25.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

Ram Mandir: रामानंदी पद्धति से होगी रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा, जानें खासियत

अयोध्या राम मंदिर में 22 जनवरी को रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा रामानंदी पद्धति से होगी. यह वैष्णव साधुओं व संन्यासियों के देश के सबसे बड़े संप्रदाय-रामानंदी संप्रदाय की पूजा-पद्धति है. इसे लेकर ‘रामानंदियों की नगरी’ अयोध्या बहुत खुश है! आइये, रामानंदी संप्रदाय के बारे में कुछ और बातें जान लेते हैं.

मंदिर का निर्माण करा रहे श्रीरामजन्मभूमि तीर्थक्षेत्र ट्रस्ट ने यह भी तय किया है कि रामलला की प्रतिदिन की सेवाओं, निमित्त उत्सवों व अनुष्ठानों को भी रामानंदी संप्रदाय की पूजा-पद्धति से संपन्न किया जायेगा. इस बाबत महासचिव चम्पत राय और दो अन्य सदस्यों नृपेंद्र मिश्र व डॉ अनिल मिश्र की ‘श्रीराम सेवा विधि-विधान समिति’ बनायी गयी है. उसमें अयोध्या के रामानंदी संप्रदाय के महंत कमलनयन दास, रामानंद दास और मैथिलीकिशोरी शरण को आमंत्रित सदस्य बनाया है. यह समिति अपनी देख-रेख में पूजा-पद्धति को लिपिबद्ध करायेगी, फिर उसे पुस्तकाकार प्रकाशित किया जायेगा, ताकि कोई ‘भ्रम’ न रहे. पिछले दिनों जैसे ही ट्रस्ट के इस निश्चय की खबर आयी, रामभक्ति की विभिन्न धाराओं व शाखाओं के बीच समन्वय स्थापित करने, वर्ण-विद्वेष को धता बताने व बहुलवाद को पोषने के लिए जाने जाने वाले रामानंदी संप्रदाय के बारे में जानने की लोगों की उत्सुकता अपने चरम जा पहुंची. उनकी उत्सुकता का शमन करने चलें, तो हम पाते हैं कि इस संप्रदाय को मध्यकाल में स्वामी रामानंद ने (जिन्हें उनके अनुयायी सम्मानपूर्वक स्वामी जगतगुरू श्रीरामानंदाचार्य कहते हैं) प्रवर्तित किया था.

यह संप्रदाय ‘मुक्ति’ के विशिष्टाद्वैत सिद्धांत को (जिसे राममय जगत की भावधारा के तौर पर परिभाषित किया जाता है) स्वीकारता है और बैरागी साधुओं के चार प्राचीनतम संप्रदायों में से एक है. इसके बैरागी, रामावत और श्रीसंप्रदाय जैसे नाम भी हैं और इसमें परमोपास्य द्विभुजराम को ब्रह्म तो ‘ओम रामाय नमः’ को मूलमंत्र माना जाता है. विष्णु के विभिन्न अवतारों के साथ उपासना तो सीता व हनुमान वगैरह की भी की जाती है, लेकिन मुक्ति के लिए राम व विष्णु दोनों की कृपा को अपरिहार्य माना जाता है. मान्यता है कि इन दोनों के अलावा कोई और मुक्तिदाता नहीं है. अतएव कर्मकांड को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता और अनुयायियों के उदार, सारग्राही और समन्वयी होने पर जोर दिया जाता है.

