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महागठबंधन की बाधाएं

नवीन जोशी वरिष्ठ पत्रकार naveengjoshi@gmail.com आम चुनाव नजदीक आ रहे हैं, लेकिन भाजपा के खिलाफ विपक्ष के महागठबंधन की कोई शक्ल नहीं बन पा रही. बल्कि, विपक्ष की एकता की संभावनाओं पर सवालिया निशान लगते जा रहे हैं. कोशिशें हो रही हैं, लेकिन पक्का नहीं है कि राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष का गठबंधन बन ही […]

नवीन जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
naveengjoshi@gmail.com
आम चुनाव नजदीक आ रहे हैं, लेकिन भाजपा के खिलाफ विपक्ष के महागठबंधन की कोई शक्ल नहीं बन पा रही. बल्कि, विपक्ष की एकता की संभावनाओं पर सवालिया निशान लगते जा रहे हैं. कोशिशें हो रही हैं, लेकिन पक्का नहीं है कि राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष का गठबंधन बन ही जायेगा.
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में अपेक्षानुरूप कांग्रेस का सपा और बसपा से समझौता नहीं हो सका. सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव कांग्रेस के प्रति अब भी नरम हैं, लेकिन बसपा नेत्री मायावती ने भाजपा के साथ ही कांग्रेस के भी विरुद्ध मोर्चा खोल दिया है. महागठबंधन के प्रमुख पैरोकार शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भी मध्य प्रदेश में अलग से चुनाव लड़ने जा रही है.
क्षेत्रीय स्तर पर विपक्षी दलों के गठबंधन की टुकड़ा-टुकड़ा शक्ल बनती दिख रही है. उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा आपसी समझौते पर अभी तक राजी हैं, यद्यपि सीटों का बंटवारा होना बाकी है, जिसे मायावती बहुत महत्व देती हैं.
अजित सिंह का राष्ट्रीय लोक दल इसका हिस्सा बनेगा या नहीं, तय नहीं है. कांग्रेस उम्मीद तो कर रही है कि लोकसभा चुनाव में वह भी इस गठबंधन में शामिल होगी, लेकिन मायावती के रुख के बाद इसमें बड़ा संदेह है. तेलंगाना विधानसभा चुनाव के लिए तेलुगु देशम, कांग्रेस, भाकपा और तेलंगाना जनसमिति में समझौता हुआ है. इस आधार पर आंध्र में तेलुगु देशम और कांग्रेस में संधि होने की संभावना बनती है लेकिन जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस की तेलुगु देशम से ठनी हुई है.
महागठबंधन की राह में दो बड़ी अड़चनें हैं. राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन के लिए एक राष्ट्रीय पार्टी का होना आवश्यक है, जो उसकी माला की डोर बन सके. भाजपा के विरुद्ध इस समय वह पार्टी कांग्रेस ही हो सकती है. पहली दिक्कत यही है. क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व कांग्रेस-विरोध पर टिका है.
उनका जन्म ही गैर-कांग्रेसवाद से हुआ या फिर क्षेत्रीय भावनाओं और मुद्दों की उपेक्षा के कारण कांग्रेस-विरोध से. दक्षिण के द्रविड़-दल हों या यूपी-बिहार के सपा, राजद, बसपा आदि, उनका मूल आधार ही कांग्रेस-विरोध रहा है. ऐसे क्षेत्रीय दलों के उभार से कांग्रेस कमजोर होती चली गयी. मसलन, यूपी-बिहार में मुलायम, मायावती, लालू, नीतीश के हावी होने के साथ ही कांग्रेस हाशिये पर चली गयी.
कांग्रेस का मजबूत होना इन दलों के लिए खतरे की घंटी जैसा है. इन दलों ने बीच-बीच में कांग्रेस को रणनीतिक या मुद्दा आधारित समर्थन दिया अथवा चुनावी गठबंधन किया, लेकिन उन्हें यह शंका हमेशा परेशान करती रही कि कहीं कांग्रेस उन्हें खा न जाये. इसीलिए वे कांग्रेस को अपने राज्यों में छोटा सहयोगी बनाते रहे और बीच-बीच में झटके भी देते रहे.
