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अविश्वास प्रस्ताव का हश्र

आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया aakar.patel@gmail.com लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान का आंकड़ा 325 के मुकाबले 126 रहा, जो निःसंदेह विपक्ष के विरुद्ध है. इसे देखते हुए यह स्पष्ट नहीं हो सका कि इस प्रस्ताव के मुद्दे का क्या हुआ. इस मतदान से किसी को भी आश्चर्य नहीं हुआ होगा. शिवसेना को […]

आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक,
एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
aakar.patel@gmail.com
लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान का आंकड़ा 325 के मुकाबले 126 रहा, जो निःसंदेह विपक्ष के विरुद्ध है. इसे देखते हुए यह स्पष्ट नहीं हो सका कि इस प्रस्ताव के मुद्दे का क्या हुआ. इस मतदान से किसी को भी आश्चर्य नहीं हुआ होगा. शिवसेना को छोड़कर (उसके अभिप्राय पर हम बाद में चर्चा करेंगे) सदन में लगभग सब कुछ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पक्ष में था. विपक्ष द्वारा इस कदम को उठाने का वास्तविक कारण संभवत: इसके माध्यम से साल 2019 चुनाव अभियान की शुरुआत करना था. यहां सवाल यह उठता है कि क्या यह प्रयास सफल रहा? आइए, इसकी पड़ताल करते हैं.
अगर अविश्वास प्रस्ताव का उद्देश्य इस मौके का इस्तेमाल करना और एक यादगार व जोरदार हमले की शुरुआत करना तथा बड़ी संख्या में लोगों को प्रभावित करना था, तो मेरा मानना है कि इस अवसर का सही तरीके से उपयोग नहीं हुआ.
दोनों तरफ से समान मुद्दे थे और उसे प्रस्तुत करने का तरीका भी समान था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए यह कोई समस्या नहीं थी, क्योंकि वे पिछले छह सालों से उसी सफल ढांचे पर काम कर रहे हैं. विपक्ष के लिए यह बड़ी समस्या थी और यदि इस कथानक में बदलाव लाना है, तो उसे रचनात्मक होना ही हाेगा, क्योंकि उसके पास ज्यादा समय नहीं है. तो आखिर इसका मतलब मैं क्या समझूं?
छह वर्ष या उससे भी पहले की बात है, जब इंडिया अगेंस्ट करप्शन आंदोलन और उसके बाद निर्भया मामले ने तत्कालीन भारतीय राजनीति के खिलाफ जन आंदोलन खड़ा किया था. उस आंदोलन का आशय था कि तत्कालीन सरकार भ्रष्ट और अक्षम है, वह अपने नागरिकों को सुरक्षा देने में असमर्थ है और केवल कुछ ही लोगों के लिए काम कर रही है.
नरेंद्र मोदी ने इस माहौल में खुद को उतारा और उस पर पकड़ बना ली. उन्होंने तब भी और अब भी कुछ हद तक खुद को उस आरोप से बचाये रखा है. अगर राजनीति भ्रष्ट है, तो वे भ्रष्टाचार मिटाने कोशिश कर रहे हैं. अगर राजनीति वंशवादी है, तो वे उसे तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं. आतंकवाद या पाकिस्तान के खिलाफ अगर तंत्र कमजोर या नरम है, तो अपने व्यक्तित्व की ताकत के जरिये वे उसे बदलेंगे. ऐसी अनगिनत चीजों का दिखावा किया जा रहा है.
एक व्यक्ति देश नहीं बदलता है और न ही बदल सकता है, खासकर भारत जैसे जटिल व बड़े आकारवाले देश को. लेकिन, अगर इस पटकथा पर विराम लगा है, तो इसका कारण सम्राट के कपड़ों का सामने आ जाना नहीं है, बल्कि धीरे-धीरे इससे हाथ खींच लेना है. यही वे बातें हैं, जिनके लिए संसद का उपयोग करना चाहिए था और मेरी समझ से ऐसा नहीं किया गया.
