़े फैसले के साथ अदालत ने सभी ऐसे शिक्षण संस्थानों के पत्राचार पाठ्यक्रमों पर रोक लगा दी है जिन्हें डीम्ड यूनिवर्सिटी यानी विश्वविद्यालय के समकक्ष होने की मान्यता मिली […]

सर्वोच्च न्यायालय ने 2001 के बाद की उन सभी इंजीनियरिंग डिग्रियों को खारिज कर दिया है जिन्हें निजी संस्थानों ने पत्राचार माध्यम से दिया है. इस कड़े फैसले के साथ अदालत ने सभी ऐसे शिक्षण संस्थानों के पत्राचार पाठ्यक्रमों पर रोक लगा दी है जिन्हें डीम्ड यूनिवर्सिटी यानी विश्वविद्यालय के समकक्ष होने की मान्यता मिली हुई है. गुणवत्ता की जांच के बाद ही इन्हें दुबारा शुरू किया जा सकेगा.
बीते दशकों में शिक्षा, खासकर तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा, के व्यापक प्रसार के इरादे से निजी संस्थानों को खोलने की प्रक्रिया चली, लेकिन इनमें से अधिकतर संस्थान न तो समुचित संसाधन मुहैया करा सके और न ही उन्होंने गुणवत्ता की परवाह की. उन पर निगरानी करनेवाली सरकारी संस्थाओं की लापरवाही और भ्रष्टाचार ने ऐसे संस्थानों को छात्रों को लूटने की खुली छूट दे दी. यह भी कोई राज नहीं है कि निजी संस्थानों से नेताओं, नौकरशाहों और शिक्षा से जुड़े बड़े ओहदेदारों के नजदीकी संबंध होते हैं.
डिग्रियों की बंदरबांट और शुल्क के नाम पर लाखों बटोरने की कवायद ने आज उच्च शिक्षा की स्थिति को बदहाल बना दिया है. विश्वविद्यालय जैसे पवित्र शब्द का इस्तेमाल कर उच्च शिक्षा के नाम पर ठगी की दुकानें आज देश के हर राज्य में खुल गयी हैं. इस अराजकता के लिए विभिन्न दलों की सभी सरकारें कमोबेश जिम्मेवार हैं.
अदालत ने इन संस्थाओं को विश्वविद्यालय शब्द के प्रयोग के लिए भी मना कर दिया है. अक्सर ये आंकड़े आते हैं कि इंजीनियरिंग और प्रबंधन के अधिकतर ग्रेजुएट नौकरी पाने के योग्य नहीं हैं. शिक्षक प्रशिक्षण का भी यही हाल है. ऐसे में एक बड़ा सवाल यह उठता है कि निजी शैक्षणिक संस्थाओं की बेईमानी का खामियाजा भुगत रहे छात्रों के भविष्य का क्या होगा.
बड़े-बड़े वादे और दावे करनेवाली शिक्षा की दुकानों ने युवा पीढ़ी को जिस तरह से छला है, उसकी जवाबदेही किस पर है? क्या डिग्रियां खारिज कर या संस्थाओं की मान्यता रद्द भर कर देने से इस विकराल समस्या का समाधान हो जायेगा? एक सवाल यह भी है कि शिक्षा के नाम पर कम कीमत में जमीनें ली गयीं और सुविधाओं के लिए अनुदान हासिल किये गये, उसका हिसाब कौन देगा. आज जरूरत इस बात की है कि केंद्र और राज्यों के मानव संसाधन मंत्रालय और उनके अधीनस्थ संस्थाएं निजी शिक्षण संस्थानों की गहन पड़ताल करें तथा मंजूरी से संबंधित नियमों की समीक्षा करें.
नियमन और निगरानी के लिए बनी संस्थाओं की कार्य-प्रणाली पर भी पुनर्विचार होना चाहिए. शिक्षा को मुनाफाखोरी और धोखाधड़ी के चंगुल से निकाले बिना एक समर्थ, सक्षम और समृद्ध भारत का सपना हवाई अरमान बन कर रह जायेगा. अदालतें कभी-कभार ही दखल दे सकती हैं, असल जिम्मेदारी सरकारों की ही है.

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