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मुश्किल में स्कूली बचपन!

डॉ सय्यद मुबीन जेहरा शिक्षाविद् हरियाणा के गुरुग्राम (गुड़गांव) में सितंबर के शुरू में हुए एक बच्चे के कत्ल के मामले में सीबीआइ के नये खुलासे के बाद मामला और ज्यादा उलझ गया लगता है. अब तक तो हम समझ रहे थे कि ड्राइवर कातिल है, लेकिन अब सीबीआइ यह बता रही है कि हरियाणा […]

डॉ सय्यद मुबीन जेहरा
शिक्षाविद्
हरियाणा के गुरुग्राम (गुड़गांव) में सितंबर के शुरू में हुए एक बच्चे के कत्ल के मामले में सीबीआइ के नये खुलासे के बाद मामला और ज्यादा उलझ गया लगता है. अब तक तो हम समझ रहे थे कि ड्राइवर कातिल है, लेकिन अब सीबीआइ यह बता रही है कि हरियाणा पुलिस की जांच गलत थी और कातिल उसी स्कूल का ग्यारहवीं का छात्र ही है. समझ में नहीं आ रहा किसकी बात का यकीन किया जाये. इसीलिए कहा जाता है कि जब तक कोई मुजरिम अदालत से सजा न पा जाये, तब तक उसे मुजरिम नहीं समझना चाहिए.
सवाल है कि जिन वकीलों ने ड्राइवर का मुकदमा लड़ने से इसलिए इनकार कर दिया था, क्योंकि पुलिस की जांच में उसे कातिल मान लिया गया था, वही वकील अब इस बच्चे का मुकदमा लड़ेंगे या नहीं? यह सवाल अहम है, क्योंकि सीबीआइ ने जिस ग्यारहवीं के बच्चे को मुजरिम माना है, उसके पिता खुद भी वहां वकील हैं, जहां के वकीलों ने ड्राइवर का मामला लड़ने से इनकार किया था.
इस तरह के जज्बाती मामले में समाज को और खास तौर से उन लोगों को, जिन पर समाज की जिम्मेदारियां हैं, जज्बात को किनारे रखना चाहिए, ताकि वह अपना काम सही से कर सकें. अगर सीबीआइ की बात सच है, तो सोचना होगा कि हमारे बच्चे कहां जा रहे हैं.
अखबार में आया है कि उसी स्कूल में एक बच्चे ने बताया कि वहां एक दिन एक बच्चा जहर लेकर आया था और उसे किसी को भी पिलाने की कोशिश कर रहा था कि जिससे स्कूल में कोहराम बरपा हो जाये. अगर यह भी बात सच है तो फिर तो हमें संजीदगी से सोचना होगा कि हम किधर जा रहे हैं. बच्चे हमारा आनेवाला कल हैं. अगर आज यही कल इतना चिंताजनक है, तो कल वह इससे ज्यादा खतरनाक हो सकता है, अगर आज का बचपन इस अंदाज से बड़ा हो रहा है.
कहां गलती हुई है? शिक्षा तो हमें इंसान बनाती है, मगर यह कैसी शिक्षा है, जो ग्यारहवीं के एक बच्चे को हिंसक बना देती है. मैंने एक पढ़े-लिखे इंसान से पूछा कि इस मामले में आपका क्या कहना है?
पुलिस सही थी या सीबीआइ सही है? वे कहने लगे कि दिल तो करता है कि पुलिस सही निकले, लेकिन सीबीआइ की जांच के बारे में लोगों की राय तो यही होती है कि उनके पास सहूलियत ज्यादा होती है, तो उनके पास सच तक पहुंचने के ज्यादा रास्ते हैं. लेकिन, जब तक अदालत में साबित न हो जाये, कुछ कहना मुश्किल है. क्योंकि दोनों ही सरकारी संस्थाएं हैं. इसलिए किस पर यकीन करें किस पर नहीं, यह कहना मुश्किल है. बहरहाल, जब तक अदालत न कह दे, तब तक किसी को कातिल नहीं कहना चाहिए.
