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कैसे हों नये विश्वविद्यालय?

-हरिवंश- भारत में उच्च शिक्षा जड़ हो गयी है. उसमें से कुछ नया नहीं उपज रहा. अगर कुछ सफलता मिली भी है, तो वह पश्चिम के रास्ते चल कर मिली है. भारतीय चिंतन व मूल्य उसमें नहीं हैं. वरिष्ठ पत्रकार और राज्यसभा सांसद हरिवंश ने इस विषय में अपने विचार, राज्यसभा में (नवंबर-दिसंबर 2014) केंद्रीय […]

-हरिवंश-

भारत में उच्च शिक्षा जड़ हो गयी है. उसमें से कुछ नया नहीं उपज रहा. अगर कुछ सफलता मिली भी है, तो वह पश्चिम के रास्ते चल कर मिली है. भारतीय चिंतन व मूल्य उसमें नहीं हैं. वरिष्ठ पत्रकार और राज्यसभा सांसद हरिवंश ने इस विषय में अपने विचार, राज्यसभा में (नवंबर-दिसंबर 2014) केंद्रीय विश्वविद्यालय संशोधन बिल के समय रखने के लिए तैयार किये थे. कम समय के कारण पूरी बातें नहीं रखी जा सकी थीं, यहां हम उन्हें पूरा प्रकाशित कर रहे हैं.

राज्यसभा के माननीय उपसभापति के प्रति आभार. इस विषय पर बोलने का मौका देने के लिए. एक संशोधन प्रस्ताव के साथ इस बिल के समर्थन में अपना विचार रखना चाहूंगा. जयराम रमेश जी ने इसकी पृष्ठभूमि पर शुरू में ही अपनी बात सदन में रखी. यह महत्वपूर्ण तथ्य है. मैं पुन: उल्लेख करना चाहता हूं कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी, मोतिहारी में केंद्रीय विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए शुरू से ही कोशिश करते रहे. तत्कालीन केंद्र सरकार और तत्कालीन केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल को सहमत होने में समय लगा. इसके पीछे की दृष्टि मोतिहारी में एक और केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाना नहीं था.

बिहार में सत्ता संभालते ही उन्होंने कोशिश की, बिहार में नालंदा विश्वविद्यालय पुन: बने. उसके पीछे परिकल्पना महज संस्थाओं का ढांचा खड़ा करना नहीं, बल्कि शिक्षा के सर्वश्रेष्ठ केंद्र बिहार में रहें, बिहार पुन: दुनिया को अपने ज्ञान से आलोकित करे, यह एहसास रहा. पर तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री ने केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना की घोषणा की, गया में. आज ये दोनों केंद्रीय विश्वविद्यालय बिहार में बन रहे हैं. पर ये सिर्फ बिहार में बननेवाले महज दो केंद्रीय विश्वविद्यालय नहीं हैं. एक महात्मा गांधी के नाम पर है. महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय चंपारण. दूसरा दक्षिण बिहार में है, जिसका नाम रखा गया है, दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय.

इस विश्वविद्यालय के नाम में संशोधन के लिए सदन के वरिष्ठ सदस्य माननीय दिग्विजय जी व अनिल सहनी जी के साथ एक संशोधन पत्र मैंने दिया है. गया, जिसके बारे में दुनिया जानती है कि यह बुद्ध के ज्ञान की धरती रही है. बुद्ध के ज्ञान की धरती पर शिक्षा का यह नया दीप होगा. अगर बुद्ध के नाम से यह संस्था जुड़े, तो इस संस्था का गौरव और बढ़ेगा. बहुत पहले 50-60 के दशक में एडविन आरनल्ड ने द लाइट आफ एशिया पुस्तक लिखी थी. आज मौका है कि यह विश्वविद्यालय ‘द लाइट आफ वर्ल्ड’ बने, यह हमारा प्रयास हो. चंपारण, 1916 में गांधी की कर्मभूमि रही. गांधी अपने प्रयोग से वहीं महात्मा बने.

