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धार्मिक उन्माद के बढ़ते दौर में

डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया राजस्थान के राजसमंद की एक घटना ने पूरे देश को हिला कर रख दिया है, जिसमें शंभूलाल नामक व्यक्ति ने अफराजुल नामक अल्पसंख्यक समुदाय के एक मजदूर की हत्या कर उसका वीडियो बना कर वायरल कर दिया था. इस तरह की घटनाएं अब तक केवल […]

डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
राजस्थान के राजसमंद की एक घटना ने पूरे देश को हिला कर रख दिया है, जिसमें शंभूलाल नामक व्यक्ति ने अफराजुल नामक अल्पसंख्यक समुदाय के एक मजदूर की हत्या कर उसका वीडियो बना कर वायरल कर दिया था. इस तरह की घटनाएं अब तक केवल आतंकी संगठन करते आये हैं. हत्या के बाद धार्मिक उल्लास, नारेबाजी और उसका प्रदर्शन!
यह किसी भी धर्म का धार्मिक कृत्य नहीं हो सकता है. धर्म को लेकर कट्टरता की बात पुरानी है. मध्य युगीन बर्बरता से होती हुई यह कट्टरता नये रूप में हमारे सामने उपस्थित हो रही है.
कभी महात्माओं ने धर्म को परिभाषित करते हुए कहा था कि जो सहज है वही धर्म है. रामानंद ने कहा था ‘जाति-पाति पूछे न कोई/हरि को भजै सो हरि को होई’. यानी जो ईश्वर की स्तुति करता है वही ईश्वर का होगा.
भारत के मध्ययुग में उभरे इस विचार ने आगे चलकर भक्ति आंदोलन का सूत्रपात किया. भक्ति आंदोलन ने ‘ईश्वर’ या ‘परमात्मा’ को सहज सुलभ होने की बात करते हुए कण-कण में उसकी मौजूदगी को रेखांकित किया. यह भक्ति आंदोलन पुरोहितों के पाखंड और धार्मिक कर्मकांड के विरुद्ध था. कबीर और तुलसी दोनों के विचार भले ही अलग-अलग रहे हों, लेकिन दोनों अपने विचारों में धर्म के पाखंड के विरुद्ध थे.
मानव समाज में धर्म और ईश्वर को लेकर बनी सत्ता के विरुद्ध संघर्ष का गौरवमयी इतिहास रहा है. यूरोपीय समाज को ‘अंधकार युग’ से निकलने के लिए चर्च और पोप के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ा था. चर्च और पोप भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए थे, वे पवित्रता के पर्चे बांटते थे और उसकी आज्ञा की अवमानना करने पर मृत्युदंड तक दिया जाता था. यूरोप में विज्ञान धर्म की रूढ़ियों के विरुद्ध तर्क और सवाल के साथ खड़ा हुआ. वैज्ञानिकों को इसके लिए अपनी कुर्बानी तक देनी पड़ी. उसी तरह इस्लाम में बढ़ रही कट्टरता के विरुद्ध उदारपंथी सूफियों का आंदोलन हुआ.
जब हम इतिहास में जाकर इस तरह के आंदोलनों का अध्ययन करते हैं, तब हमें यह दिखाई देता है कि धर्म के नाम पर ईश्वर की जो ‘सत्ता’ निर्मित की गयी है, वह ‘सत्ता’ किसी ‘ईश्वर की सत्ता’ नहीं है, बल्कि वह समाज के कुछ वर्गों की सत्ता होती है, जो अपना प्रभुत्व कायम रखने के लिए धार्मिक भावना का इस्तेमाल करते हैं. इतिहास की क्रांतिकारी घटनाएं हमें धर्म के नाम पर उभर रही सत्ताओं को पहचानने में मदद करती हैं.
धार्मिक कट्टरता आज वैश्विक धरातल पर कई रूपों में उभर रही है. इसके पीछे सत्ता’ और ‘वर्चस्व’ की भावना निहित है. इस्लामिक स्टेट जैसे संगठन भले ही इस्लामी कट्टरता के केंद्र में हों, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि यह कट्टरता सिर्फ किसी एक धर्म का ही मामला है.
