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मूलवासी मूर्तिपूजक नहीं, प्रकृति पूजक हैं

झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा का महासम्मेलन शुरू, डॉ सुशीला धुर्वे ने कहा गोंड के 750 गोत्र हैं, विदेशी अताताइयों के आने के बाद साहित्य नष्ट हुए, लिपि को भी नुकसान पहुंचा आदिवासियों में लिखित नहीं होता, वे वचन के पक्के, सरल व संस्कारवान होते हैं रांची : किसी भी भूमि से उसके मूलवासी की […]

झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा का महासम्मेलन शुरू, डॉ सुशीला धुर्वे ने कहा
गोंड के 750 गोत्र हैं, विदेशी अताताइयों के आने के बाद साहित्य नष्ट हुए, लिपि को भी नुकसान पहुंचा
आदिवासियों में लिखित नहीं होता, वे वचन के पक्के, सरल व संस्कारवान होते हैं
रांची : किसी भी भूमि से उसके मूलवासी की पहचान होती है. जितने मूलवासी भारत में हैं, वे सभी गोंड हैं. भारत का नाम बाद में पड़ा. उससे पहले इस क्षेत्र को गोंडवाना के नाम से जाना जाता था. जब तक बाहर से जातियां नहीं आयी थी, सभी मूलवासी सुखी थे. मूलवासी मंदिर नहीं बनाते थे. वे मूर्तिपूजक नहीं थे. मूलवासी प्रकृति पूजक हैं. उक्त बातें गोंड साहित्यकार डाॅ सुशीला धुर्वे ने कही. वे शनिवार को मोरहाबादी स्थित शहीद स्मृति सेंट्रल लाइब्रेरी के सभागार में आयोजित झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा के दो दिवसीय चतुर्थ महासम्मेलन को संबोधित कर रही थी.
उन्होंने कहा कि देश के सभी मूलवासियों में समानता मिलती है. आर्य जब भारत आये थे, तो उन्हें वस्त्र की जानकारी नहीं थी, लेकिन हमारे पूर्वज रेशमी व सूत्री वस्त्र पहनते थे. गोंड के 750 गोत्र हैं. विदेशी अताताइयों के आने के बाद साहित्य नष्ट हुए. लिपि को भी नुकसान पहुंचा.
अपने साहित्य को वापस लाने का प्रयास कर रहे हैं. गैर आदिवासी डाॅ धुर्वे ने कहा कि आदिवासियों में लिखित नहीं होता था. वे वचन के पक्के, सरल व संस्कारवान होते हैं. उन्होंने छत्तीसगढ़ के बस्तर व सुकमा के हालात का जिक्र करते हुए कहा कि जंगलों में रोड बना देने से आदिवासियों का विकास नहीं होगा. इससे उद्योगपतियों का विकास होगा. जमीन की लूट-खसोट होगी. देश में पांच करोड़ गोंड की जमीनें लूट ली गयी है.
वहां आदिवासियों के हित की बात नहीं होती है. महिलाअों-युवतियों की इज्जत सुरक्षित नहीं है. गोलियां चलती है, तो बच्चे भी मारे जाते हैं. बाहर की जातियों को आदिवासियों का सम्मान करना चाहिए. जल, जंगल, जमीन बचाने के लिए आदिवासियों के साथ गैर आदिवासियों को भी आगे आना होगा. यह सुरक्षित नहीं रहेगा, तो आदिवासी के साथ गैर आदिवासी भी मारे जायेंगे. यह बात समझने की है. ग्लोबल वार्मिंग से सभी प्रभावित होंगे. समय है गैर आदिवासी, आदिवासियों के साथ कंधे से कंधा मिला कर जल, जंगल व जमीन की रक्षा करने के लिए संघर्ष करें.
विकास का मतलब प्रकृति को कुचलना हो गया है : मणि
बिहार के विचारक व लेखक प्रेम कुमार मणि ने कहा कि हिंदुस्तान विविधताअों से भरा देश है. उसे एक करने के नाम पर हिंसा फैलाना सही नहीं है. भाषा को, उसकी भावनाअों को समझने की जरूरत है. हिंसा से समस्या का हल नहीं होगा. सरकार अपने वर्चस्व को बढ़ाने के लिए रोड बनाती है. गैर आदिवासी समाज विकास की बात करता है. उसके लिए प्रयासरत रहता है. आदिवासी समाज प्रकृति के साथ रहते हैं. रांची शहर बदल गया है.
पहले वाली स्थिति नहीं है. आज आप पैदल नहीं चल सकते हैं. पहले इतने अधिक वाहन व कंक्रीट के जंगल नहीं थे. श्री मणि ने कहा कि विकास का मतलब प्रकृति को कुचलना हो गया है. विकसित समाज का अर्थ है प्रकृति से दूर रहना. वे दूसरी दुनिया में रहते हैं, जबकि आदिवासियों का जीवन दृष्टि प्रकृति पर आधारित होता है. दोनो में अंतरविरोध है. सुकमा में 26 जवान मारे गये. यह दुखद है. उनके भी परिवार थे. यह सोचने की जरूरत है कि आखिर इस तरह की घटनाएं क्यों हो रही है. अपने देशवासियों पर गोली चला कर सुखी नहीं रह सकते हैं. आखिर गोली क्यों चलायेंगे. बातचीत कर समस्या का हल क्यों नहीं खोजेंगे.
