-हरिवंश-
गुजरात के उफनते कनकरिया नदी में एक औरत ने अपने तीन छोटे-छोटे बच्चों को फेंक दिया. फिर खुद उसी नदी में कूद कर आत्महत्या कर ली. बाद में पुलिस ने चार शव बरामद किये. मृतक महिला के पास एक कागज भी मिला. उसमें लिखा था, ‘पिछले 10 दिनों से हमने खाना नहीं खाया है. इस कारण यह कदम उठाने के लिए मैं विवश हुई.’ चूंकि मरनेवाले ‘मामूली’ लोग हैं. इस कारण यह खबर मीडिया और सरकार की नजरों में अहमियत नहीं रखती. एकाध समाचारपत्रों ने चंद पंक्तियों में इसका उल्लेख कर अपना फर्ज पूरा कर लिया. हां, कुछ लोगों ने अवश्य यह दलील दी की यह अनोखी घटना नहीं है, यह सही है कि आजाद भारत में हजारों भूखे लोगों ने खुदकुशी की है, लेकिन ऐसी मौत पर चौतरफा चुप्पी से क्या जाहिर होता है?
ऐसी घटना पर समाज का कोई हिस्सा उद्वेलित न हो, तो यह लक्षण बीमार समाज का प्रतीक है. हाराकिरी की राह पर आंख मूंद कर चलने की हमारी प्रतिबद्धता का इजहार भी. 1972 में गुजरात की शिक्षा संस्थाओं में खाते-पीते घरों के लड़के पढ़ते थे. उन दिनों छात्रावासों में खाने के कुछ अधिक पैसे के भुगतान के सवाल को लेकर इन छात्रों ने नवनिर्माण आंदोलन शुरू किया. आंदोलन उग्र हुआ और 1977 पूरे देश में सत्ता बदल गयी. बाद में उसी राज्य में आरक्षण सवाल पर कई मुख्यमंत्री बदले. पूरा गुजरात आंदोलन की आग में महीनों जलता रहा. गांधी की माला जपनेवाले भी महंगाई और आरक्षण के सवाल पर उद्वेलित हो गये और गुजरात की सड़कों पर उतर आये. हाल ही में वहां रथयात्रा जुलूस के दौरान बिना कारण दो समुदायों में झड़पें हुईं और कुछ लोगों की जानें भी गयीं. लेकिन एक निरीह-बेबस महिला ने उसी राज्य में भूख के कारण अपने बच्चों समेत आत्महत्या कर ली, फिर भी यह सवाल नहीं उठा कि उस औरत-बच्चों की आत्महत्या की जिम्मेदारी किसी पर है या नहीं? स्पष्ट है कि मध्यम वर्ग के लोगों के हितों के अनुकाल अगर सरकार काम नहीं करती, तो उसे उखाड़ने के लिए आंदोलन होते हैं. लेकिन बहुसंख्यक गरीब अगर अपना जायज हक नहीं पाते, तो उनके आवाज उठानेवाला कोई हरावल दस्ता नहीं है.
नकारा विपक्ष इस देश में उद्योगपतियों के घर पड़नेवाले छापों को बंद करे, न्यायाधीशों-सांसदों की वेतन वृद्धि और सुविधाओं को बढ़ाने तथा संगठित उद्योगों के नौकरीपेशा लोगों की वेतन वृद्धि के लिए सरकार पर दबाव डालता है. यानी व्यवस्था से लाभ उठानेवालों की एक संगठित और ताकतवर जमात पूरी व्यवस्था में काबिज है. इस जमात के किसी एक तबके के हित-स्वार्थ के लिए, उसी जमात के दूसरे और असरदार तबके उग्र हो कर लड़ते हैं. इस जमात में सत्ताधारी दल, विपक्ष, नौकरशाह, उच्चवर्ग और संगठित उद्योगों के लोग शरीक हैं. विपक्ष तो महज सत्ताधारी दल का पुछल्ला है. उसकी नकेल सरकार के हाथ में है. यही कारण है कि विपक्ष कभी इस देश में विकल्प के रूप में नहीं उभरा.