संप्रदाय के अनेक अनुयायी रामानंद को भी राम का अवतार मानते और कहते हैं- ‘‘रामानन्द: स्वयं रामः प्रादुर्भूतो महीतले।’’. हालांकि रामानंद के जन्म की तिथि और काल को लेकर विद्वानों में गंभीर मतभेद हैं. कहा जाता है कि प्रयागराज में उनका जन्म हुआ, तो धर्मपरायण माता-पिता ने उन्हें होश संभालते ही धर्मग्रंथों के अध्ययन के लिए काशी के स्वामी राघवानंद के पंचगंगाघाट स्थित श्रीमठ भेज दिया. वहां संत राघवानंद के शिष्यत्व में अध्ययन व साधना का चक्र पूरा करने के बाद वे तीर्थाटन पर चले गये. लेकिन देश के विभिन्न तीर्थों से कुछ और ज्ञान व अनुभवसमृद्ध होकर श्रीमठ लौटे तो उनका एक बड़ी ही अप्रिय स्थिति से सामना हुआ. उनके कई गुरुभाइयों ने यह कहकर उनके साथ या उनकी पांत में भोजन ग्रहण करने से इनकार कर दिया कि क्या पता, तीर्थाटन के दौरान वे किसका-किसका छुआ या पकाया, खाद्य अथवा अखाद्य भोजन ग्रहण करके वापस आये हैं. इसे लेकर बात बढ़ गयी तो गुरु राघवानंद ने रामानंद को आज्ञा दी कि वे अपनी मति के अनुसार नये संप्रदाय का प्रवर्तन कर लें. कुछ महानुभावों के अनुसार, गुरु की यह आज्ञा रामानंद के लिए दंडस्वरूप थी, अन्यथा वे गुरुभाइयों को बरजकर उनके साथ भोजन को सहमत कर लेते. लेकिन यह बात सही नहीं लगती, क्योंकि अनेक मायनों में संत राघवानंद भी समतावादी संत ही थे और सभी जातियों के छात्रों को शिक्षा देते थे.

जो भी हो, रामानंद ने गुरु की आज्ञा शिरोधार्य कर ली, तो पीछे मुड़कर नहीं देखा. रामानंदी संप्रदाय का प्रवर्तन किया तो गुरुभाइयों द्वारा उनसे बरती गयी छुआछूत के प्रतिकारस्वरूप भक्ति का द्वार खास व आम सबके लिए खोल दिया. कहने लगे- ‘जात-पांत पूछै नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई’. भगवान की शरणागति का मार्ग सबके लिए खुला है और किसी भी जाति या वर्ण का व्यक्ति उनसे राम-मंत्र ले सकता है. कबीर ने उनसे कैसे अनूठे ढंग से यह मंत्र लिया था, हम सभी जानते हैं. आगे चलकर रामानंद ने शिष्यों में ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों, स्त्रियों और मुसलमानों सबको शामिल किया. जाति आधारित प्रायः सारे द्वेषभावों को अज्ञानमूलक बताकर उनकी हवा निकाल दी और द्वेषभावों की जाई खाइयों को प्रेम व समानता के संदेशों से पाटने के प्रयास शुरू किये. इन प्रयासों ने आगे चलकर हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य, शैव-वैष्णव विवाद, वर्ण-विद्वेष, मत-मतांतरों के झगड़ों और उनसे पैदा हुई सामाजिक कटुताओं से निपटने में भी बड़ी भूमिका निभायी.

रामानंद के प्रमुख शिष्यों में कबीरदास, रैदास (रविदास), नरहर्यानन्द (नरहरिदास), अनंतानंद, भावानंद, सुरसरी, पद्मावती, नाभादास, धन्ना (जाट), सेना (नाई), पीपासेन (राजपूत) और सदना (कसाई) शामिल थे. इनमें नरहर्यानंद उनसे दीक्षा लेने के बाद नरहरिदास बन गये थे और उनको संत तुलसीदास का गुरु माना जाता है. भक्त कवि व संत तो खैर वे थे ही, उन्हें ब्रजभाषा के साथ संस्कृत और फारसी का भी अच्छा ज्ञान था. लेकिन जिस एक सबसे बड़ी बात ने रामानंद को भक्ति आंदोलन के महानतम संतों में शामिल कराया, वह यह थी कि उन्होंने रामभक्ति को हिमालय की पवित्र ऊंचाइयों से उतार कर गरीबों की झोपड़ियों तक पहुंचाने में अथक परिश्रम किया. साथ ही उसकी रक्षा का धर्म निभाने के लिए बैरागी साधुओं को अस्त्र-शस्त्र से सज्जित कर अनी यानी सेना के रूप में संगठित किया और उनके अनेक अखाड़ों की स्थापना करायी.