अगर एक पल को हम यह मान लें कि सीबीआइ की जांच सही है, तो फिर हमें फिक्र होनी चाहिए कि आखिर हमसे कहां गलती हुई है? इसके लिए कौन जिम्मेदार है? क्या स्कूल जिम्मेदार है, जिसने बच्चों पर इतना दबाव बनाकर रखा हुआ है कि बच्चे अपने बचाव के लिए इतने खतरनाक इरादों के साथ आगे आते हैं. या वह अभिभावक, जो बच्चों को सब कुछ दे रहे हैं, सिवाय वक्त के? या फिर वह समाज जिम्मेदार है? क्या शिक्षा के नाम पर तेजी से दुकानें खोलने में हम लोग इतना भटक गये हैं कि अपने बच्चों के भविष्य से बेफिक्र हो गये हैं?
क्या हाथ में आ गये मोबाइल और सोशल मीडिया पर बैठे रहने की वजह से हम लोग अब एक-दूसरे से अलग होते जा रहे हैं? सवाल बहुत हैं, लेकिन उनकी जड़ में सिर्फ एक ही बड़ा सवाल है कि क्यों हम अपने बच्चों की तरबियत में नाकाम हो रहे हैं. आखिर एक शिक्षण संस्थान में कैसे एक मासूम बच्चा मौत का शिकार हो जाता है?
आजकल कुछ निजी स्कूलों को छोड़कर ज्यादातर शैक्षिक कम, कारोबारी ज्यादा हो चुके हैं. कोई भी स्कूल या शैक्षिक संस्था उसके शिक्षक और प्रबंधन के काम से अच्छा बनता है.
जरूरी नहीं है कि एक नाम से देशभर में चलनेवाले सभी स्कूल अच्छे ही हों. लेकिन, ये स्कूल ब्रांड के तौर पर काम करते हैं. धीरे-धीरे ये इतने बड़े हो जाते हैं कि इनके खिलाफ कोई कुछ नहीं कर पाता. मुश्किल यह है कि एक बार आपका बच्चा किसी स्कूल में दाखिल हो गया, तो फिर वहां से उसे निकाल पाना आपके लिए मुश्किल हो जाता है. पहले तो दाखिला ही मुश्किल से होता है, और दूसरी जगह दाखिला मिल पाना अलग झंझट है. ऐसा कई बार होता है कि टीचर्स की गलती के बावजूद आपको अपने बच्चे को ही डांटना पड़ता है. क्योंकि ये स्कूल कारोबारी बन चुके हैं, तो अक्सर इन्हें कुछ ऐसे टीचर भी रखने पड़ते हैं, जो असरदार लोगों के करीबी हों. इसीलिए ऐसे टीचर की खामियों को भी नजरंदाज करना पड़ता होगा.
मां-बाप बच्चों की भारी-भरकम फीस से पहले ही दबे होते हैं, इसलिए वे बच्चों की पढ़ाई को लेकर कुछ और सुनने को तैयार नहीं होते. ऐसा भी होता है कि न चाहते हुए भी बच्चों को वह कोर्स पढ़ने पर मजबूर किया जाता है, जिसमें उसकी कोई रुचि नहीं होती. ये सारी चीजें कहीं-न-कहीं उस उम्र में बच्चों को प्रभावित करती हैं, जिस उम्र में उन्हें सुने जाने की जरूरत है.
एक अंग्रेजी अखबार ने लिखा है कि यह बच्चा पियानो बजाने में माहिर था और उसे संगीत का शौक था. यह नहीं मालूम कि पढ़ाई को लेकर उसे कैसी मुश्किलें थीं, लेकिन इतना जरूर है कि कहीं-न-कहीं उसकी कुछ ऐसी परेशानी रही होगी, जिसे हल करने में स्कूल, मां-बाप और समाज नाकाम हुए हैं.

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