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ज्ञान पर आत्मनिर्भरता

सन्नी कुमार टिप्पणाीकार sunnyand65@gmail.com आमतौर पर जब हम आत्मनिर्भर होने की बात करते हैं, तो इसके केंद्र में भौतिक संसाधनों पर अपना अधिकार सुनिश्चित करना होता है. इस आत्मनिर्भरता का विस्तार खाद्य सुरक्षा से लेकर रोजगार के अवसरों तक होता है, और अगर कोई समाज इस संदर्भ में आत्मनिर्भर नजर आता है, तो उसे उन्नत […]

सन्नी कुमार

टिप्पणाीकार
sunnyand65@gmail.com
आमतौर पर जब हम आत्मनिर्भर होने की बात करते हैं, तो इसके केंद्र में भौतिक संसाधनों पर अपना अधिकार सुनिश्चित करना होता है. इस आत्मनिर्भरता का विस्तार खाद्य सुरक्षा से लेकर रोजगार के अवसरों तक होता है, और अगर कोई समाज इस संदर्भ में आत्मनिर्भर नजर आता है, तो उसे उन्नत मान लिया जाता है. दिलचस्प बात है कि हम आज के दौर में ज्ञान की सर्वोच्चता में भरोसा तो जताते हैं, लेकिन ज्ञान के मामले में आत्मनिर्भर होने की कोशिश नहीं करते.
खासकर अगर भारतीय समाज और इसमें भी पूरबिया समाज में देखें, तो वहां इसको लेकर सघन उदासीनता है. पढ़ने-लिखने की संस्कृति विकसित करने में यह समाज अपनी अस्मिता के नष्ट हो जाने की सीमा तक लापरवाह है.
अब अगर ज्ञान में आत्मनिर्भर होने की बात करें, तो इसका ठीक-ठीक आशय व्यक्त करना भी जरूरी होगा. क्या इसका अर्थ यह हुआ कि सिर्फ एक क्षेत्रीय सीमा के भीतर ही ज्ञान को सीमित करते हुए, इस भूगोल के बाहर से ज्ञान के आगमन को बंद कर दिया जाये? क्योंकि आर्थिक मामलों में बहुधा आत्मनिर्भरता का यही अर्थ होता है.
या फिर आत्मनिर्भरता का तात्पर्य ज्ञान अर्जित करने के साधनों को विकसित करने से है? यहां आत्मनिर्भरता की जिस आवश्यकता की ओर संकेत किया जा रहा है, वह दूसरे अर्थ के अधिक निकट है. अर्थात् एक समाज सक्रिय रूप से ज्ञानार्जन के लिए गतिशील हो एवं उन सभी साधनों को विकसित करने का प्रयास करे, जो अध्ययनशील संस्कृति की रचना में भूमिका निभा सके.
आज समाज अपनी भूमिका से मुंह छिपाता नजर आ रहा है और ज्ञान के मामले में पूर्णतः राज्य पर निर्भर रहने लगा है. स्कूल-कॉलेज खुल जाने और इसके चलते रह जाने तक ही समाज की आकांक्षा सिमट सी गयी है. किसी क्षेत्र में अगर ऐसा है, तो उसे पढ़ा-लिखा समाज मान लिया जाता है. जबकि यह एक संकुचित धारणा है. इस तरह से पठन-पाठन की प्रगतिशील संस्कृति विकसित नहीं हो सकती. दरअसल, राज्य आधारित शिक्षा की अपनी सीमा है.
देखा जाये, तो राज्य अधिकतर औपचारिक शिक्षण तक ही शामिल होता है और इसका मुख्य जोर आर्थिक गतिविधियों में भाग ले सकनेवाले नागरिकों को तैयार करने पर होता है. इसी प्रकार से राज्य पाठ्यक्रम करता है, इसलिए यह संभव नहीं है कि हर प्रकार के समाज की जरूरतों को शामिल कर पाये. अत: राज्य के लिए यह मुश्किल है कि वह ऐसी प्रगतिशील संस्कृति की रचना में भूमिका निभा सके, जहां पढ़ना-लिखना दैनिक जीवनचर्या का अंग हो. यहां से समाज की भूमिका शुरू होती है.
समाज ज्ञानार्जन के लिए अपने बूते पुस्तकालय बनाये, उसके रखरखाव का जिम्मा ले और ज्ञान के पुनरोत्पादन के लिए पीढ़ियां संवाद करे. बच्चों को पाठ्यक्रम के अलावा पुस्तकें पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाये.

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