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वीआइपी कल्चर और पुलिस

विभूति नारायण राय पूर्व पुलिस अधिकारी एवं लेखक ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट (बीपीआरडी) ने अपने हालिया आंकड़ों में बताया है कि वर्तमान में हमारे देश में कुल 19.26 लाख पुलिसकर्मी हैं, जिनमें से 56,944 पुलिसकर्मियों को देशभर के कुल 20,828 वीआइपी व्यक्तियों की सुरक्षा में लगाया गया है और शेष पुलिसकर्मी देश के […]

विभूति नारायण राय
पूर्व पुलिस अधिकारी
एवं लेखक
ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट (बीपीआरडी) ने अपने हालिया आंकड़ों में बताया है कि वर्तमान में हमारे देश में कुल 19.26 लाख पुलिसकर्मी हैं, जिनमें से 56,944 पुलिसकर्मियों को देशभर के कुल 20,828 वीआइपी व्यक्तियों की सुरक्षा में लगाया गया है और शेष पुलिसकर्मी देश के आम नागरिकों की सुरक्षा में तैनात हैं. इस आंकड़े के विस्तार में जाकर बीपीआरडी ने पाया कि जहां 663 आम नागरिकों की सुरक्षा में सिर्फ और सिर्फ एक पुलिसकर्मी तैनात है, तो वहीं सिर्फ एक वीआइपी व्यक्ति के लिए औसतन 3 पुलिसकर्मी सुरक्षा में लगे हुए हैं. ऐसे कई और अन्य आंकड़े हैं, जिन पर विमर्श या बहस की जा सकती है.
मेरी नजर में ये आंकड़े चौंकानेवाले नहीं हैं. महज एक वीआइपी की सुरक्षा में तीन पुलिसकर्मियों को लगाये जाने के पीछे का मर्म यही है कि हम अपने समाज में जिस वर्ण व्यवस्था को मानते हैं, ये आंकड़े उसके परिचायक है.
हम उस समाज में रहते हैं, जहां वर्ण व्यवस्था, ऊंच-नीच, बड़ी-छोटी जाति, और ज्यादा-से-ज्यादा अमीर और ज्यादा-से-ज्यादा गरीब के सामाजिक वर्गीकरण के आधार पर लोगों का सामाजिक स्टेटस तय होता है. जो ज्यादा ताकतवर है, उसे सुरक्षा की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, और यही आज हमारी राजनीतिक व्यवस्था का सच है.
राजनीतिक व्यवस्था में सत्ता में बैठा व्यक्ति खुद को अधिक ताकतवर समझता है, तो यह स्वाभाविक है कि उसकी सुरक्षा के लिए पुलिसकर्मियों काे लगाया जाये. मजे की बात तो यह है कि एक वीआइपी के लिए तीन पुलिसकर्मी की व्यवस्था में उसकी सुरक्षा का पहलू कम होता है, बल्कि स्टेटस और दिखावे का पहलू ज्यादा होता है.
वह, दरअसल, इसलिए कि हमारा समाज अभी उतना आधुनिक नहीं हो पाया है, कि वह यह समझ सके कि सच्चे अर्थों में लोकतंत्र का मतलब क्या है. समाज की इसी कमजोरी का फायदा ये वीआइपी उठाते हैं और अपने स्टेटस को बढ़ाते हैं, ताकि लोग उनके पीछे भागते रहें. और विडंबना है कि देश का आम आदमी ऐसा ही करता है. स्टेटस सिंबल की मजबूरियों की शिकार इस वीआइपी कल्चर को खत्म करने के लिए जरूरी है कि हमारा समाज आधुनिक सोच वाला बने.
जिस तरह से एक जमाने में राजा या राज दरबार की सुरक्षा में लगे प्रहरी भी खुद में राजसी प्रवृत्ति को पाल लेते थे, जिस तरह से अंग्रेजों के शासन में अंग्रेजों की सेवा में लगे लोग घमंड में चूर रहते थे, ठीक उसी तरह से आज पुलिस की नौकरी पाये लोग भी आम नागरिकों पर अपनी ताकत की धौंस जमाते हैं.
