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…इसलिए अंतरराष्ट्रीय पदक जीतने में पीछे रह जाते हैं भारतीय खिलाड़ी!

लखनऊ : 130 करोड़ की आबादी वाले भारत को ओलिंपिक और अन्‍य प्रतिष्ठित मंचों पर अगर वाकई ‘मैदान मारना’ है, तो उसे खेल महाशक्तियों के नक्‍श-ए-कदम पर चलते हुए जीन की गुणवत्ता के आधार पर एथलीट के लिए खेल चुनना होगा. यह कहना है भारतीय जूनियर हॉकी टीम के पूर्व फिजियो और स्‍पोर्ट्स मेडिसिन स्‍पेशलिस्‍ट […]

लखनऊ : 130 करोड़ की आबादी वाले भारत को ओलिंपिक और अन्‍य प्रतिष्ठित मंचों पर अगर वाकई ‘मैदान मारना’ है, तो उसे खेल महाशक्तियों के नक्‍श-ए-कदम पर चलते हुए जीन की गुणवत्ता के आधार पर एथलीट के लिए खेल चुनना होगा. यह कहना है भारतीय जूनियर हॉकी टीम के पूर्व फिजियो और स्‍पोर्ट्स मेडिसिन स्‍पेशलिस्‍ट डॉक्‍टर सरनजीत सिंह का.

वह कहते हैं कि खेल के चयन में खिलाड़ी की अनुवांशिकी का भी गहरा दखल होता है. हिंदुस्‍तान में जीन के आधार पर खेल का चयन अब भी ख्‍वाब-ख्‍याल की बात लगती है, जबकि खेल की महाशक्ति माने जाने वाले देशों के लिए यह कोई नयी बात नहीं है.

डॉक्‍टर सिंह कहते हैं कि दुनिया का दूसरा सबसे ज्‍यादा आबादी वाला भारत, ओलिंपिक जैसे अंतरराष्‍ट्रीय मंच पर कभी वैसी कामयाबी नहीं हासिल कर सका, जैसी कि उससे उम्‍मीद की जाती है. ओलिंपिक में भारत को अब तक मिले पदकों की संख्‍या इसकी तस्‍दीक करती है. सबसे बड़ी कमी यहीं पर है कि हमारे देश में खेल का चयन खिलाड़ी के जीन के आधार पर नहीं होता.

उन्होंने बताया कि जीन की पहचान कर खेल का चयन नहीं होने का नतीजा यह होता है कि खिलाड़ी जिस खेल में सर्वश्रेष्‍ठ प्रदर्शन कर सकता है, दुर्भाग्‍य से वह उसे खेल ही नहीं रहा होता है. या फिर टीम में वह उस पोजीशन पर नहीं होता, जहां उसे जेनेटिक फायदे मिल सकते थे.

ऐसे करें खेल का चयन

डॉ सिंह ने बताया कि गर्भ में पल रहे बच्‍चे का एम्ब्रियोनिक फ्लूइड निकालकर या फिर किसी भी उम्र के व्‍यक्ति की ‘मसल बायोप्‍सी’ करके पता लगाया जा सकता है कि वह भविष्‍य में किस खेल में अपना सर्वश्रेष्‍ठ प्रदर्शन कर पायेगा. सिंह ने कहा कि खिलाड़ी को मेडल तक पहुंचाने की शुरुआत उसके खेल के चुनाव से होती है और फिर उसकी नैसर्गिक प्रतिभा को कई तरह के ट्रेनिंग सिस्टम्स, जिनमें उसकी साइकोलॉजिकल ट्रेनिंग, फिजिकल ट्रेनिंग, स्किल ट्रेनिंग, स्पोर्ट्स न्यूट्रिशन और सप्‍लीमेंटशन, कई तरह की चिकित्सीय साधनों और वैज्ञानिक तौर-तरीकों से निखारा जाता है.

भारतीय खेल प्राधिकरण (SAI) के रिसोर्स पर्सन रह चुके सिंह ने बताया कि कोई खिलाड़ी भविष्य में अपने खेल में कैसा प्रदर्शन करेगा, यह उस खेल में इस्‍तेमाल होने वाली मांसपेशियों की जैविक संरचना से तय होता है. उनका कहना है कि खेलों को तेज, मध्यम और धीमी गति वाले स्पोर्ट्स में बांटा जा सकता है. इन सभी में अलग-अलग ऊर्जा स्रोत का इस्तेमाल होता है. एथलेटिक्स इसका बहुत अच्छा उदाहरण है, जिसे 100 मीटर, 400-800 मीटर और मैराथन दौड़ों से समझा जा सकता है.

उन्होंने कहा कि क्रिकेट में इसे तेज गेंदबाज, मध्‍यम गति के गेंदबाज और स्पिनर से भी समझा जा सकता है. इसी तरह हॉकी और फुटबॉल में भी अलग-अलग पोजीशंस के लिए अलग-अलग तरह की मसल संरचना की जरूरत होती है और ये फॉर्मूला हर उस खेल में इस्तेमाल होता है, जिसमें शारीरिक दम-खम की जरूरत होती है.

श्री सिंह कहते हैं कि खिलाड़ियों की मांसपेशियों के फास्‍ट और स्‍लो फाइबर से तय होता है कि कौन सा खिलाड़ी अच्‍छा स्प्रिंटर, मध्‍यम दूरी का धावक या मैराथन धावक बन सकता है. इसी तरह कौन सा खिलाड़ी फुटबॉल या हॉकी में अच्छा फॉरवर्ड, अच्‍छा मिडफील्‍डर अथवा डिफेंडर बन सकता है. इसी तरह क्रिकेट में, खिलाड़ी के कंधों की मांसपेशियों में इन फाइबर्स के अनुपात जानकर ये बताया जा सकता है कि अगर वह गेंदबाज बनना चाहता है, तो वो किस तरह के बॉलर (तेज, मध्‍यम गति या स्पिनर) के रूप में सफल हो सकता है.

इस जानकारी के बाद अगर इन मसल्स अनुपात के अनुसार खिलाड़ी की तैयारी करायी जाये, तो उसकी धार को और भी तेज किया जा सकता है. उन्‍होंने कहा कि जीन के आधार पर खेल का चुनाव नहीं किया जाना भी भारत के खेलों में पिछड़े होने का एक बड़ा कारण है.

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