अजय मोहन
एक लम्बे संघर्ष के बाद तेलंगाना को अलग राज्य का दर्जा तो मिल गया पर अब भी कई आशंकाएं इसके साथ जुड़ी हुई हैं. यूं तो केन्द्र सरकार और कांग्रेस चाहती तो वे अपनी सूझ बूझ से, संवेदनशीलता से इस मुद्दे को शांत कर सकती थी जिससे न देश की शांति भंग होती और न ही हिंसा का जो वीभत्स नृत्य इस विवाद ने दिखाया वो देश को देखना पड़ता. रास्ते और भी निकाले जा सकते थे.
बहरहाल, अगर आप यह सोच रहे हैं कि राज्यसभा में पारित हो चुके बिल पर राष्ट्रपति की मुहर लगने के बाद सब ठीक हो जायेगा, तो हम यहां फिल्म ओम शांति ओम का डायलॉग याद दिलाना चाहेंगे- पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त.. जो भी हुआ अब समय उससे आगे बढ़ के सोचने का है. वक्त के साथ इस विवाद से मिलने वाले जख्म भी भर जाएंगे पर मुश्किले अभी और भी हैं. सिर्फ राज्य का बंटवारा कर देने से समस्या का अंत नहीं हो जाता है. यूपीए सरकार का लोकसभा चुनाव के इतने समीप आकर यह निर्णय एक चुनावी हथकंडा है या नहीं यह एक अलग आलोचना का मुद्दा है पर यह तो तय है कि कांग्रेस ने राजनीतिक दृष्टि से अपने हित में जो दावं खेला है उसका परिणाम आंध्र और तेलंगाना दोनों के लिये कई शंकाएं प्रकट कर देता है.
जो भी हो सरकार को यह समझ जाना चाहिए कि इस विवाद को केवल विशेष वित्तीय प्रबंध से सुलझा पाना संभव नहीं है. आज भले ही सरकार मानती हो कि तेलंगाना का बंटवारा करके उसने उचित कदम उठाया है पर इस विभाजन से सिर्फ दो प्रान्त भौगोलिक रूप अलग नहीं हुए बल्कि इस विभाजन ने दो संस्कृतियों में, दो समुदायों में परस्पर आत्मीयता की भी सभी संभावनाओं को मिटा दिया है.
जातीयता की यह पाट अब इतनी खिंच गई है कि दोनो पक्ष एक दूसरे के शत्रु बन गए हैं. ऐसे में इनसे किसी भी प्रकार की साङोदारी और समझौते की उम्मीद करना बहुत मुश्किल है.
वन इंडिया से साभार
बड़े सवाल
1. क्या सरकार तेलंगाना में बसे हुए सीमान्ध्र के लोगों और आन्ध्र प्रदेश के लोगों जो अभी तेलंगाना में हैं उनकी समस्याओं को, महत्वकाक्षांओं को पूरा कर पाएगी?
2. सीमान्ध्र और आन्ध्रप्रदेश के ये लोग जिन्होंने अपने सामने हिंसा का विकराल-दृश्य देखा है, क्या सरकार इनके भय को कम कर पाएगी, क्या सरकार इनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी को पूर्ण रुप से निभा पाएगी?
3. वैसे तो सरकार तेलंगाना में आन्ध्रा के अवशिष्ट भाग को विशेष दर्जा देने की और पिछडें वर्ग को विशेष विकास पैकज देने की बात कर रही है पर अब भी सवाल हैदराबाद में बसे उन लोगों की जिंदगी और आजीविका की सुरक्षा का है जो गैर तेलंगाना वाले हैं और वो भी तब जब हैदराबाद को दस साल के लिये आन्ध्र और तेलंगाना दोनों की राजधानी बनाने का फैसला किया गया है.