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खास बातचीत: बोले जॉन अब्राहम- देश के लिए मेरा प्यार स्पष्ट है

उर्मिला कोरीअभिनेता के साथ निर्माता की भूमिका को जॉन अब्राहम एंजॉय कर रहे हैं. वह कहते हैं कि अब उन्हें लग रहा, जैसे अभिनय में उनका ग्रेजुएशन हो गया है. बतौर निर्माता रिलीज हुई उनकी फिल्म ‘बाटला हाउस’ देश के सबसे विवादित एनकाउंटर की कहानी पर आधारित है. पेश है जॉन से हुई बातचीत के […]

उर्मिला कोरी
अभिनेता के साथ निर्माता की भूमिका को जॉन अब्राहम एंजॉय कर रहे हैं. वह कहते हैं कि अब उन्हें लग रहा, जैसे अभिनय में उनका ग्रेजुएशन हो गया है. बतौर निर्माता रिलीज हुई उनकी फिल्म ‘बाटला हाउस’ देश के सबसे विवादित एनकाउंटर की कहानी पर आधारित है. पेश है जॉन से हुई बातचीत के प्रमुख अंश…

-निर्देशक निखिल का कहना है कि ‘बाटला हाउस’ के किरदार के लिए आप सबसे परफेक्ट थे?

बहुत अच्छा लगता है. कुछ एक्टर्स हैं, जिनका देश के लिए जो प्यार है, सम्मान है, वह उनके चेहरे के एक्सप्रेशन और उनकी बॉडी लैग्वेंज में भी दिखता है. मेरा अपने देश के लिए जो प्यार है, वह बेहद स्पष्ट है. मेरा फिजिक ‘बाटला हाउस’ के मुख्य किरदार संजीव कुमार यादव के लिए परफेक्ट था. जब निखिल ने मुझे स्क्रिप्ट भेजी, तो कहा कि ‘पढ कर बताना तुम्हें रोचक लग रही है या नहीं. मैंने पढ़ा और मुझे वह कमाल की लगी. भले यह हकीकत है, लेकिन बहुत ही एंगेजिंग. संजीव कुमार यादव की पत्नी के किरदार को हमने न्यूज रीडर बनाने का निर्णय लिया. बाद में मालूम पड़ा कि सच में उनकी पत्नी न्यूज रीड़र थीं. आज की तारीख में यह विषय सामयिक भी है. मैंने और निखिल ने यह तय किया कि हम यह फिल्म साथ में ही करेंगे. मैं निर्माता के तौर पर भी इस फिल्म से जुड़ना चाहता था, क्योंकि ऐसे विषय मुझे ज्यादा अट्रैक्ट करते हैं.

-ऐसे किरदार करते वक्त किसी की भावनाएं आहत न हों, इसका ख्याल कैसे रखते हैं?

मैं खुद माइन्योरिटी से आता हूं. मम्मी और पापा दोनों के साइड़ से, इसलिए मेरी हमेशा यह कोशिश रहती है कि मेरी वजह से किसी की भी धार्मिक भावनाएं आहत न हों. जब फिल्म बनती है, तो थोड़ी-बहूत क्रिएटिव लिबर्टी भी ली जाती है. मैं जॉन अब्राहम हूं तो कभी भी शर्ट उतार सकता हूं. गोली मार सकता है, लेकिन यह आपको तय करना होता है कि आपको लाइन कहां ड्रॉ करनी है. इस फिल्म से जुड़ने पर मैंने यह तय किया कि मैं किरदार के साथ ही जाऊंगा. क्रिएटिव लिबर्टी नहीं लूंगा. मैं संजीव कुमार यादव से कई बार मिला हूं. पहली दफा छह घंटे के लिए मिला था. उनके माइंड में उस वक्त जो कुछ भी चल रहा था, वह जानने की कोशिश की. बंदूक चलाना तो एक बात है, लेकिन उसको चलाते वक्त उनके जेहन में क्या था. यह भी जानना जरूरी था.

-फिल्म के बैकग्राउंड के बारे में कुछ बताएं.

