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उपभोक्ताओं को समर्थ बनाया जाए

प्रभु चावला एडिटोरियल डायरेक्टर, द न्यू इंडियन एक्सप्रेस prabhuchawla @newindianexpress.com सत्ता हमेशा बंदूक की नली से ही प्रवाहित नहीं होती. न ही यह संपदा सृजन की शक्ति से संचालित होती है. विश्व के उच्च मंच पर भारत की स्थिति आज इसलिए परवान नहीं चढ़ी है कि वह विश्व की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है. […]

प्रभु चावला
एडिटोरियल डायरेक्टर, द न्यू इंडियन एक्सप्रेस
prabhuchawla
@newindianexpress.com
सत्ता हमेशा बंदूक की नली से ही प्रवाहित नहीं होती. न ही यह संपदा सृजन की शक्ति से संचालित होती है. विश्व के उच्च मंच पर भारत की स्थिति आज इसलिए परवान नहीं चढ़ी है कि वह विश्व की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है. ट्रंप तथा शी जिनपिंग ने फोटो सेशन के लिए नरेंद्र मोदी का हाथ इसलिए नहीं थामा कि मोदी उन्हें आर्थिक वृद्धि में पीछे छोड़ रहे हैं, बल्कि इसलिए कि वे उनके निर्णायक नेतृत्व में यकीन करते हैं.
अभी भारत के पड़ोसी देश आर्थिक वृद्धि में अस्थायी रूप से उससे आगे निकल गये हैं. फिर भी, प्रेस, सोशल मीडिया एवं अन्य मंचों पर आज विश्व में मोदी ही सर्वाधिक आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं. वे पहले भारतीय राजनेता हैं, जिनके इंस्टाग्राम पर तीन करोड़, तो ट्विटर पर पांच करोड़ फॉलोवर हैं. उनके अपने डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भी उन्हें जबरदस्त प्रत्युत्तर मिलता है.
इधर, मोदी और मोदी सरकार को आर्थिक मोर्चे पर भारत के अपेक्षतया बुरे प्रदर्शन के लिए काफी कुछ सुनना पड़ रहा है. प्रमुख अंतरराष्ट्रीय समाचार पत्र, थिंक टैंक और अन्य निकाय भारत की दबावग्रस्त अर्थव्यवस्था की आलोचना कर रहे हैं.
विश्वसनीय अर्थशास्त्रियों की एक बड़ी तादाद ने भारत की उन आर्थिक नीतियों की गुणवत्ता पर सवाल खड़े किये हैं, जिनसे सरकार द्वारा कॉरपोरेट कर रियायत तथा कारोबारी कर्ज की विशाल मात्रा को बट्टे खाते में डाल कर आपूर्ति पक्ष को मजबूत किये जाने के बावजूद उपभोक्ता मांग में भारी गिरावट आयी है.
विकास एक ऐसा विवादास्पद मुद्दा है, जो जबरदस्त जन तवज्जो का केंद्र बना रहता है. नकारात्मक खबरों तथा संकेतों का सामना करने में असमर्थ सत्तारूढ़ पार्टी और उसके अर्थशास्त्री इस जाहिर-सी मंदी का निदान बताने में स्वयं को असमर्थ पा रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां भी भारत को इसकी बिगड़ती आर्थिक सेहत का भान करा रही हैं.
पूर्व में, विश्वबैंक एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने सुधारात्मक आर्थिक माहौल के लिए मोदी की तारीफ की थी. मूडीज जैसी रेटिंग एजेंसियों के भी ऐसे ही ख्याल थे. अब इन सबने भी अपनी नकारात्मक प्रतिक्रियाएं दे डाली हैं. वर्तमान में, ये एजेंसियां यह महसूस कर रही हैं कि सरकारी नीतियां सतत विकास सुनिश्चित करने में विफल रही हैं. विश्वबैंक ने हाल में यह उद्घोषित किया कि भारत ने विश्व की सर्वाधिक तीव्र गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था की विशिष्टता अब खो दी है.
वर्ष 2019 के अनुमानों के अनुसार, बांग्लादेश और नेपाल क्रमशः 8.1 प्रतिशत तथा 6.5 प्रतिशत की वृद्धि दर के साथ इस दौड़ में भारत से आगे निकल चुके हैं. वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर वर्ष 2016-17 में 8.2 प्रतिशत की चोटी से फिसल कर 6 से 5.8 प्रतिशत के स्तर पर आ चुकी है, जिसके इस वर्ष के अंदर और भी नीचे आ जाने की आशंका है. यहां तक कि अमेजॉन और फ्लिपकार्ट जैसी बड़ी कंपनियों द्वारा किये गये बहुप्रचारित उत्सवी विक्रय के आंकड़े भी बिक्री स्तर को ऊपर उठाने में कोई खास मदद नहीं कर सके. सरकार ने ‘व्यय भाव’ को मजबूती देने में अपने तरकश के सभी तीर छोड़ डाले हैं.