आदिवासी दर्शन के बिना आदिवासी साहित्य पर बात करना बेमानी : डॉ मीणा
सागर विश्वविद्यालय के डाॅ मनीष मीणा ने कहा कि अंतिम दो दशकों में आदिवासी साहित्य पर बहुत कुछ किया गया है.आदिवासी दर्शन के बिना आदिवासी साहित्य पर बात करना बेमानी होगी. आदिवासी दर्शन में जीवन, परंपरा, संस्कृति से लेकर भाषा भी शामिल है. गैर आदिवासियों द्वारा बिना आदिवासी दर्शन के साहित्य लिखा जा रहा है. आदिवासी साहित्य के लिए वैचारिकता व कट्टरता की जरूरत है. डॉ मीणा ने कहा कि संघर्षों द्वारा आदिवासी समाज अपनी बातें रख रहा है. यह समस्त सृष्टि व प्रकृति की बात करता है. पहले यह साहित्य माैखिक रूप में था. विकास के नाम पर आदिवासियों का शोषण हो रहा है. उन्हें भाषा-संस्कृति से काटा जा रहा है.
यहीं पैदा होनेवाले कर रहे हैं शोषण : मधु मंसूरी
लोक गायक मधु मंसूरी हंसमुख ने कहा कि किसी भी तरह का शोषण यहां की मिट्टी से पैदा होनेवाले लोग ही कर रहे हैं. रांची के आसपास 50 किमी में अवस्थित पहाड़ों के पत्थर रांची आ गये. बालू व जंगल के पेड़ भी रांची आ गये. विकास के नाम पर लूट हुई. हमारे लोगों ने पैसों की लालच में चार लाख एकड़ जमीन बेच दी. जब हम पैसा लेकर दोना-कोना दिये हैं, तो किस मुंह से जमीन वापस मांगेंगे. मंसूरी ने वर्ष 1982 में गाये अपने गीत साहित्य मशाल धरअ…. प्रस्तुत किया.
भाषा, संस्कृति बचा कर रखना जरूरी : वंदना
अखड़ा की पूर्व महासचिव वंदना टेटे ने अतिथियों का स्वागत करते हुए आदिवासी समाज पर आये संकट का जिक्र किया. उन्होंने कहा कि मातृभाषाअों के संरक्षण, विकास व सम्मान दिलाने के लिए वर्ष 2003 में अखड़ा की स्थापना की गयी थी. हमारी भाषाअों को दिखावे का सम्मान नहीं चाहिए.
लूट-खसोट की राजनीति देश में हो रही है. झारखंड को ग्लोबल लूट के लिए खोल दिया गया है. आज समय का तकाजा है कि हम एकजुट हो कर ग्लोबल लूट को रोकने का काम करें. हम साहित्यकार हैं. उन्होंने कहा कि संस्कृतिकर्मी हैं. संस्कृति को खत्म करने पर लोग लगे हुए हैं. आदिवासी व सदानों के बीच ही नहीं, बल्कि आदिवासियों के बीच में धर्म व राजनीति के नाम पर फूट डाला जा रहा है. भाषा, संस्कृति ही झारखंडियों की पहचान है, उसे बचा कर रखना है.
महासम्मेलन विशेषांक का लाेकार्पण
इससे पूर्व विभिन्न लेखकों द्वारा लिखित पुस्तकों सहित महासम्मेलन विशेषांक का लाेकार्पण किया गया. सावित्री बड़ाईक व उनकी टीम ने पुरखों का स्मरण कराया. नगाड़ा बजा कर महासम्मेलन का उदघाटन किया गया. डाॅ अंजू व टीम के सदस्यों ने परंपरागत तरीके से अतिथियों का स्वागत किया. कार्यक्रम का संचालन रेशमा सिंह ने किया, जबकि धन्यवाद ज्ञापन डाॅ करमचंद्र अहीर ने किया. विमर्श सत्र में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के खतरे विषय पर वक्ताअों ने विस्तार से चर्चा की. इस अवसर पर खेल निदेशक रणेंद्र कुमार, लेखक प्यारे हुसैन प्यारे, अगस्तीन महेश कुजूर, शंभुनाथ माहात, डा नागेश्वर महतो, जोवाकिम तोपनो, डा एमएन गोस्वामी सुधाकर, ए केसरिआर सहित शोधार्थी भी उपस्थित थे.
इन पुस्तकों का हुआ लोकार्पण
पुस्तक का नाम लेखक
दादुड़ खेदा प्यारे हुसैन प्यारे
पूंप पून अगस्तीन महेश कुजूर
सतिघाट शंभुनाथ माहात
डीड़गर इपिल जोवाकिम तोपनो
जोंक व बांग्ला लिपि में कुड़माली नाटक डाॅ एम गोस्वामी सुधाकर
फॉफर ए केसरिआर

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