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मंदी में आम जनता की बचत पर क्या असर होता है?

<figure> <img alt="काम करता मजदूर" src="https://c.files.bbci.co.uk/0642/production/_109220610_3c695c83-0b06-477e-af68-5a023b1ecb05.jpg" height="549" width="976" /> <footer>Getty Images</footer> </figure><p>आर्थिक मोर्चे पर भारत के लिए बुरी ख़बरों के आने का सिलसिला थम नहीं रहा. चालू वित्त वर्ष में कई सेक्टर में जारी गिरावट के बाद विश्व बैंक ने भी भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर का अनुमान छह फ़ीसदी से नीचे कर दिया है. […]

<figure> <img alt="काम करता मजदूर" src="https://c.files.bbci.co.uk/0642/production/_109220610_3c695c83-0b06-477e-af68-5a023b1ecb05.jpg" height="549" width="976" /> <footer>Getty Images</footer> </figure><p>आर्थिक मोर्चे पर भारत के लिए बुरी ख़बरों के आने का सिलसिला थम नहीं रहा. चालू वित्त वर्ष में कई सेक्टर में जारी गिरावट के बाद विश्व बैंक ने भी भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर का अनुमान छह फ़ीसदी से नीचे कर दिया है. </p><p>चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में विकास वृद्धि पाँच प्रतिशत पहुंचने और ऑटो सेक्टर में भारी सुस्ती के बाद सरकार ने कुछ उपायो की घोषणा की. </p><p>सरकार का कहना है किअर्थव्यवस्था में सुस्ती है और इससे उबरने के लिए तमाम उपाय किए जा रहे हैं, जबकि कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि अर्थव्यवस्था में मंदी आ चुकी है, विकास दर नकारात्मक हो चुकी है.</p><p>लेकिन सरकार और कई अन्य अर्थशास्त्री इसे अर्थव्यवस्था की सुस्ती ही मान रहे हैं. </p><p>पंजाब एवं महाराष्ट्र कोऑपरेटिव बैंक लिमिटेड पर जिस तरह आरबीआई ने लेनदेन पर अंकुश लगाया इसके बाद से ही बैंक के ग्राहक हैरान परेशान हैं. </p><p>दो दिन पहले एचडीएफ़सी बैंक के चेयरमैन दीपक पारेख ने <a href="https://economictimes.indiatimes.com/industry/banking/finance/banking/hdfc-chairman-says-system-has-no-measure-to-protect-common-mans-savings-deepak-parekh/articleshow/71534954.cms">कहा</a> कि सिस्टम में आम आदमी की बचत की सुरक्षा के कोई उपाय नहीं हैं. </p><p>बैंकों के लगातार बढ़ते एनपीए और सरकार की ओर से एनपीए माफ़ करने से बैंकों पर दबाव बढ़ गया है. ऐसे में आम आदमी बैंकों में अपनी जमा बचत को लेकर थोड़ा चिंतित है. </p><p>लेकिन जो वैश्विक और देश की आर्थिक हालत है उसमें आम लोगों की ज़िंदगी पर क्या असर पड़ेगा, पढ़िए आर्थिक मामलों के जानकार <strong>आशुतोष सिन्हा के संक्षिप्त विचार-</strong></p> <ul> <li><a href="https://www.bbc.com/hindi/india-49540567?xtor=AL-73-%5Bpartner%5D-%5Bprabhatkhabar.com%5D-%5Blink%5D-%5Bhindi%5D-%5Bbizdev%5D-%5Bisapi%5D">बर्बाद हो रहे अर्जेंटीना से भारत की तुलना क्यों </a></li> <li><a href="https://www.bbc.com/hindi/india-50030530?xtor=AL-73-%5Bpartner%5D-%5Bprabhatkhabar.com%5D-%5Blink%5D-%5Bhindi%5D-%5Bbizdev%5D-%5Bisapi%5D">क्या फ़िल्मों से पता चल सकता है अर्थव्यवस्था का हाल?