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व्यवस्था में समयबद्ध सुधार जरूरी

यामिनी अय्यर प्रेसिडेंट, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च delhi@prabhatkhabar.in अगर एक महीने के भीतर माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीसरी बार देश के वरिष्ठ अधिकारियों से निर्णय लेने में उनके धीमे रवैये को लेकर चेताया है, तो यह एक तरह से ब्यूरोक्रेसी की असफलता को सिद्ध करता है. जाहिर है, कोई अधिकारी अगर सही समय पर […]

यामिनी अय्यर
प्रेसिडेंट, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च
delhi@prabhatkhabar.in
अगर एक महीने के भीतर माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीसरी बार देश के वरिष्ठ अधिकारियों से निर्णय लेने में उनके धीमे रवैये को लेकर चेताया है, तो यह एक तरह से ब्यूरोक्रेसी की असफलता को सिद्ध करता है. जाहिर है, कोई अधिकारी अगर सही समय पर अपना काम नहीं करेगा, तो ऐसी स्थिति उत्पन्न होगी ही. लेकिन, यह एक तरह से गवर्नेंस की भी असफलता कही जा सकती है. क्योंकि अधिकारियों की मॉनिटरिंग का जिम्मा सरकार का है.
प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पहले कार्यकाल में अधिकारियों के कामकाज में मुस्तैदी लाने के लिए वक्त से पहले आने को लेकर अच्छी पहल की थी और बायोमेट्रिक अटेंडेंस की व्यवस्था पर बल दिया था, ताकि यह पता चल सके कि कार्यालय में अधिकारी कितने समय तक रहते हैं. आगे चलकर उसका क्या हश्र हुआ, सबको पता है.
कोई भी अधिकारी हो, कामकाज सुचारू रूप से हो रहा है कि नहीं, इसके लिए उसकी मॉनिटरिंग जरूरी है. लेकिन, इस मॉनीटरिंग के लिए भी कुछ बातों को समझना जरूरी है. अक्सर ही इस बात की चर्चा होती है कि अधिकारी लापरवाह हैं, समय पर सही काम नहीं करते, या फिर फाइलों को लटकाये रहते हैं. इस तरह की शिकायतों पर देशभर में कभी-कभा चर्चाएं भी हुई हैं. लेकिन, इन चर्चाओं में यह सवाल नहीं पूछा गया कि किस तरह की कार्य-संस्कृति और नियमावलियां आदि सरकारी कार्यालयों में बनायी गयी हैं, जिसके अंतर्गत अधिकारी काम करते हैं. आखिर ऐसा क्यों है कि बार-बार प्रधानमंत्री को यह बात कहनी पड़ रही है. यह समस्या का हल नहीं है, बल्कि एक सिम्पटम है.
हम अक्सर जमीन पर काम करते हैं और विभिन्न विभागों के अधिकारियों से मिलते हैं. उनकी अपनी भी कई समस्याएं हैं, जो उस वक्त सामने आती हैं. वे खुद बताते हैं कि उनके अधिकारों का बहुत महत्व नहीं होता ओर वे फाइलों को दूसरे विभाग तक भेजने के लिए मजबूर होते हैं. दरअसल, व्यवस्था में एक प्रकार की हायरार्की काम करती है, जिसकी वजह से अधिकारियों का भी कभी कभी काम करना मुश्किल हो जाता है. क्योंकि उस हायरार्की व्यवस्था में आदेश के माध्यम से काम किया जाता है, न कि जॉब प्रोफाइल से. अधिकारी तब तक किसी फाइल पर काम आगे नहीं बढ़ाते, जब तक कि उन्हें कोई आदेश नहीं मिलता. हालांकि, किसी भी फाइल पर कोई निर्णय लेने और अपनी आधिकारिक शक्ति का इस्तेमाल करने के लिए वे स्वतंत्र हैं, लेकिन फिर भी उन पर आदेश का दबाव होता है, जिसकी वजह से वे काम नहीं कर पाते. हालांकि, सभी अधिकारियों के संदर्भ में यह बात नहीं है, लेकिन ज्यादातर के लिए यह बात सच है.