सपा-बसपा ने तो यूपीए का हिस्सा बनना भी मंजूर नहीं किया. राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में गठबंधन की कीमत में बसपा सीटों का बड़ा हिस्सा इसलिए मांग रही थी कि वह कांग्रेस के सहारे वहां अपना विस्तार कर सके. उत्तर प्रदेश की तरह भाजपा को हराना उन राज्यों में उसकी प्राथमिकता नहीं है. वह कांग्रेस की प्राथमिकता है.
दूसरी तरफ कांग्रेस की अपनी मजबूरियां हैं. उसे अपने अस्तित्व के लिए राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को हराना जरूरी है. इसके लिए आज उसे क्षेत्रीय दलों का सहयोग चाहिए, किंतु इस सहयोग की वह इतनी बड़ी कीमत नहीं दे सकती कि उसकी अपनी पहचान खतरे में पड़ जाये. यही कारण है कि राष्ट्रीय नेतृत्व की इच्छा के बावजूद कांग्रेस की राज्य इकाइयों ने उसका विरोध किया.
महागठबंधन की राह की दूसरी बड़ी बाधा क्षेत्रीय दलों की आपसी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता और आधार वोट की लड़ाई है. उत्तर प्रदेश में भाजपा से उनके अस्तित्व ही को खतरा न हो गया होता, तो सपा-बसपा कभी एक नहीं हो सकते थे. यह अलग बात है कि तमिलनाडु के द्रमुक एवं अन्नाद्रमुक की तरह इन दोनों दलों का वोट-आधार एक नहीं है. बसपा का मूल आधार वोट दलित हैं, तो सपा का यादव-प्रधान ओबीसी. दिल्ली में ‘आप’ अगर कांग्रेस का साथ देगी, तो स्वयं उसके लिए खतरा खड़ा हो जायेगा. कांग्रेस का आधार वोट लेकर ही वह भाजपा के मुकाबिल खड़ी हो सकी है. यही हाल बंगाल में तृणमूल कांग्रेस का है.
वह अपने आधार वोट की कीमत पर कांग्रेस को उभरने का मौका क्यों देगी. आंध्र में तेलुगु देशम और वाईएसआर कांग्रेस में यही लड़ाई है. शरद पवार को सौदेबाजी की ताकत पाने के लिए दिखाना है कि वे मध्य प्रदेश जैसे राज्य में भी खेल बिगाड़ने या बनाने की हैसियत रखते हैं.
क्षेत्रीय दल किसी दूसरे राज्य में तो प्रतिद्वंद्वी दल को समर्थन दे सकते हैं, लेकिन अपने राज्य में वे थोड़ी भी जमीन छोड़ने के लिए तैयार नहीं.
ऐसे प्रतिद्वंद्वी दलों को जो‌ड़ने का काम राष्ट्रीय पार्टी को करना होता है. आज खुद कांग्रेस की चल नहीं रही. बसपा ने उसे आंखें दिखा दी. राजस्थान, एमपी और छत्तीसगढ़ में वह भाजपा से सत्ता छीन सकी, तो अवश्य उसकी बात में वजन आ जायेगा.
कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद आज उन सभी को गठबंधन की आवश्यकता महसूस हो रही है, तो उसका कारण भाजपा से उनके लिए पैदा हुआ खतरा है.
चंद्रबाबू नायडू चार साल भाजपा के साथ गठबंधन सरकार में रहकर आज उसके खिलाफ चुनावी गठबंधन के लिए प्रयासरत हैं, तो इसीलिए कि आंध्र के मतदाता को खुश रखने लायक कुछ वे हासिल नहीं कर सके. बल्कि, भाजपा उनके जनाधार में सेंध लगाने लगी थी. ममता को भी भाजपा से खतरा लग रहा है. वे भी विपक्षी गठबंधन के लिए कोशिशें कर रही हैं.
स्थिति यह है कि क्षेत्रीय दल अपने राज्य में भाजपा को हराने के लिए गठबंधन करना चाहते हैं, लेकिन अपनी कीमत पर कांग्रेस को भी उभरने का मौका नहीं देना चाहते. इसीलिए बीच-बीच में गैर-भाजपा और गैर-कांग्रेस गठबंधन की भी बात उठती है. मगर उसका राष्ट्रीय स्वरूप कैसे बने?
गठबंधन के लंगर के रूप में कोई राष्ट्रीय पहचान वाला दल चाहिए. नेतृत्व का मसला भी है. कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी होगी, लेकिन आज उसका नेतृत्व क्यों स्वीकार किया जाये. तीसरे मोर्चे के पूर्व प्रयोगों ने क्षेत्रीय नायकों में भी महत्वाकांक्षा जगाने का काम किया है.
इन्हीं सब कारणों से भाजपा के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन आसान नहीं है. ऐन चुनावों के मौके तक भाजपा अजेय लगने लगेगी, तो महागठबंधन के आसार बढ़ जायेंगे. विरोधी दलों को एकजुटता के लिए किसी बाध्यता की आवश्यकता होती रही है.

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