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संदीप बामजई आर्थिक मामलों के जानकार Sandeep.bamzai@gmail.com रिजर्व बैंक और सरकार के बीच हुई मीटिंग में बनी सहमति स्वागतयोग्य है, लेकिन मेरे हिसाब से बीते नौ नवंबर को हुई प्रधानमंत्री और आरबीआइ की बैठक ज्यादा अहम रही थी. प्रधानमंत्री ने अपने तरीके से आरबीआइ गवर्नर उर्जित पटेल के साथ पहले ही तमाम बातों पर चर्चा […]

संदीप बामजई
आर्थिक मामलों के जानकार
Sandeep.bamzai@gmail.com
रिजर्व बैंक और सरकार के बीच हुई मीटिंग में बनी सहमति स्वागतयोग्य है, लेकिन मेरे हिसाब से बीते नौ नवंबर को हुई प्रधानमंत्री और आरबीआइ की बैठक ज्यादा अहम रही थी.
प्रधानमंत्री ने अपने तरीके से आरबीआइ गवर्नर उर्जित पटेल के साथ पहले ही तमाम बातों पर चर्चा कर ली थी और सरकार की मांगों को समझने, उन पर ध्यान देने व उनके निबटारे की बात कही थी. यह बात जगजाहिर है कि चुनाव नजदीक हैं और सरकारी क्षेत्र की कंपनी आइएलएंडएफएस के संकट में आने के बाद भारत के बड़े बैंक भी मुश्किल में आ गये हैं. इसके अतिरिक्त, पैसों की कमी बनी हुई है और गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां लगभग निबट गयी हैं.
इन सबमें, सरकार के लिए लिक्विडिटी सबसे बड़ा मुद्दा है. माइक्रो, लघु और मध्यम उद्यम मंत्रालय और अन्य लघु और मध्यम आकार के उद्यमों को लोन नहीं मिल रहा है. क्रेडिट में बढ़ोतरी नहीं हो रही है. आरबीआइ और सरकार के बीच हालिया बैठक में सरप्लस रिजर्व के ट्रांसफर और दिवालिया होने के कगार पर खड़े बैंकों को छूट देने जैसे मुद्दों को सुलझाने के लिए अलग कमेटी के गठन की बात सामने आ रही है.
22 नवंबर को माइक्रो, लघु और मध्यम उद्यम मंत्रालय को 25 करोड़ का लोन मिल जायेगा. इसके अलावा, नुकसान में रहने वाले पीसीए (तात्कालिक सुधारात्मक कार्रवाइयों के अंतर्गत आने वाले) बैंकों को लेकर प्रधानमंत्री के निर्देशों के आधार पर जो फैसले लिये गये हैं, उनके आधार पर कहा जा सकता है कि फिलहाल आरबीआइ और सरकार के बीच का संकट टल गया है. जब नीतियों की समीक्षा की जायेगी और लिक्विडिटी के लिए कदम उठाने की बात होगी, तो वह इस सहमति का अगला पड़ाव होगा.
पूरे मामले को जिस तरीके से सरकार ने हैंडल किया था, वह निराशाजनक और खतरनाक बात रही है. सरकार संस्थाओं की स्वतंत्रता का सम्मान नहीं कर रही है. आरबीआइ का मामला हमने देखा ही, उसके पहले सीबीआइ का मामला हुआ, जिसमें निदेशकों को छुट्टी पर भेज दिया गया. हर रोज कोर्ट से टिप्पणियां आ रही हैं, जिनसे सरकार की बदनामी हो रही है.
अभी सीबीआइ के डीआइजी एमके सिन्हा ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा डालकर कहा है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल अस्थाना मामले की जांच में दबाव डाल रहे हैं. यह सारी बातें सार्वजनिक तौर पर बाहर नहीं आनी चाहिए. ऐसा होने पर यही प्रतीत होता है कि संस्थाओं की स्वतंत्रता को सरकार दबाने का प्रयास कर रही है. यह अच्छी बात नहीं है. पहले, हमारे इतिहास के सरदार पटेल, महात्मा गांधी, भीमराव आंबेडकर, मदन मोहन मालवीय जैसे स्वतंत्रता सेनानियों को सरकार कब्जे में लेने की कोशिश करती रही और अब तमाम संस्थाओं के पीछे पड़ गयी है.