</a></li> </ul><figure> <img alt="वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण" src="https://c.files.bbci.co.uk/5462/production/_109220612_a555eda8-2ea3-44de-b757-091ecc88aef9.jpg" height="549" width="976" /> <footer>Getty Images</footer> </figure><h1>इस समय क्या है अर्थव्यवस्था की स्थिति?</h1><p>सबसे पहले ये समझना ज़रूरी है कि ये जो हालात हैं वो ऐसे नहीं हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था अब पूरी तरह गिरने लगी है बल्कि इसके बढ़ने की रफ़्तार कम हुई है. पहले जहां हम क़रीब साढ़े छह या सात फीसदी पर बढ़ रहे थे वो अब हम घटकर पाँच फीसदी या उसके आसपास पर बढ़ रहे हैं.</p><p>दूसरा ये कोई नई बात नहीं. ऐसा पहले भी हुआ है. जनवरी में जब रोज़गार के आंकड़ों की रिपोर्ट आई थी तब सरकार ने चुनाव के कारण उसे नहीं माना था. </p><p>लेकिन, लोगों के पास नौकरियां कम हैं ये अब जगज़ाहिर है. इसे कोई नकार नहीं सकता. लेकिन, ये किस रूप में दिख रहा है ये समझना चाहिए. इसमें एक पक्ष कंपनियों का है और दूसरा आम कामगार लोगों का, जो संगठित और असंगठित क्षेत्र से हैं. </p> <ul> <li><a href="https://www.bbc.com/hindi/india-50032206?xtor=AL-73-%5Bpartner%5D-%5Bprabhatkhabar.com%5D-%5Blink%5D-%5Bhindi%5D-%5Bbizdev%5D-%5Bisapi%5D">रविशंकर प्रसाद ने वापस लिया अपना ‘फ़िल्मी’ बयान</a></li> <li><a href="https://www.bbc.com/hindi/india-47075117?xtor=AL-73-%5Bpartner%5D-%5Bprabhatkhabar.com%5D-%5Blink%5D-%5Bhindi%5D-%5Bbizdev%5D-%5Bisapi%5D">बेरोज़गारी की लीक हुई रिपोर्ट पर नीति आयोग की सफ़ाई </a></li> </ul><figure> <img alt="फैक्ट्री में कामगार" src="https://c.files.bbci.co.uk/44C2/production/_109220671_90506641-3527-4284-8ffa-72a9406a2290.jpg" height="549" width="976" /> <footer>Getty Images</footer> </figure><p>कंपनियों के लिए अर्थशास्त्री सबसे अहम कोर सेक्टर डाटा पर नज़र रखते हैं. ये जीडीपी का क़रीब 38 फीसदी हिस्सा है. </p><p>इस डाटा में पेट्रोलियम, इलेक्ट्रिसिटी और माइनिंग आदि क्षेत्र शामिल होते हैं, वो उत्पाद कंपनियां जिनकी खपत करती हैं. हर महीने इसका आंकड़ा आता है और उससे ये साफ़ ज़ाहिर है कि ये क्षेत्र साल डेढ़ साल से कमज़ोर चल रहा है, वो रफ़्तार नहीं दिखाई दे रही है. इसके पीछे सीधे तौर पर या घुमाकर नोटबंदी और कुछ अन्य वजहें हो सकती हैं. </p><p>हम और आप हर महीने जो ज़रूरी सामान ख़रीदते हैं उसकी खपत में कटौती हुई है जिसके कारण लोग अब पैसा बचाना चाह रहे हैं. इसलिए वित्त मंत्री ने पिछले महीने कॉरपोरेट टैक्स में कटौती की बात की थी. लेकिन, आप बहुत कम ऐसा देखेंगे कि कंपनियां उस कटौती का फ़ायदा लोगों तक पहुंचाएंगी. </p><figure> <img