बाटला हाउस उत्तर भारत की एक ऐसी घटना है, जो बाबरी मस्जिद के बाद सबसे ज्यादा संवेदनशील मुद्दा बन गया था. बाटला हाउस के बाद संजीव कुमार यादव पर क्या बीती, यह जानना भी हमारे लिए बहुत जरूरी था. वह सुसाइड़ करना चाहते थे. उसकी निजी जिंदगी पूरी तरह से बिखर गयी थी. उसकी पत्नी उन्हें छोड़ना चाहती थी. वह भारत सरकार के सवालों के घेरे में थे. आज की तारीख में उस इंसान ने नौ गैलेंटरी अवार्ड जीते हैं. उस वक्त तक उन्होंने छह जीते थे. वह हमारे देश के प्रतिष्ठित और सम्मानित ऑफिसर रहे हैं. ऐसे ऑफिसर को लोग जब मर्डरर बुलाते होंगे, तो उन पर क्या बीती होगी, उस ट्रॉमा को समझने के लिए मैंने उनके साथ काफी वक्त बिताया. चूंकि हमें किरदार को क्रिएटिव लिबर्टी नहीं देनी थी. ऐसे में उसे एंटरटेनिंग बनाना भी चुनौती थी और इसमें हमने पूरी ईमानदारी बरती है. मुझे लगता है कि हमने अच्छा काम किया है.

-निखिल कैसे निर्देशक हैं?

मुझे निखिल की फिल्म ‘डी डे’ बहुत पसंद है. उन्होंने बड़े ही ब्रॉड पर्सपेक्टिव में वह फिल्म बनायी थी. मैंने निखिल को फिल्म ‘बाटला हाउस’ को लेकर ये बात कही भी थी कि इस फिल्म का सिर्फ एक नजरिया नहीं होना चाहिए. एक दिल्ली पुलिस का नजरिया, दूसरा आतंकवादी या फिर पीड़ित (जो भी हम उन्हें कहें), तीसरा नजरिया गवाहों का और चौथा कोर्ट का. ये सब दिखाना जरूरी था. जब हम बाटला हाउस जैसी फिल्में लेकर आते हैं, तो उस पर डिबेट हो, यह बहुत ही जरूरी है. चार लोग आपस में बात करें कि पुलिस सही थी या वह आतंकवादी नहीं था. तीसरा आदमी कुछ और कहें. इसके साथ ही आदमी इंटरटेन भी हो कि अच्छी फिल्में देखी.

-फिल्म की रिलीज पर दोनों आरोपियों अरिज खान शहजाद अहमद खान को ऐतराज है. उनका कहना है कि इससे उनका केस प्रभावित होगा. आपकी क्या राय है?

यह मामला अभी भी कोर्ट में है, इसलिए मैं इस पर कुछ नहीं कर सकता हूं. यह कहानी सत्य घटनाओं से प्रेरित है. सेंसर बोर्ड़ ने भी फिल्म को लेकर कोई भी आपत्ति नहीं जतायी थी. फिर भी हमने डिस्कलेमर डाले.

-‘बाटला हाउस’ मामले में उस वक्त कई राजनीतिज्ञों ने भी अभियुक्तों को सपोर्ट किया था. क्या आपकी फिल्म में उसको भी दिखाया जायेगा?

हां, प्रमुख पार्टी के लोग थे. कुछ नेता कड़ा विरोध कर रहे थे. यह भी सुनने को मिला था. हमने वो सब भी दिखाया है. अगर हम फिल्म के जरिये पब्लिक में यह सब नहीं डिस्कस करेंगे, तो आपको उस पर फिल्म बनाने की फिर जरूरत ही क्या है. उस वक्त जो कुछ भी हुआ था, उन सारे महत्वपूर्ण नेताओं के नजरिये व बयान तथा रियल लाइफ फुटेज आदि को दूसरे तरीके से फिल्म में डाला है. बावजूद इसके यह डॉक्यूमेंट्री फिल्म नहीं है.

-आपने फिल्म में किसे दोषी बताया है?

