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हार का पहला मोती जिबूती

नेहा सिन्हा रिसर्च एसोसिएट विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन अपनी राष्ट्रीय रक्षा नीति के तहत चीन ने हाल के वर्षों में अफ्रीकी महादेश के आरपार अपने सैन्य सहयोग को विस्तार दिया है. 11 जुलाई, 2017 को चीन ने दो जंगी जहाजों से अपनी एक सैन्य टुकड़ी हिंद महासागर के पार पूर्वी अफ्रीका के एक छोटे से गणराज्य […]

नेहा सिन्हा

रिसर्च एसोसिएट

विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन

अपनी राष्ट्रीय रक्षा नीति के तहत चीन ने हाल के वर्षों में अफ्रीकी महादेश के आरपार अपने सैन्य सहयोग को विस्तार दिया है. 11 जुलाई, 2017 को चीन ने दो जंगी जहाजों से अपनी एक सैन्य टुकड़ी हिंद महासागर के पार पूर्वी अफ्रीका के एक छोटे से गणराज्य जिबूती के लिए रवाना की, जिसका उद्देश्य चीन के पहले समुद्रपारीय स्थायी सैनिक अड्डे की स्थापना था. 1 अगस्त, 2017 को इस कार्य की औपचारिक शुरुआत भी हो गयी. 2008 से ही चीन अफ्रीका के मुख्य व्यापारिक साझीदारों में एक बना हुआ है, क्योंकि उसका उद्देश्य अफ्रीका में लंबे वक्त के लिए अपनी मौजूदगी सुनिश्चित करना है.

जिबूती उसकी इस नीति के केंद्र में है, क्योंकि यह हिंद महासागर के उत्तरी-पश्चिमी छोर पर स्थित है. यहां उसका नौसैनिक अड्डा चीन को पश्चिमी एशिया से जोड़नेवाले समुद्री मार्ग में ‘मोतियों के हार’ की स्थापना के नाम से मशहूर चीनी रणनीति के अंतर्गत पहला मोती है.

यह अड्डा चीन के लिए उसकी महत्वाकांक्षी ‘सामुद्रिक रेशम मार्ग’ की योजना साकार करने में सहायक होगा, जो वस्तुतः सामुद्रिक बुनियादी ढांचों का एक अंतरराष्ट्रीय संजाल है. इस संजाल का उद्देश्य चीन के व्यापारिक मार्गों की सुरक्षा, चीन की ओर जाते कच्चे मालों और तेल से लदे जहाजों और फिर उनसे ही चीन में तैयार माल की अदन की खाड़ी होकर यूरोप तक वापसी की अबाधित यात्रा सुनिश्चित करना है.

जिबूती क्षेत्रफल और जनसंख्या के लिहाज से एक छोटा देश है, पर अफ्रीका के एक छोर पर इसकी स्थिति ऐसी है कि यहां से एक ओर लालसागर और उसके आगे स्वेज नहर होते हुए भूमध्य सागर तक जबकि दूसरी ओर अदन की खाड़ी और अरब सागर होते हुए हिंद महासागर के अत्यंत अहम जल मार्ग की निगहबानी की जा सकती है.

इस जल मार्ग का महत्व रेखांकित करने को यही एक तथ्य काफी होगा कि हर रोज इसी होकर विभिन्न गंतव्यों के लिए करोड़ों बैरेल तेल तथा तेल उत्पाद गुजरते हैं. अपनी इसी अहम स्थिति के बूते जिबूती एक दशक से अमेरिकी, फ्रांसीसी और जापानी रक्षा बलों की मेजबानी करता रहा है. ज्ञातव्य है कि वर्ष 1977 में एक गणराज्य के रूप में जिबूती की आजादी से पूर्व उस पर फ्रांस का आधिपत्य था.

जिबूती में सुदीर्घ राजनीतिक स्थिरता रही है. यह विश्व के इस भाग में राजनीतिक तथा सैन्य रूप से तीन अत्यंत अशांत वैसे क्षेत्रों का भी संधि स्थल है, जहां अंतरराष्ट्रीय सैन्य दिलचस्पी तथा मौजूदगी बराबर रहती है. इसकी राजधानी का भी नाम जिबूती है, जो स्वयं बड़े जंगी जहाजों के रुकने हेतु एक मुफीद पत्तन है.

इसने चीन को इस अड्डे हेतु ओबोक नामक जिस तटवर्ती मछुआरा गांव की जमीन पट्टे पर दी है, वह भी ऐसी ही सुविधाएं विकसित करने के अनुकूल है. वर्ष 2000 से ही कार्यरत अमेरिका का एकमात्र स्थायी अफ्रीकी सैन्य अड्डा कैंप लेमोनियर ओबोक से कुछ किमी दूर है, जिसके लिए जिबूती को अमेरिका प्रतिवर्ष 6.30 करोड़ डॉलर देता है. चीन ने जिबूती के साथ इस अड्डे के लिए प्रतिवर्ष दो करोड़ डॉलर की रकम पर 10-वर्षीय पट्टे का करार किया है.

चीन तथा जिबूती के बीच राजनयिक संबंधों की स्थापना 1979 में हुई, पर 2002 के बाद इनमें सघनता आयी, जब उनका द्विपक्षीय व्यापार लगभग 5 करोड़ डॉलर को छू रहा था. पहले चीन जिबूती को खास अहमियत नहीं देता था, पर समुद्री डाकुओं से अपने व्यापारिक जहाजों की सुरक्षा की चिंता के बीच उसे जिबूती की सामरिक स्थिति का महत्व समझ में आया.

2014 में चीन तथा जिबूती ने एक रक्षा तथा सुरक्षा करार पर दस्तखत किये. अप्रैल 2015 में यमन से अपने नागरिकों को चीन जहाजों और विमानों द्वारा जिबूती होकर ही निकाल लाया. नवंबर 2015 में दो चीनी कंपनियों ने 756 किमी लंबे इथियोपिया-जिबूती रेलमार्ग का निर्माण संपन्न किया. इन सबके मद्देनजर उसने जिबूती में अपनी प्रथम समुद्रपारीय स्थायी सैन्य मौजूदगी का फैसला किया.

प्राकृतिक संसाधनों के अफ्रीकी भंडारों के अलावा उसके बाजारों से भी फायदे उठाने की नीयत से चीन ने पूरे अफ्रीका में व्यापक अवसंरचनात्मक निवेश किये हैं. इसी तरह उसने लातीनी अमेरिकी देशों में भी आर्थिक पैठ मजबूत कर ली है. इन सबके साथ अंतरराष्ट्रीय मामलों में अपनी अधिकाधिक अहम भूमिका के मद्देनजर अपने हितों की सुरक्षा हेतु चीन अपने सैन्य अड्डों के विस्तार की नीति पर चल रहा है.

वर्तमान विश्व व्यवस्था को चुनौती देते हुए प्रमुख वैश्विक शक्ति बनना उसकी महत्वाकांक्षा है. इन सबके मद्देनजर उसके जंगी जहाजों तथा लंबी उड़ान भरनेवाले सामरिक विमानों के स्थायी समुद्रपारीय अड्डों की स्थापना उसके राजनय को ठोस मजबूती प्रदान करेगी.

उसी की पहली कड़ी के रूप में यह अड्डा राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन की दबंग विदेश नीति का एक और प्रमाण है. यह वैश्विक रंगमंच पर एक ऐसी शक्ति के रूप में चीन के आगमन के संकेत करता है, जो पूरे विश्व में अपने हित साधन के सामर्थ्य से संपन्न होनेवाला है.(अनुवाद: विजय नंदन)

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