आतंक, अत्याचार और हिस्सामारों के खिलाफ अगर बगावत का माहौल नहीं बनता, तो विपक्ष के बने रहने का कोई औचित्य नहीं है. एक तरफ सरकारी गोदामों में खाद्यान्न सड़ रहा है, दूसरी ओर खाने के बिना लोग आत्महत्या करने के लिए विवश हैं.
राजीव गांधी अगर बंगाल के सुदूर बाढ़ग्रस्त गांवों में जाते हैं, तो मीडिया में उसकी खूब चर्चा होती है, दूरदर्शन बार-बार दिखाता है. यह भी बताया जाता है कि ऐसे इलाके में पहुंचनेवाले राजीव गांधी पहले प्रधानमंत्री हैं. यानी हमारी दृष्टि में राजीव गांधी का ऐसे लोगों के बीच आगमन ऐतिहासिक घटना है, लेकिन जो पिछड़े लोग अभी भी पत्ते खा कर गुजारा कर रहे हैं, उनकी स्थिति से लोगों को रूबरू कराना ‘मीडिया’ की नजर में महत्वहीन है.
आखिर सत्ता की छतरी के नीचे सुख भोगनेवाली इस जमात की संवेदना कैसे सूख गयी? जब हम आयातित सोच और तकनीकी से इश्क फरमाते हैं, तो इसके खमियाजा भी हमें देर-सबेर भुगतना ही पड़ता है. इस कल्याणकारी व्यवस्था का केंद्र बिंदु ‘वह औरत नहीं है, जिसने अपने बच्चों के साथ खुदकुशी की’ बल्कि ऐसे बेसहारा लोगों के भाग्यनियंता हैं, जिनके हाथों में सत्ता या शक्ति है. इस सत्ता और शक्ति का उपयोग यह वर्ग अपनी हैसियत में इजाफा करने के लिए कर रहा है. अगर राजीव गांधी आदिवासी इलाकों में दौरे करते हैं, तो उनका मकसद आदिवासियों के कल्याण में कम अपनी लोकप्रियता बढ़ाने में अधिक है. वह इस तथ्य से वाकिफ हैं कि उनकी ताकत का उत्स, उनकी छतरी के नीचे एकजुट सुविधाभोगी मध्यवर्ग के बीच नहीं है, बल्कि इसके बाहर बसनेवाले पिछड़ों-दलितों के बीच है, और इस भोले-भाले वर्ग को आसानी से छला जा सकता है. यह वह बखूबी कर भी रहे हैं.
वह यह भी जानते हैं कि दिग्विजियी राजाओं की अवधारणा से अभिभूत होनेवाले इस देश के गरीब-गुरबा जब उन्हें अपने बीच पायेंगे, उनकी आभा से अभिभूत होंगे, तो उनकी छवि ऐसे लोगों के दिमाग में बरकरार रहे, व्यवस्था की यही भरपूर कोशिश है. इस कारण पिछड़े अगर भूखों मरते हैं, तो सरकार की सेहत पर कोई आंच नहीं आती. अगर ये लोग संगठित हो कर जायज हक की मांग करते हैं, तो सरकार को अजीर्ण हो जाता है. मीडिया और सरकारी नुमाइंदे ऐसे तत्वों को ‘अतिवादी, नक्सलवादी और हिंसक’ करार करते हैं. इस सरकारी प्रचार पर उच्च मध्यवर्ग दोनों को असंगठित गरीबों से खतरा नजर आता है. इस कारण पारस्परिक स्वार्थ सिद्धि के लिए ये दोनों गरीबों के खिलाफ एकजुट हैं. परिणामस्वरूप उस दुनिया की खबरों के प्रति असंवेदनशील भी.