II उर्मिला कोरी II
फिल्म : पिंक
निर्देशक : अनिरुद्ध रॉय चौधरी
निर्माता : शूजीत सरकार
कलाकार : अमिताभ बच्चन, तापसी पन्नू, कीर्ति कुल्हारी ,एंड्रिया तेरियांग, अंगद बेदी, पीयूष मिश्रा और अन्य
रेटिंग: 4 स्टार
‘विक्की डोनर’, ‘मद्रास कैफ़े’ और ‘पीकू’ जैसी सशक्त विषयों वाली फिल्मों के निर्माता निर्देशक शूजीत सरकार इस बार निर्माता की एकल जिम्मेदारी को फिल्म ‘पिंक’ से निभा रहे हैं. ‘अनुरणन’ और ‘अंतहीन’ जैसी राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित फिल्में निर्देशित कर चुके अनिरुद्ध रॉय चौधरी ने निर्देशन की बीड़ा उठाया है और फिल्म में अभिनेता के तौर पर महानायक अमिताभ बच्चन का साथ मिला है और इस प्रतिभाशाली तिगड़ी ने मिलकर ‘पिंक’ को ख़ास बना दिया है.
फिल्म मनोरंजन के सीमित दायरे में नहीं है बल्कि एक सोच लिए है. फिल्म समाज में मौजूद लड़के-लड़कियों के प्रति चल रही भिन्न मान्यमताओं की विसंगति को सशक्त ढंग से उजागर करती है. फिल्म की कहानी दिल्ली की है. जहाँ तीन काम काजी लड़कियां एक साथ रहती हैं. मीनल अरोड़ा(तापसी पन्नू), फलक अली (कीर्ति कुल्हाड़ी) एंड्रिया तेरियांग (एंड्रिया तेरियांग) की है तीनो ज़िन्दगी अपनी शर्तों पर जीती है.
अचानक एक रात पार्टी के दौरान जब उनकी मुलाकात राजवीर (अंगद बेदी) और उसके दोस्तों से होती है. रातों रात कुछ ऐसा हो जाता है कि मीनल की राजवीर से झड़प हो जाती है. वह राजवीर के सर पर बोतल मार देती हैं वहीं से असल कहानी बहुत सारे ट्विस्ट और टर्न्स शुरू हो जाते हैं. कहानी तब और रोचक बन जाती है जब कहानी में वकील दीपक सहगल (अमिताभ बच्चन) की एंट्री होती है. तीनों लड़कियों को कोर्ट जाना पड़ता है और उनके वकील के रूप में दीपक उनका केस लड़ते हैं.
कोर्ट रूम में वाद-विवाद का एक दौर शुरू होता है फिल्म राजवीर और उसके दोस्तों की सोच पर ही नहीं बल्कि पूरे समाज की सोच पर सवालिया निशान लगाती है. किस तरह हमारी सोच अब भी दकियानूसी है किस तरह हमने लड़कियों पर पाबंदियां लगा रखी हैं. मॉडर्न कपडे पहनना, ड्रिंक करना और पार्टियों में जाने वाली लड़कियों को वही पुरुष बदचलन कहते हैं, जो खुद ये सब करते हैं.
उन लड़कों पर तंज करते हैं जो खुद को प्रोग्रेसिव सोच का जताते हैं लेकिन असल में किसी लड़की देखकर उसके कपड़ों के आधार पर उसे पटेगी वाली कैटेगरी में रखते हैं. एक लड़की की ना का मतलब अमिताभ के किरदार द्वारा जिस तरह परिभाषित किया गया है वह फिल्म के खत्म हो जाने के बाद भी जेहन में रह जाता है फिल्म में नार्थ ईस्ट की लड़कियों के साथ आये दिन हो रहे छेड छाड़ को भी जोड़ा गया है.
फिल्म आपको ‘नो वन किल्ड जेसिका’ और फिल्म ‘दामिनी’ की याद दिलाती है. फिल्म में रहस्य को परदे पर परिभाषित करने का अंदाज़ फिल्म कहानी की तरह है. फिल्म की स्क्रिप्ट आपको झकझोरती है और आपके जेहन में एक सवाल उठाती है. निर्देशन उम्दा है पूरी फिल्म से आप आखिर तक जुड़े रहते हैं. दृश्यों का संयोजन कहानी को ख़ास बना जाता है. मीनल जब एफआईआर दर्ज करवाती या फिर जब वह बालकनी में अपने अंडर गारमेंट्स को सुखाती है.
अभिनय की बात करे तो तापसी पन्नू और कीर्ति कुल्हारी के सहज अभिनय से आप पूरी फिल्म में उनसे कनेक्ट कर पाते हैं. पीयूष मिश्रा ने भी उम्दा एक्टिंग की है, अमिताभ बच्चन ने एक बार फिर साबित किया है कि उन्हें महानायक क्यों कहा जाता है किरदार में खुद को ढालने का फन उन्हें खूब आता है. उनकी संवाद अदाएगी भी सीन के अनुरूप बदलती नज़र आयी है. एंड्रिया तेरियांग, अंगद बेदी, विजय वर्मा और बाकी सह कलाकारों का काम भी अच्छा है.
फिल्म की स्क्रिप्ट जितनी सशक्त है उतनी ही बेहतरीन कलाकारों के अभिनय का उसको साथ मिला है. फिल्म के संगीत की बात करें तो वह फिल्म की कहानी की तरह ही प्रभावशाली बना है’. फिल्म के संवाद उम्दा है जो कहानी को और ज़्यादा प्रभावी बना देते हैं. पुरुषों और समाज की सामंती सोच पर हर वाक्य बखूबी कटाक्ष करता है. फिल्म के दूसरे पहलु भी अच्छे हैं. कुलमिलाकर पावरफुल स्क्रिप्ट और उम्दा अभिनय से सजी यह फिल्म ज़रूर देखनी चाहिए.