alt="आरबीआई" src="https://c.files.bbci.co.uk/F0A2/production/_109220616_eb5e7cf8-ef3c-4c12-8fd6-fb8b0ba17796.jpg" height="549" width="976" /> <footer>Reuters</footer> </figure><h1>बैंकों की हालत</h1><p>मंदी के समय में ब्याज दरों पर भी असर होता है और साफ़ दिख भी रहा है. लेकिन, उसका एक और कारण ये भी है कि स्टेट बैंक और दूसरे सरकारी बैंक हैं आज उस स्थिति में नहीं है कि वो लोन दे पाएं. उनके जो पहले के भी लोन वापस नहीं हुए है जिससे उनके पास पूंजी कम हो गई है. </p><p>वो आजकल ट्रेड फाइनेंस पर काम कर रहे हैं. जैसे कि किसी छोटे दुकानदार को पैसा दिया, उसका सामान आया और जब उसे पैसे मिले तो उसने बैंक का लोन वापस दे दिया. उसमें दो-तीन या छह महीने से ज़्यादा नहीं लगते हैं. जबकि किसी कंपनी के नई फैक्ट्री लगाने या नए प्रोजेक्ट के लिए दिए गए लोन को वापस मिलने में 10 साल तक लग जाते हैं. बैंक अब प्रोजेक्ट पर जोखिम नहीं ले रहे हैं. </p><p>आरबीआई ने 11 बैंकों को सुधार की कैटेगरी यानी प्रॉम्पट कैरेटिव एक्शन के तहत रखा था. कुछ बैंक इससे बाहर हो गए हैं. जो बैंक बचे हैं उनमें सुधार नहीं होता है तो लोगों का पैसा डूब सकता है. इसलिए आरबीआई कुछ बैंकों का विलय करके उन्हें ज़िंदा रखने की कोशिश करेगी. </p><p>हालांकि, 2008 की मंदी बिल्कुल अलग थी. हम उसके आसपास भी नहीं है. </p><h1>रियल स्टेट का हाल </h1><p>अगर रियल स्टेट पर असर देखें तो हमारे शीर्ष 6 से 8 शहरों में बहुत बड़ी संख्या ऐसे घरों की है जिनमें लोगों के पैसे फंसे हुए हैं. क़रीब एक लाख करोड़ रूपया फंसा हुआ है. अगर ये घर तैयार नहीं हुए तो मांग नहीं बढ़ेगी. एक बार मांग कम हो जाए तो उसे फिर से पैदा करना बहुत मुश्किल होता है. </p><p>2008 की मंदी में ये हुआ था कि बाज़ार बहुत ज़बरदस्त गिरा था. इसके अलावा उपभोक्ता बाज़ार में बहुत तेज़ी से क़ीमतें बढ़ी थीं और पेट्रोल, कच्चे तेल की क़ीमत 147 डॉलर के क़रीब पहुंच गई थी. इस कारण अर्थव्यवस्था पर दोहरी मार पड़ी थी. लोगों की नौकरियां जा रही थीं. कंपनियां अपने उत्पाद कम कर रही थीं. </p><p>उदाहरण के तौर पर जनरल मोटर्स ने हमर नाम की अपनी एक गाड़ी का उत्पादन 2008 के बाद बंद कर दिया. </p><p>अभी देखें तो जो कंपनियां विस्तार के लिए निवेश करना चाहती हैं उन्हें बैंक लोन दे नहीं रहे हैं. कंपनियों में भी ये भरोसा नहीं है कि लोग उनका सामान खरीदेंगे इसलिए वो भी नई फैक्ट्रियां लगाने में दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं. </p><p>इन हालातों में अगर आज बैंक दिवालिया होता है तो लोगों के परेशानी तो बढ़ेगी. हालांकि, उपाय ये होता है कि दूसरा बैंक उसे खरीद लेता है ताकि लोगों पर इसके असर को कम किया जा सके. </p><p><strong>(आशुतोष सिन्हा से बीबीसी संवाददाता संदीप राय की बातचीत पर आधारित.) </strong></p><p><strong>(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप </strong><a 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