मैं अपने काम के अनुभव से यह बात बता सकती हूं कि आदेशों पर किस तरह से उनकी कार्य-योजना निर्भर रहती है. एक दफा मैं एक ब्लॉक में किसी काम से गयी, जहां मैं ब्लॉक के एक अधिकारी से मिली. सुबह कार्यालय आते ही वह अधिकारी इस बात को सबसे पहले देखा कि उसे उस दिन क्या आदेश मिला था. जनता से संबंधित भले कोई बड़ी समस्या हो, जिसका निपटारा वह कर सकता था, लेकिन वह उस वक्त मजबूर था और फाइल आगे नहीं बढ़ा सकता था, क्योंकि उसके पास अभी कोई आदेश नहीं आया था. जिसने उस अधिकारी को आदेश दिया, वह कभी यह नहीं बतायेगा कि उसने आदेश क्यों दिया. और यह भी कभी नहीं बतायेगा कि जो उसने आदेश दिया, उस पर फिर किस तरह का निर्णय लिया गया. कोई भी सरकारी अधिकारी यह नहीं कहता कि उसके निर्णय लेने में उसका अधिकार क्या है, बल्कि यह इंतजार करता है कि आदेश मिला या नहीं.
अधिकारी को इस बात का एहसास क्यों नहीं होता कि वह जनता के लिए काम करने के लिए नियुक्त हुआ है, न कि किसी ऐसे आदेश को मानने के लिए, जो कहीं ऊपर से दबाव के रूप में आया है. एक अरसे से यह व्यवस्था बनी हुई है, इसलिए यह माना जाने लगा था कि सरकारी अधिकारी भ्रष्ट होते हैं. मोदी सरकार के बनने के बाद अधिकारियों के इस रवैये में कुछ कमी तो आयी, लेकिन अब भी बहुत कुछ सुधार करना बाकी है. यही सुधार हो जाये कि अधिकारी जन-कल्याणकारी नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए काम करने के लिए है, तो व्यवस्था सही हो जायेगी.
अब सवाल उठता है कि जो निर्णय ले सकनेवाले वरिष्ठ अधिकारी हैं, वे किस चीज की वजह से समय पर अपना काम नहीं कर पाते? शायद इस बात के लिए ही प्रधानमंत्री ने यह कहा है कि फाइल लटकाने की आदतें बरदाश्त नहीं की जायेंगी और सेवानिवृत्ति से पहले वरिष्ठ अधिकारी अपनी जिम्मेदारी को सही समय पर निभाकर विदा लें. यहां यह बात समझना बहुत जरूरी है कि जितने भी सरकारी विभाग हैं, उनमें आपस में सामंजस्य देखने को नहीं मिलता है. मसलन, अगर आप शहरीकरण का मुद्दा लेते हैं, तो एक शहर को विकसित करने के लिए तमाम सरकारी विभागों का सहयोग चाहिए होता है.
ऐसे में जरूरी यह है कि एक विभाग की फाइल को क्लियर करने में दूसरा विभाग कोई रोड़ा न अटकाये. लेकिन ऐसा होता नहीं है. अक्सर देखने में आता है कि एक विभाग का अधिकारी दूसरे विभाग के अधिकारी को यह कहकर लौटा देता है कि उसे फलां फाइल को आगे बढ़ाने के लिए अभी आदेश नहीं मिला है. इसका मतलब साफ है कि विभागों में सामंजस्य और तालमेल की कमी है. यह सब व्यवस्था की हायरार्की का मसला है. मेरा मानना कि नीतियों के ऊपर निर्णय लेने के लिए चार-पांच विभागों को आपस में बातचीत करना और सामंजस्य बनाकर रखना बहुत जरूरी है, ताकि देरी से निर्णय की वजह से जनता का या फिर विकास कार्यों का नुकसान न होने पाये.
वरिष्ठ अधिकारियों को लेकर हमने अपने अध्ययनों में पाया है कि अधिकारों के हाेते हुए भी अधिकारी रिस्क लेना नहीं चाहते हैं. यह बहुत बड़ा नकारात्मक बिंदु है, जो व्यवस्था में भय बनाये रखता है. यही वजह है कि पिछले डेढ़-दो दशक से हम देख रहे हैं कि भारत सरकार में सारे सीनियर अधिकारी यही निश्चित कर लेना चाहते हैं कि रिटायरमेंट के बाद उन्हें कौन सा पद हासिल होगा. यह वह समय होता है, जहां निर्णय रूपी जोखिम लेने की कोई जहमत ही नहीं उठाता कि उसके निर्णय से कहीं व्यवस्था नाराज हो गयी, तो रिटायरमेंट के बाद उसे घर बैठना पड़ेगा. यह बहुत बड़ा फैक्टर है कि हमारे व्यवस्था में सारे कार्यों में देरी होती चली जाती है. व्यवस्था में सुधार के लिए मोदी जी ने जो फटकार लगायी है, वह सही है.

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