इस ऐतबार से यह बात सही नहीं है कि देश में पुलिसकर्मियों की संख्या ज्यादा होनी चाहिए. बल्कि यह होना चाहिए कि पुलिसकर्मी को ऐसी ट्रेनिंग मिले कि वह देश के नागरिकों की सुरक्षा के साथ-साथ खुद भी कानून के प्रति जवाबदेह बने, बजाय इसके कि वह कानून की धौंस दिखाकर लोगों में एक पुलिसिया डर पैदा करे. हमारे देश में ऐसी ही परिस्थिति है, जिसमें किसी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर से ज्यादा एक थानेदार का महत्व होता है.
हम एक प्रोफेसर का सम्मान कम, थानेदार का सम्मान ज्यादा करते हैं. यह परिस्थिति किसी भी लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है और न ही कानून-व्यवस्था के लिए ही उचित है. क्योंकि ऐसी परिस्थिति में गरीब आदमी सच्चा होते हुए भी शोषण का शिकार होता है और एक भ्रष्ट और अपराधी प्रवृत्ति के व्यक्ति (यह वीअाइपी भी हो सकता है) को हर तरह की सुरक्षा दे दी जाती है.
आजादी के बाद से ही या यह कह लें कि अंग्रेजों ने जिस प्रकार की पुलिस व्यवस्था दी थी, हम उसमें थोड़ा-बहुत सुधार के साथ उसी को लागू किये हुए हैं. आजादी के पहले यह पुलिस व्यवस्था अंग्रेजों को बहुत भाती थी, क्योंकि उन्होंने इसे अपने हिसाब से खड़ी की थी.
ठीक उसी तरह से यह पुलिस व्यवस्था आजादी के बाद हमारे नेताओं को भाने लगी और पूरी राजनीतिक व्यवस्था में ताकत के स्टेटस के रूप में इसका इस्तेमाल होने लगा, जो आज भी जारी है. हालांकि, सरकार ने लाल बत्ती हटाकर वीआइपी कल्चर को खत्म करने की एक पहल जरूर की थी, लेकिन यह अभी नाकाफी है. अभी वीआइपी कल्चर में कई ऐसे कुरूप आयाम हैं, जिन पर नीतिगत कुठाराघात करने की जरूरत है. तभी मुमकिन है कि स्टेटस सिंबल वाली दिखावे की स्थिति कुछ बदलेगी.
अक्सर लोग इस बात को जोर देकर कहते हैं कि भारत में पुलिसकर्मियों की संख्या कम है, इसलिए सुरक्षा व्यवस्था लुंज-पुंज रहती है. दुनिया के किसी देश से तुलना भी ठीक नहीं है कि वहां इतने नागरिकों पर इतने पुलिसकर्मी हैं, जिसके मुकाबले भारत में कम हैं.
मेरा ऐसा मानना बिल्कुल भी नहीं है. क्योंकि बेहतर शासन-प्रशासन के लिए पुलिसकर्मियों की उचित संख्या जरूरी तो है, लेकिन ज्यादा संख्या कोई पैमाना नहीं है. बहुत ज्यादा पुलिसकर्मी का होना भी एक स्वस्थ समाज का लक्षण नहीं है. लोगों के लिए पुलिसकर्मियों की संख्या कम क्यों है, यह आम नागरिकों की सुरक्षा की दृष्टि से एक सवाल तो है, लेकिन इस दृष्टि से संख्या के कम या ज्यादा होने से कोई फर्क नहीं पड़ता, जब तक यह यह नहीं देखा जाये कि पुलिसकर्मियों में कानून के प्रति जवाबदेही और ईमानदारी कितनी है.
उत्तर प्रदेश सरकार ने पिछले दिनों कहा कि उसने अपराधियों पर नकेल कसने की तैयारी कर ली है और वह मकोका की तर्ज पर यूपीकोका भी ला सकती है, जिसके तहत अपराधियों और माफियाओं पर पुलिस अब डंडा चलायेगी.
हो सकता है कि सरकार के नजरिये से कानून व्यवस्था के लिए यह उचित हो, लेकिन मेरी समझ में यह पुलिस को इतना ताकत देना है कि वह एक स्तर पर जाकर खुद अपराधी पुलिस बन जाये. इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकारें ही अपराधी पुलिस खड़ी करती हैं, और यही वह प्रवृत्ति है, जो वीआइपी व्यक्तियों को ज्यादा पुलिसकर्मियों वाली सुरक्षा के नाम पर अपना स्टेटस बढ़ाने का मौका मिल जाता है. यह स्वस्थ समाज के लिए ठीक नहीं है.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

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