हमने दर्शकों पर जज करने के लिए छोड़ दिया है कि क्या सही है, क्या गलत. हां, एक फिल्मकार के तौर पर हमने अपने नजरिया भी दिया है, लेकिन यह पक्षपाती नजरिया नहीं है. जो सही है. हमने वही सामने लाया है. इस फिल्म के लेखक रितेश शाह को फिल्म के रिसर्च वर्क में चार साल का वक्त लगा. संजीव कुमार यादव फिलहाल डीसीपी है दिल्ली के . आमतौर पर लोग वो पोस्ट नहीं चाहते हैं क्योंकि बहुत दिक्कतों वाला वो पोस्ट है. उन्हें जेड प्लस सिक्युरिटी मिली है. उन पर हाल ही में हमला भी हुआ है लेकिन वो अपना काम ईमानदारी और जान जोखिम में डाल कर कर रहे हैं. हम सर्जिकल स्ट्राइक की बात हमेशा करते हैं, लेकिन जो घर के भीतर रह रहे दुश्मनों से हमें बचा रहा है, हमें उसको भी सम्मान देना चाहिए.

-निर्माता के तौर पर जर्नी को कैसे देखते हैं?

मुझे बेहद खुशी है कि मैं निर्माता के तौर पर ट्रेंड सेटर बन गया हूं. ‘विक्की डोनर’ की वजह से ‘शुभ मंगल सावधान’, ‘बधाई हो’ और ‘खानदानी शफाखाना’ जैसी फिल्में बनीं. फिल्म ‘मद्रास कैफे’ ने ‘आर्टिकल 15’ जैसी फिल्मों के लिए मार्ग प्रशस्त किये. मैं अपनी फिल्मों को कम बजट में ही बनाता हूं. डिजिटल, म्यूजिक और सैटेलाइट के जरिये फिल्म ‘बाटला हाउस’ पीएनए और प्रोडक्शन से ज्यादा का पैसा बना चुकी है. जब हम टिकट बेचते हैं, तो सौ में से पचास रुपये एग्जिबिटर को जाते हैं. पचास रुपये जो आते हैं, वह निर्माता का फायदा होता है. डिस्ट्रिब्यूशन में सभी सुरक्षित है. मैं बड़े सेट, बडे कैंडल और स्टाइलिस्ट पर्दे नहीं दिखा सकता हूं, बस आपको बेस्ट स्टोरी दे सकता हूं. मैं अपने काम को बहुत एंजॉय कर रहा हूं. इतना मैंने अब तक कभी नहीं किया था. मेरी ऐसी इमेज नहीं है कि जॉन अब्राहम फलां का दोस्त है. फलां कैंप का है. जो भी नाम और इज्जत कमायी है, वह अपने दम पर कमायी है. कोशिश करूंगा कि आगे भी दर्शकों के लिए बेहतर करता रहूं.

देशभक्ति फिल्मों में अक्षय कुमार से तुलना?

अक्षय जिस तरह की फिल्में कर रहे हैं, वह कमाल की हैं. हम सिर्फ देशभक्ति की फिल्में बना कर ही नहीं कह सकते हैं कि यह हिट फॉर्मूला है. एक बार किसी ने मुझसे कहा था कि आप पुलिस यूनिफॉर्म में हैं, तो फलां फिल्म जरूर चलेगी. मैंने कहा कि बहुत सारी फिल्मों में मैंने पुलिस यूनिफॉर्म पहनी है, लेकिन वह फिल्म नहीं चली. फिल्म के लिए असल कंटेंट ही किंग है. बड़े बजट की फिल्में नहीं चलती हैं. आप एक्टर्स को लेते हैं. बड़े-बड़े सेट्स खड़े कर देते हैं, पर कंटेंट कहां है. ‘आर्टिकल-15’ जैसी फिल्म को देखिए. गाने नहीं हैं. भव्य सेट्स नहीं हैं, लेकिन फिल्म जबर्दस्त चली. वैसे मैं देशभक्त बनना चाहता हूं, लेकिन ‘नेशलिस्ट’ नहीं. दोनों में फर्क यह है कि देशभक्त वो होता है, जो अपने देश के अच्छी बातों पर गर्व सके और बुरी चीजों पर उसकी आलोचना करने से भी पीछे न रहे, जबकि नेशलिस्ट अपने देश की अच्छी-बुरी दोनों ही बातों से प्यार करता है.

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