आमतौर पर हमारे देश में प्रेस संसदीय कार्यवाही को पूरी परिपक्वता से नहीं दिखाता है. ब्रिटेन में संसद की रिपोर्टिंग की एक खास परंपरा है. इसके लिए वहां के तमाम अखबारों के रिपोर्टर नेताओं के व्यक्तित्व के जरिये संसद की कार्यवाही का विश्लेषण करते हैं. एक तरह से देखें, तो यह एक दिलचस्प रिपोर्टिंग होती है, जो पढ़ने में बेहद मजेदार लगती है. भारतीय पाठकों को ऐसी रिपोर्टिंग नियमित तौर पर उपलब्ध नहीं है, क्योंकि संसदीय सत्र के दौरान यहां बहुत शोरगुल होता है. उन दिनों जब संसद में वास्तव में काम हो रहा था, (मान लीजिए, अविश्वास प्रस्ताव वाले दिन) तो उस क्षण का पूरा फायदा उठाया जाना चाहिए था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
संसद में अपने भाषण के तुरंत बाद राहुल गांधी का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गले लगने के मौके के अलावा मीडिया को वहां ऐसा कुछ भी खास नहीं लगा, जिसे वह चर्चा से बाहर निकाल पाता.
गले लगने की घटना ने मोदी को अचंभे में डाल दिया, क्योंकि उन्होंने इसकी अपेक्षा नहीं की थी और वे वैसी शारीरिक अंतरंगता के अभ्यस्त नहीं है, जिसकी पहल वे खुद नहीं करते. इससे नरेंद्र मोदी कुछ असहज दिखे और यह सच है कि बिना पूर्व तैयारी के अगर कोई काम होता है, तो उसमें वे अच्छा प्रदर्शन नहीं करते हैं.
नयी पटकथा लिखने की बजाय विपक्ष जो दूसरा काम कर सकता था, वह था- भाजपा के खिलाफ अधीर विपक्ष को एक सूत्र में पिरोने का कार्यक्रम तैयार करना. इस मौके पर जब विचारधारा या महत्वाकांक्षा के आधार पर विपक्ष को एकजुट किया जा सकता था, वह बहुत कमजोर दिखा. यहां स्पष्ट दृष्टिकोण की जरूरत थी.
एक ऐसा दृष्टिकोण, जो भले ही अस्पष्ट और खुला हो, पर लुभावने तरीके से पेश किया गया हो. श्रेष्ठ राजनेता यही काम करते हैं. और, निश्चित तौर पर साल 2014 में मोदी ऐसा करने में सफल रहे थे. यदि साल 2019 चुनाव का प्रमुख विषय देशभर में हुए गठबंधन बनाम भाजपा होना है, तो इसके लिए तर्क या इसकी आवश्यकता के बारे में भाषणों में बातें नहीं आ सकीं.
वहीं दूसरी ओर, गठबंधन बनाने में भाजपा खासतौर से अच्छी नहीं रही है और वह इस तथ्य को स्वीकार करती है. जिद्दी सहयोगी से सामना होने पर वह उसके आगे झुकती नहीं है. मैंने 1995 से शिवसेना और भाजपा के बीच लगातार होते रहे गठबंधन से लेकर, जब वे महाराष्ट्र चुनाव जीत गये, तब तक के तरीकों को देखा है. तब से अब तक जब भी चुनाव का एलान हुआ है, शिवसेना ने इसी तरह का व्यवहार किया है, जैसा उसने अभी किया है.
वह स्वतंत्र चुनाव लड़ने की बात करती है और भाजपा की निंदा करती है, जबकि भाजपा और इसके नेता चुप्पी साधे रहते हैं. भाजपा पर सभी तरह के हमले करने के बाद अंतत: शिवसेना अपने रुख से पलट जाती है और अपने हित साधने के लिए भाजपा के साथ गठबंधन कर लेती है और इस बार भी वह यही संकेत दे रही है. इसमें कोई संदेह नहीं कि 2019 में भी यही होगा.
यह स्पष्ट नहीं है कि साल 2019 के आम चुनाव से पहले हमारी राजनीति में एक बार फिर से टकराव का क्षण देखने को मिलेगा. भारत में उम्मीदवारों के बीच टेलीविजन बहस की परंपरा नहीं है और इसलिए देश के प्रधानमंत्री और उनसे प्रश्न करने की चाह रखनेवाले दूसरे नेताओं के बीच एक-एक करके बहस करने का कोई दूसरा अवसर उपलब्ध नहीं होगा. हमारे पास सबसे अच्छी चीज अविश्वास प्रस्ताव है और दुर्भाग्यवश, यह प्रस्ताव भी साल 2019 के आम चुनाव का मुख्य विषय क्या होगा, इसे अधिक स्पष्ट करने में सहायक नहीं हो पाया.

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