राजनीतिक शक्ति और संतुलन भी किसी की कट्टरता को परिभाषित करती है. खाड़ी युद्ध के बाद एक ओर प्रतिरोधी चेतना के साथ इस्लाम की गोलबंदी हुई, वहीं दूसरी ओर उसमें धार्मिक अस्मिता के नाम पर कट्टरता हावी होती गयी. इराक युद्ध और उसके बाद एक खास धर्म के विरुद्ध माहौल बनता चला गया. इससे कट्टरपंथ और धार्मिक उदारवादियों के भेद मिटते चले गये. धार्मिक कट्टरता और उदारता किसी भी धर्म में हो सकती है. उदाहरण के लिए आप देख सकते हैं- डोनाल्ड ट्रंप द्वारा संयुक्त राष्ट्र की नीतियों का उल्लंघन करके येरुशलम को इस्राइल की राजधानी घोषित करने की कूटनीति में भी कट्टर धार्मिक भावना की गंध है. तुष्टीकरण और धार्मिक भावनाओं की खेमेबंदी ही ऐसी कट्टरता को जन्म देती है.
आम आदमी के लिए सवाल यह है कि वह धर्म के नाम पर बढ़ती कट्टरता को किस तरह देखे? जब कोई धर्मांध किसी व्यक्ति की हत्या करता है, तो क्या एक आम आदमी को धार्मिक तुष्टि मिलती है? क्या किसी संगठन के आतंकी रवैये से किसी सहज इंसान को यह महसूस होता है कि उसके धर्म की विजय हुई? सीधी सी बात है कि कोई भी धर्मावलंबी किसी की हत्या से उल्लसित नहीं होता है. सहज धार्मिक मन ऐसी घटनाओं से सबसे ज्यादा आहत होता है.
एक सहज धार्मिक अपने धर्म पर आस्था रखता है, लेकिन वह दूसरे धर्म से घृणा भी नहीं करता. अगर वह दूसरे धर्म के प्रति घृणा भाव से अपने धर्म के प्रति आस्था रखता है, तो वह धर्म की भावना से नहीं, बल्कि धर्म की राजनीति से प्रेरित है.
धर्म की राजनीति बहुत महीन होती है. यह किसी के गिलास में पानी पीने या न पीने तक घुसी हुई है. सहज धार्मिक व्यक्ति ही इसके चंगुल में फंसता है और वही इसकी प्रतिरोधी शक्ति भी है.
यह कितनी बड़ी विडंबना है कि धर्म ग्रंथों में सबसे ज्यादा प्रेम, दया, करुणा और त्याग की बात कही गयी है, लेकिन सबसे ज्यादा क्रूरता और घृणा धर्म के नाम पर ही फैलती है. इसकी वजह धर्म को सत्ता की तरह इस्तेमाल करना है. धर्म की सत्ता का इस्तेमाल करनेवाले सबसे ज्यादा उसे सांस्थानिक रूप देते हैं. धार्मिक संस्थाएं व्यक्ति के व्यवहार को नियंत्रित करने लगती हैं.
संस्थाएं ही धर्म की श्रेष्ठता का विचार देती हैं. संस्थाएं ही शत्रुओं को भी चिह्नित करती हैं. क्या एक सहज व्यक्ति इस बात को महसूस नहीं कर सकता कि उसके धार्मिक व्यवहार अपनी अंतरात्मा से संचालित हो रहे हैं या किसी संगठन के विचार उसे संचालित कर रहे हैं? धर्म आस्था पर आधारित होता है.
आस्था के नाम पर तर्क और सवाल का निषेध किया जाता है. लेकिन, यह नहीं भूलना चाहिए कि तर्क और सवाल ही हमें धर्मांधता से बचाते हैं. क्या कबीर ने मौलवियों से, पंडितों से सवाल नहीं किया था? क्या मार्टिन लूथर ने चर्च और पोप से सवाल नहीं किया था? क्या सहज धार्मिक व्यक्ति में तर्क और सवाल नहीं होते?
राजसमंद की घटना सहज हिंदू मन के लिए कभी भी गौरव की बात नहीं हो सकती है. हिंदू समाज के लिए यह संकेत है कि उसके अंदर भी कट्टरपंथियों का समूह उभर रहा है. उसे ऐसे कट्टरपंथी समूहों को चिह्नित करना होगा, जो अपनी ‘अस्मिता’ के खतरे बताकर दूसरे समूहों को शत्रु के रूप में प्रचारित कर रहे हैं. उसे धर्म की सहज भावना के साथ खड़ा होना होगा.
आज किसी भी धर्म के अंदर कट्टरता और उदारता के विचार को पहचानने की जरूरत है. ऐसा करके ही हम धर्म की सत्ता का राजनीतिक इस्तेमाल करनेवालों को बहिष्कृत कर सकते हैं और खुद को उन्मादों की भीड़ से अलग कर सकते हैं.

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