वे पहले ऐसे आचार्य थे, जो द्रविड़ क्षेत्र यानी दक्षिण भारत में उपजी भक्ति को उत्तर भारत ले आये और उसे जन-जन तक पहुंचाया. उनकी व्यापक स्वीकार्यता की एक मिसाल यह भी है कि उनके शिष्यों में राम के निर्गुणोपासक भी थे और सगुणोपासक भी. कबीर और रैदास जैसे शिष्यों ने अलग राह पकड़ ली, खासकर कबीर ‘एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट-घट में लेटा, एक राम है जगत पसारा, एक राम है जगत से न्यारा’ कहने तक पहुंच गये तो भी उन्हें अपना गुरु स्वीकारते रहे. सोलहवीं शताब्दी में रामानंद की शिष्य परंपरा की चौथी पीढ़ी के संत अग्रदास ने रसिक संप्रदाय का प्रवर्तन किया, तो भगवान राम की अयोध्या के कई संत-महंत उसके रंग में रंग गये.

राम के बैकुंठधाम प्रस्थान का साक्षी गुप्तार घाट

अयोध्या में रामजन्मभूमि पर भव्य मंदिर का निर्माण जोरों पर है और 22 जनवरी के बाद उसे आम श्रद्धालुओं के लिए खोला जाये तो बहुत संभव है कि वहां ऐसा जनसमुद्र उमड़ पडे, जिसे संभालना मुश्किल हो जाये. इसके मद्देनजर इस धर्मनगरी के कई दूसरे आस्था-केंद्रों को भी सजाया-संवारा गया है, ताकि वे भी आने वाले श्रद्धालुओं को लुभायें. इस लिहाज से उत्तर प्रदेश सरकार का सबसे ज्यादा जोर गुप्तारघाट के नवीनीकरण व सुंदरीकरण पर है. गौरतलब है कि नये राम मंदिर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर सरयू के किनारे स्थित गुप्तारघाट वह पौराणिक स्थल है, जिसके बारे में विश्वास है कि भगवान राम ने अपनी लंबी नरलीला की समाप्ति के बाद वहीं से बैकुंठधाम को प्रस्थान किया था. श्रद्धालुओं के एक वर्ग का विश्वास है कि उन्होंने इसी घाट से सरयू में उतरकर जलसमाधि ले ली थी, जबकि दूसरे वर्गों के अनुसार अलौकिक रूप से गुप्त होकर स्वर्गारोहण किया था.

जानकार बताते हैं कि तब से ही इस घाट को गुप्तारघाट कहा जाने लगा. इससे पहले उसका नाम गो-प्रतारणघाट था. यानी वह घाट जहां से गायें सरयू को पार करती थीं. जो भी हो, भगवान राम से जुड़ा यह स्थल शताब्दियों से श्रद्धालुओं की आस्था को तुष्ट करता आया है. वे मानते हैं कि यहां आकर दर्शन-पूजन व स्नान से अक्षय पुण्य की प्राप्ति तो होती ही है, मनोकामनाएं भी पूर्ण होती हैं. मान्यता है कि भगवान राम इस घाट पर आये तो उनके साथ और तो और अयोध्या के कीट-पतंगे तक उनके दिव्य धाम चले गये थे, जिससे अयोध्या उजड़-सी गयी थी. बाद में पुत्र कुश ने उसको और इस घाट को आबाद किया. कई लोग महाराज विक्रमादित्य को भी इसका श्रेय देते हैं. फिलहाल, इस घाट पर कई छोटे-छोटे मंदिर स्थित हैं, जिनमें रामजानकी मंदिर, चरण पादुका मंदिर, नरसिंह मंदिर और हनुमान मंदिर प्रमुख हैं. यहां के हनुमान मंदिर की विशेषता है कि जो हनुमान अयोध्या में राम के सेवक और भक्त हैं, वे यहां राजा के रूप में विराजमान हैं. जो श्रद्धालु इस घाट पर आते हैं, वे सबसे पहले हनुमान का दर्शन-पूजन करते हैं, फिर राम के दर्शन को जाते हैं.

Also Read: क्या होती है प्राण-प्रतिष्ठा, जानें महत्व, विधि और मंत्र पूजन

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें