19 जनवरी को पूरे बिहार में जल-जीवन-हरियाली कार्यक्रम, नशामुक्ति, दहेज प्रथा एवं बाल विवाह उन्मूलन को लेकर मानव श्रृंखला आयोजित की गयी. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 3 दिसंबर,2019 को पश्चिम चंपारण के चंपापुर गांव से ‘जल जीवन हरियाली’ अभियान की शुरुआत की थी. इसके तहत अगले तीन वर्षों में करीब 1 करोड़ पौधारोपण किया जाना है. इसके लिए 24 हजार करोड़ रुपये का बजट निर्धारित है. दूसरी ओर बंगाल, बिहार और झारखंड की कुछ महिलाओं ने अपनी जिद और जुनून के बलबूते मुफ्त में ही सैकड़ों एकड़ जमीन पर हरियाली की चादर बिछा दी है. आज की इन महिलाओं के जज्बे को समर्पित!
उमेश कुमार राय
वर्तमान में क्लाइमेट चेंज या जलवायु परिवर्तन की समस्या से हर कोई वाकिफ है. पिछले एक दशक से जलवायु परिवर्तन का असर हर तरफ स्पष्ट दिख रहा है, पर समुद्र के किनारे के इलाकों में प्रत्यक्ष तौर पर इसका प्रभाव देखने को मिलता है. पश्चिम बंगाल में स्थित सुंदरबन डेल्टा ऐसा ही इलाका है.
सुंदरवन डेल्टा क्षेत्र में छोटे-बड़े करीब 100 द्वीप हैं. इनमें से 54 द्वीपों पर लोग रहते हैं. जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ते जलस्तर से घोड़ामारा, मौसनी, गोसाबा, सागरद्वीप, पाथरप्रतिमा, बासंती समेत सुंदरबन के कई द्वीपों का अस्तित्व खतरे में है. बढ़ते जलस्तर के कारण इन द्वीपों की जमीन लगातार कट कर पानी में समा रही है. इसरो की तरफ से कुछ साल पहले जारी रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले 10 वर्षों में सुंदरवन का 9990 हेक्टेयर भूखंड कटाव के कारण पानी में डूब चुका है.
आइला तूफान ने दी थी चेतावनी
जमीन के कटाव के कारण अस्तित्व पर मंडराते इस खतरे से दो-दो हाथ करने के लिए आगे आयीं यहां की महिलाएं. आज उनकी मेहनत और जुनून का ही असर है कि इस क्षेत्र में आधा दर्जन से ज्यादा द्वीपों का क्षेत्रफल सिकुड़ने की बजाय फैल रहा है. बासंती क्षेत्र के आनंदबाग गांव की स्थानीय निवासी 50 वर्षीया सूफिया शेख बताती हैं- æ‘साल 2009 में आये आइला तूफान से हमें काफी नुकसान हुआ था. हमने गौर किया कि जिस तरफ मैंग्रोव वन ज्यादा थे, उस तरफ क्षति कम हुई, जबकि नदी का पानी तेजी से जमीन को काट कर हमारी ओर बढ़ रहा था. हमने महसूस किया कि अगर हमें भी सुरक्षित रहना है, तो मैंग्रोव वन लगाना होगा. इस तरह वन लगाने की शुरुआत हुई.’
सूफिया शेख समेत करीब 400 महिलाओं ने साल 2010 में इस मुहिम की शुरुआत की. वे पहले बीज से मैंग्रोव के पौधे तैयार करतीं. दो से ढाई महीने उन पौधों की देखभाल करतीं. फिर उन्हें नदी के किनारे रोप दिया जाता. इस काम में उनके पतियों ने भी पूरा सहयोग किया.
एक अन्य महिला अमीना लश्कर बताती हैं कि- ‘हमलोग नदी में जाल डालते थे, तो दूसरे द्वीप से बह कर आनेवाला मैंग्रोव का बीज फंस जाता था. हम उसे लेकर घर आ जाते थे. एक स्थानीय स्वंयसेवी संगठन ने भी हमें बीज मुहैया कराया. आइला तूफान आने के बाद यहां की मिट्टी में समुद्र का खारा पानी मिल गया था़ इस वजह से वो मिट्टी किसी काम की रही नहीं थी़ हमें तालाब खोद कर अच्छी मिट्टी निकालनी पड़ी. फिर उसमें पौधों की रोपनी की. जब पौधे तैयार हो जाते, तो उन्हें एक महीने के लिए नमकीन पानी में छोड़ देते थे. इसके बाद हमलोग नावों पर सवार होकर नदी में उतरते और किनारे में इन पौधों को मिट्टी में रोप देते.’
मैंग्रोव की जड़ें मिट्टी को मजबूती से पकड़ कर जमीन का दायरा बढ़ाने में मदद करती हैं. अगर हम ये कहें कि मैंग्रोव के जंगल उसी जगह आबाद होते हैं, जहां वे पानी के साथ आयी मिट्टी को पकड़ कर जमीन का विस्तार कर सकें, तो कुछ गलत नहीं होगा.
प्रो तुहिन घोष, जाधवपुर, यूनिवर्सिटी, प बंगाल
मैंग्रोव के पेड़ लगाने को लेकर महिलाओं में काफी उत्साह है. पौधे तैयार करने के एवज में हम उन्हें कुछ पैसा भी देते थे, ताकि उनकी आर्थिक मदद हो जाये और वन क्षेत्र भी बढ़े. सुंदरवन के 16 ब्लॉक के 83 गांवों की करीब 18000 महिलाओं ने मैंग्रोव वन के विस्तार की मुहिम चलायी. किसी विशेषज्ञ के मुकाबले इन्हें वन और जंगलों का महत्व अधिक पता है.
अजंता डे, ज्वाइंट सेक्रेटरी तथा प्रोग्राम डायरेक्टर, नेचर एंड वाइल्डलाइफ सोसाइटी ऑफ इंडिया
प बंगाल : मैंग्रोव वन
2019 2112
2017 2114
2015 2106
2013 2097
2011 2155
2009 2152
2005 2136
2003 2120
2001 2081
1999 2125
बिहार : वन क्षेत्र
2019 7306
2017 7299
2015 7254
2013 7291
2011 6845
झारखंड : वन क्षेत्र
2019 23611
2017 23553
2015 23524
2013 23473
2011 22977
स्रोत: फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया
मन मे जज्बा हो, तो कुछ भी असंभव नहीं : चामी मुर्मू
राजनगर प्रखंड के बीजाडीह पंचायत अंतर्गत भुरसा गांव की सुश्री चामी मुर्मू ‘सहयोगी महिला’ स्वयंसेवी संस्था के संस्थापक और सचिव रह चुकी है. वर्तमान में राजनगर प्रखंड भाग 16 के जिला परिषद सदस्य है. इस स्वंय सेवी संस्था का गठन करने से लेकर जब तक वह इसकी सचिव रहीं, तब तक उन्होंने कुल 2,767 स्वयं सहायता समूहों का गठन किया. केवल यही नहीं, बल्कि उन्होंने अपने प्रयासों से बीते 29 वर्षों में लगभग 780 हेक्टेयर सरकारी, गैर सरकारी तथा बंजर जमीन पर लगभग 27,25,960 पौधों का रोपण कर चुकी हैं. संस्था द्वारा ग्रामीण महिलाओं को रोजगार के साधन मुहैया कराने तथा उन्हें बचत करने के तरीकों के बारे में बताने के लिए अभियान भी चलाया गया है. संस्था से जुड़ी सैकड़ों महिलाएं आज गौ पालन करके दूध का कारोबार कर रही हैं. कुछ महिलाओं द्वारा मुर्गी पालन, बकरी पालन आदि का काम किया जाता है.
सुश्री चामी मुर्मू को उनके पौधरोपण कार्यक्रम हेतु पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा 16 मार्च 2000 को नयी दिल्ली के विज्ञान भवन में ‘इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्षमित्र पुरस्कार’ से नवाजा गया. इसके अलावा सुश्री मुर्मू को पर्यावरण व समाजसेवी के क्षेत्र में भी राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर कई पुरस्कार मिल चुके हैं.
इनपुट : सुरेंद्र मार्डी
हमारे रक्षक हैं पेड़-पौधे, अत: इन्हें बचाना जरूरी : चिंता देवी
बिहार के जमुई जिले के खैरा प्रखंड निवासी चिंता देवी करीब आठ वर्ष पूर्व वन विभाग के एक कार्यक्रम में श्रोता के रूप में जाने का मौका मिला़ वहां उन्होंने पेड़-पौधों की उपयोगिता के बारे में जाना़ वापस घर लौटने के बाद तय किया वह भी पेड़-पौधे और जंगलों को बचाने के लिए प्रयास करेंगी. शुरुआत में उन्होंने अपनी जमीन में पौधे लगाये. आगे वन विभाग के तहत संचालित वन विकास प्राधिकरण के सहयोग से ‘मंझियानी घियातरी वनसमिति’ का गठन किया़ आज इस समिति के द्वारा करीब छह सौ हेक्टेयर वन क्षेत्र वन क्षेत्र के देखभाल की जिम्मेदारी निभायी जा रही है़ यह समिति नये पौधों का रोपण करने के अलावा पुराने लगे पेड़ों को बचाती भी है. वर्ष 2001 में शुरू हुआ चिंता देवी का अभियान वर्तमान में खैरा प्रखंड के कुल आठ गांवों तक फैल चुका है़ आज इन गांवों की कुल 30 अन्य महिलाएं भी चिंता देवी के इस अभियान से जुड़ चुकी हैं. वन विभाग के अलावा कुछ निजी संस्थानों द्वारा भी इन महिलाओं को पौधे उपलब्ध करवाये जाते है़ं इसके अलावा जंगलों में उगे छोटे-छोटे पौधों को भी ये महिलाएं अपने घर की नर्सरी में तैयार करती हैं और फिर उन्हें जंगलों में ले जाकर रोप देती हैं. अब तक चिंता देवी अपने महिला समूह के साथ मिल कर करीब दो लाख पेड़ लगा चुकी हैं. उन्हें इस कार्य में अपने परिवार के साथ-साथ गांववालों का भी भरपूर सहयोग मिला है, पर राज्य सरकार की नजर इन पर अब तक नहीं पड़ी है़.
इनपुट : सुरभि डेस्क
मैंग्रोव वन ने वापस दी चार हजार फीट जमीन
पिछले नौ वर्षों में इन महिलाओं द्वारा लगाये गये लाखों पौधे अब बड़े जंगल में तब्दील हो चुके हैं. अपने घर के नजदीक बने बांध को दिखाते हुए सलीमा लश्कर बताती हैं- ”पहले नदी बांध से सटा हुआ था, लेकिन अब यह हमारे घरों से चार हजार फीट पीछे लौट गयी है. यह चार हजार फीट जमीन हमें मैंग्रोव के वन के कारण ही मिल सकी है. पहले, हर साल कम से कम दो-तीन बार बांध टूट जाता और घरों तक पानी चला आता था. हमलोग बच्चों को लेकर स्कूलों की तरफ भागते, लेकिन मैंग्रोव के जंगल तैयार होने के बाद कभी बांध नहीं टूटा. यहां तक कि नवंबर में जब बुलबुल तूफान आया था, तब भी हमें बहुत कम नुकसान हुआ.”
जानकारों की मानें, तो मैंग्रोव जंगल उन्हीं जगहों पर होते हैं, जहां अक्सर ज्वार और भाटा आता हो. जब ज्वार आता है, तो पानी के साथ मिट्टी भी आती है. मैन्ग्रोव की जड़ें काफी सघन होती हैं, जो मिट्टी को रोक लेती हैं. जंगल का विस्तार होने से जमीन का दायरा फैला है. साथ ही मछलियां और केकड़ों की आमद भी बढ़ गयी है, जिससे लोगों की कमाई का जरिया सुरक्षित हुआ है. बढ़ते जलस्तर और मिट्टी के क्षरण से कभी अपने वजूद को लेकर खौफ में रहने वाले लोग अब इन चुनौतियों को मात दे रहे हैं और इनका झंडाबरदार आधी आबादी है.