आप सरकारी संस्थानों की स्वायत्तता-स्वतंत्रता भंग नहीं कर सकते हैं. रिजर्व बैंक बहुत महत्वपूर्ण संस्था है, जिसकी गरिमा बरकरार रहनी बहुत जरूरी है. स्वतंत्र आरबीआइ ने ही साल 1997 व 2008 में देश को वित्तीय संकट से बचाया था. वैश्विक अर्थव्यवस्था का जैसा हाल चल रहा है, आगे अभी और वित्तीय संकट आयेंगे और आरबीआइ उसमें भूमिका निभायेगी.
धुंआधार घमसान के बावजूद अच्छी बात यह हुई है कि प्रधानमंत्री ने अपने तरीके से मामले को समझा और बातचीत द्वारा नौ घंटे में निबटा दिया. इसका प्रभाव जल्द ही बाजार और अर्थव्यवस्था पर दिखने लगेगा.
छोटे उद्योगों को लोन मिलने लगेंगे और लिक्विडिटी की समस्या भी सुलझेगी. इसलिए, जरूरी होता है कि एक-दूसरे पर लांछन लगाये बिना काम किया जाये. सार्वजनिक होने पर जनता का भरोसा संस्थाओं पर से खत्म होने लगता है. संस्थाओं की स्वतंत्रता पर सवाल उठने लगते हैं, जो नहीं होना चाहिए. हां, कार्यकारी के पास यह क्षमता होती है कि वह अधिनियम सात का इस्तेमाल करके आरबीआइ गवर्नर को निर्देशित कर सकता है. हालांकि, अच्छा हुआ कि इसकी नौबत नहीं आयी.
यह तथ्य है कि चुनाव नजदीक हैं और सरकार चाहती है कि वह सार्वजनिक योजनाओं पर पैसे खर्च करे, बाजार में लिक्विडिटी बनी रहे. आइएलएंडएफएस के बाद जेट एयरवेज और भारतीय एयरटेल का बुरा हाल है.
अगर बड़ी कंपनियां एक-एक करके डूब जायेंगी, तो अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा, वह हमने आइएलएंडएफएस के मामले में देख लिया है. आइएलएंडएफएस संकट की वजह से अच्छा-खासा चलता हुआ गैर बैंकिंग वित्तीय सेक्टर बर्बाद हो गया है. इसलिए, हर चीज को करने एक तरीका होता है. बातचीत और निष्ठा द्वारा कोई भी समस्या सुलझायी जा सकती है. मामला यहां तक बढ़ने दिया गया कि गवर्नर और डिप्टी गवर्नर इस्तीफा देने को तैयार हो गये थे. गनीमत यह रही कि ऐसा नहीं हुआ और अंततः बातचीत द्वारा मामला सुलझा लिया गया व स्थिरता आ गयी.
अभी सरकार की प्रमुख रूप से विमानन और टेलीकॉम सेक्टर पर पैनी नजर बनी हुई है. हाल में सरकार ने टाटा को बोला कि वह संकट में घिरे जेट एयरवेज को खरीदकर बचा ले, लेकिन पिछले हफ्ते हुई टाटा सन्स की बोर्ड मीटिंग में निदेशक ने जेट एयरवेज को खरीदने से साफ तौर पर मना कर दिया और कहा कि स्थिति को बिना परखे और समझे कुछ भी थोपना ठीक नहीं है.
सरकार इससे बैकफुट पर आ गयी है. टेलीकॉम सेक्टर का भी बुरा हाल है. लोगों की नौकरियां जा रही हैं. विमानन क्षेत्र की तीन बड़ी लिमिटेड कंपनियों इंडिगो, स्पाइसजेट और जेट एयरवेज बड़े घाटे में चल रही हैं. इन सबकी वजह से सरकार दबाव में है, लेकिन वह एयर इंडिया को बचा सकती है, जेट एयरवेज को नहीं.
फिलहाल, राहत इसी बात से महसूस करनी चाहिए कि आरबीआइ का मसला सुलझ गया है. सरकार ने जो दबाव डाला था, उससे अपने हक में भी कुछ फैसले ले आयी है. हालांकि, दबाव डालने के तरीके की आलोचना होगी ही.
देश की अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिए जरूरी है कि सरकार संस्थाओं की स्वायत्तता और स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए उनके साथ तालमेल कायम करे तथा अर्थव्यवस्था को ठीक करने की दिशा में आगे बढ़े. अतिरिक्त दबाव की रणनीति केवल सार्वजनिक तौर पर बदनामी लायेगी, विकास नहीं.
(देवेश से बातचीत पर आधारित)

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