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मृत्यु पर अब गांव में न भोज होगा, न कर्मकांड

मधेपुरा: मृत्यु भोज की प्रथा गरीब परिवार को भीतर से तोड़ देती है. कई बार इसके लिए लिये गये कर्ज का भार दूसरी पीढ़ी भी उठाती है. लेकिन, मधेपुरा जिले के मुरलीगंज प्रखंड स्थित भदौल बुधमा पंचायत के भदौल गांव में ग्रामीणों ने एक ऐसा साहसिक निर्णय लिया है, जो न केवल अंधविश्वास की बेड़ियों […]

मधेपुरा: मृत्यु भोज की प्रथा गरीब परिवार को भीतर से तोड़ देती है. कई बार इसके लिए लिये गये कर्ज का भार दूसरी पीढ़ी भी उठाती है. लेकिन, मधेपुरा जिले के मुरलीगंज प्रखंड स्थित भदौल बुधमा पंचायत के भदौल गांव में ग्रामीणों ने एक ऐसा साहसिक निर्णय लिया है, जो न केवल अंधविश्वास की बेड़ियों को तोड़ने वाला है, बल्कि भोज के नाम पर कर्ज के बोझ से भी गरीबों को निजात दिलायेगा. गांव के लोगों ने तय किया है कि किसी के निधन पर वे न तो मृत्यु भोज करेंगे और न ही किसी तरह का कर्मकांड ही होगा.

विगत शुक्रवार को भदौल निवासी रामचंद्र राय की सास राजो देवी का निधन हो गया. इस अवसर पर लोग एकत्रित हुए थे. दाह संस्कार के बाद उनके ही दरवाजे पर बैठक हुई. इसी बैठक में सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया गया कि समाज में व्याप्त कुरीतियों को सुधारने की जरूरत है. इसलिए मृत्यु भोज नहीं किया जाये और न ही आत्मा के उद्धार के लिए कर्मकांड ही कराया जाये.

पहले तो गांव के लोग इस बात पर थोड़ा हिचकिचा रहे थे, लेकिन बाद में सब सहमत हो गये. बैठक में यह भी निर्णय लिया गया कि गांव में किसी की भी मृत्यु पर इसी परंपरा को आगे बढ़ाया जाये. इस निर्णय में मुख्य रूप से विनोद यादव, मुखिया प्रतिनिधि पवन कुमार, सरपंच राजेंद्र राम, सेवा निवृत शिक्षक दीपनारायण यादव, सूर्यनारायण यादव, रामजी यादव, जयप्रकाश यादव, हजारी प्रसाद मंडल, भुवनेश्वरी यादव, पिंटू कुमार, रमेश तांती तथा अन्य ग्रामीण शामिल रहे. रामचंद्र राय ने बताया कि यह निर्णय बहुत ही आवश्यक था. 2016 में जब उनके पिता का निधन हुआ था, तब उन्होंने कर्मकांड और भोज में पांच लाख से ज्यादा खर्च किये तथा आज तक कर्ज से नहीं उबर पाये हैं. पंचायत के ही जितेंद्र कुमार यादव ने कहा कि दो महीना पहले उन्होंने मृत्युभोज पर लाखों रुपये खर्च किये. अब जितेंद्र यादव अपने बच्चे को अच्छे विद्यालय में नहीं पढ़ा सकते हैं.

पहले से तैयार थी आंदोलन की पृष्ठभूमि : गांव के विनोद यादव ने बताया कि गांव में कर्मकांड का विरोध लंबे समय से चल रहा था. इसकी शुरुआत 2013 में झकस मंडल की पत्नी के देहावसान से हुई थी. उनके निधन के बाद कोई कर्मकांड नहीं हुआ था तथा पांचवें दिन श्रद्धांजलि भोज रखा गया था. उस समय भी ग्रामीणों के विरोध का सामना करना पड़ा था, लेकिन अब गांव वाले इसके लाभ को समझने लगे हैं. इंतजार इस बात का है कि यह वैचारिक आंदोलन भदौल गांव से निकल कर राज्य और पूरे देश में फैले.
बेटी ने दिया मां की अर्थी को कंधा
भदौल गांव ने अंधविश्वास और कुप्रथाओं को तोड़ने में सकारात्मक पहल की है. इस गांव की बेटी ने अपनी मां की अर्थी को कंधा दे कर कुरीतियों के खिलाफ संदेश दिया. विगत शुक्रवार को भदौल निवासी रामचंद्र राय की सास राजो देवी का निधन हो गया. राजो देवी की जब अर्थी उठी तो उनकी बेटी गुजिया देवी ने भी उस अर्थी को कंधा दिया. पहले तो लोगों ने दबी जुबान से ही सही, लेकिन विरोध किया, लेकिन बेटी गुजिया देवी अड़ी रही. तब परिजन सहित समाज के अन्य लोगों ने भी उनका साथ दिया.
मृत्यु भोज पर साल में पांच अरब से ज्यादा खर्च
सामाजिक कार्यकर्ता हरिश्चंद्र मंडल ने बताया कि एक आकलन के अनुसार, सिर्फ बिहार के गांवों में एक साल में मृत्युभोज पर होने वाला खर्च पांच अरब रुपये से ज्यादा है. औसतन एक पंचायत में एक साल में मृत्युभोज पर 50 लाख से ज्यादा खर्च हो रहा है. लोग मृत्यु भोज के नाम पर अपनी जिंदगी को आर्थिक विपन्नता में धकेल देते हैं. हरिश्चंद्र मंडल बामसेफ के महासचिव हैं और अंधविश्वास और पाखंड के खिलाफ अभियान चलाते रहे हैं.

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