मगर हैरत की बात यह है कि ‘एनडीए-तीन’ आपूर्ति सृजन को प्रोत्साहित करने के पूंजीवादी मॉडल से चिपकी पड़ी है. मोदी के रूप में भारत ने एक वैकल्पिक नेतृत्व हासिल किया है, जो एक ही साथ शक्तिशाली एवं नवोन्मेषी दोनों है. पर उनके द्वारा ऐसे अर्थशास्त्रियों की एक टीम की तलाश अब भी शेष है, जो इस देश के लिए वैकल्पिक आर्थिक मॉडल गढ़ सकें. अभी तो बाजार और अर्थशास्त्र दोनों के दोहरे स्वामित्व की भूमिका नौकरशाह ही निभा रहे हैं.
पिछले 25 वर्षों में बिजली से लेकर टेलीकॉम, ऑटोमोबाइल एवं आतिथ्य जैसे सभी क्षेत्रों को सरकारी सहायता मिलती रही, ताकि वे वास्तविक वृद्धि की तुलना में अपनी क्षमता दोगुनी कर सकें.
सार्वजनिक पैसे तक आसान पहुंच के बल पर निजी क्षेत्र तथा मध्य एवं उच्च स्तरीय उपभोक्ताओं ने एक कृत्रिम मांग सृजित कर डाली. पर अब यह ढलान पर है. जो लोग एक कार के रहते दूसरी कार या दूसरा घर खरीदने की सोचने लगे थे, वे अब समान मासिक किस्तों (इएमआइ) के जुए तले नहीं आना चाहते. कार विक्रेताओं की आय धराशायी हो चुकी है. पहली बार, दोपहियों व वाणिज्यिक वाहनों की बिक्री भी गर्त में गिरी है.
सभी प्रमुख ऑटोमोबाइल कंपनियों ने अपने संयंत्रों में आंशिक बंदी का सहारा लिया. पूरे देश में लगभग तीन लाख जॉब खत्म हो गये, जबकि तीन सौ शो रूम बंद हो चुके हैं.
पर सरकार द्वारा अब भी ‘संपदा सृजनकर्ताओं’ की मदद के फलसफे से खिसक उपभोक्ताओं के सशक्तीकरण तक आने की अनिच्छा ही प्रदर्शित की जा रही है. वित्त मंत्री सीतारमण तथा उनके सलाहकार उद्योगपतियों के लिए आयकर रियायत के रूप में 1.25 लाख करोड़ रुपये जारी करने के अलावा, बैंकों को यह सलाह देकर कि वे स्पर्धात्मकता को बढ़ावा देने के लिए ब्याज दरों में कमी लायें, खरीदारों का जुनून जगाने की जी तोड़ कोशिशों में लगे हैं. पर अब तक किसी भी कॉरपोरेट ने यह रियायत ग्राहकों तक नहीं पहुंचायी है.
सरकार द्वारा अब भी यह महसूस करना शेष है कि जब तक उपभोक्ताओं के हाथ में और अधिक पैसे नहीं बचेंगे, कारखानों के उत्पाद अपने गोदामों में ही पड़े रहेंगे. बुनियादी ढांचा एवं आवासन क्षेत्र कई वस्तुओं तथा सेवाओं के लिए अतिरिक्त मांग का सृजन कर रोजगार पैदा कर सकते हैं.
वर्तमान में, लगभग 10 लाख करोड़ रुपये के 13 लाख घर अनबिके पड़े हैं, क्योंकि ग्राहक बकाया भुगतान की स्थिति में नहीं हैं. इसी वजह से नये घर नहीं बन रहे. यहां तक कि चमचमाते मॉलों में भी ग्राहकों से ज्यादा बड़ी तादाद उनके कर्मियों की ही है.
एक सच्चा सशक्त समाज बनने के लिए भारत को आर्थिक रूप में नीचे से ऊपर उठना ही होगा. इसके लिए सरकार को एक ऐसा रोडमैप विकसित करना ही चाहिए, जिससे निम्न वर्ग मध्य वर्ग में और मध्य वर्ग उच्च वर्ग में तब्दील होता रहे. प्रौद्योगिकी को जॉब का संहारक होने की बजाय उसका सृजनकर्ता होना चाहिए.
साइकिलें, दोपहिये, किफायती आवास, मोटर गाड़ियों के दौड़ने योग्य सड़कें तथा सुरक्षित सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था वृद्धि के इंजन बन जाने चाहिए. केवल आय और संपदा का समानतामूलक वितरण ही, जो धनिकों की अत्यधिक आय के अधोमुखी स्थानांतरण हेतु बाध्य कर दे, दीर्घावधि समृद्धि और समर्थ भारत का निर्माण सुनिश्चित कर सकता है.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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