गांधी, जिनके बारे में आइंस्टीन ने कहा कि आनेवाली पीढ़ियां शायद ही यकीन करें कि हाड़- मांस का ऐसा पुतला हमारे बीच रहा है. उस व्यक्ति के नाम पर यह विश्वविद्यालय बनाने की मांग, बिहार ने की. आज इस अवसर पर यह सवाल हम सबके मन में उठना स्वाभाविक है कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों की जरूरत क्यों है? यानी उच्च शिक्षा का उद्देश्य क्या है? आजकल ग्लोबल रैंकिंग होती है. यानी विश्वस्तर पर हमारी संस्थाओं की रैंकिंग होती है कि वे कहां खड़ी हैं? उनकी स्थिति कैसी है? दरअसल, हम भूल गये हैं. 1964-66 में कोठारी कमीशन ने माना कि जो नयी दुनिया विकसित हो रही है, वह विज्ञान और तकनीक पर आधारित होगी.

इस नयी दुनिया में शिक्षा से ही संपन्नता, सुरक्षा और भलाई (वेलफेयर) की स्थिति बनेगी. शिक्षा ऐसी हो, जो हमारी सामाजिक ताकत बढ़ाये. जो हमारी आर्थिक शक्ति बढ़ाये. जो राष्ट्रीय एकता को मजबूत करे. याद करिए, 60 के दशक में हमारे यहां नवनिर्माण का आंदोलन चल रहा था. पंडित नेहरू ‘नये मंदिर, मसजिद और गिरिजाघरों’ के निर्माण में लगे थे. यह उनका मशहूर मुहावरा था, जिसे वो नये कल- कारखानों, नहर वगैरह के लिए प्रयोग करते थे. इन्हें आधुनिक इबादतगाहों की संज्ञा दी. तब इन कामों को बढ़ाने के लिए विदेशी विशेषज्ञ बड़े पैमाने पर भारत में आ रहे थे.

तब भारत की आकांक्षा थी कि इन विदेशी विशेषज्ञों को भारतीय कैसे रिप्लेस करें? उनकी जगह कैसे भारतीय काम करें? हम विशेषज्ञ तैयार करें. तकनीकी शिक्षा दें. प्रतिभाओं को तैयार करें. आज हम शिक्षा भी दे रहे हैं, लोगों को तैयार भी कर रहे हैं, पर हम एक पल गौर करें कि आज हालात कैसे हैं? आज भारतीय शिक्षा पद्धति (ग्लोबल चेन ऑफ एजुकेशन में), दुनिया स्तर पर शिक्षा के चेन का हिस्सा भर है. उसमें भारत, उच्च शिक्षा का आरंभिक उत्पादक रह गया है. आज भारत के आइआइटी, आइआइएम से प्रतिभावान छात्र निकल रहे हैं. उच्च शिक्षा पाकर. लेकिन वो भारत में ठहर नहीं रहे हैं.

ये अच्छे विशेषज्ञ निकल कर दुनिया के दूसरे विकसित देशों में जाकर, उनकी समृद्धि-बेहतरी के लिए काम कर रहे हैं. मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा. आज एपल कंप्यूटर कंपनी में बेसिक (मूल) चीजें ही अमेरिका बनाता है. कुछ चीजें जापान, ताइवान से आती हैं. इनकी एसेम्बलिंग (अंतिम रूप दिया जाना) चीन में होती है. अगर सौ डॉलर की सामग्री अमेरिका में बनती है, तो उसमें बमुश्किल दो डॉलर का काम चीन में होता है. लो-लेवल कंपोनेंट असेम्बलिंग होती है. यानी इनोवेशन का मुख्य काम अभी भी अमेरिका कर रहा है. हमारे यहां साठ के दशक में सपना देखा गया कि शिक्षा ऐसी हो, जो हमारी सामाजिक शक्ति बढ़ाये, हमारी आर्थिक शक्ति बढ़ाये. कैसे? बिना इनोवेशन के आज की दुनिया को आप बदल नहीं सकते. यह काम हमारे ही शिक्षण संस्थानों से निकले लोग बेहतर तरीके से अमेरिका में कर रहे हैं. इसलिए आप गौर करें कि साठ के दशक में हम ब्रेनड्रेन से परेशान थे कि हमारे अच्छे पढ़े-लिखे लोग विदेश चले जाते थे.

पश्चिम के देशों में जाते थे. आज भी जा रहे हैं. आज बड़े पैमाने पर कहा जाता है कि हम अपनी शिक्षा से जो बच्चे पैदा कर रहे हैं, वो क्या कर रहे हैं? साइबर कुली का काम. शिक्षा व्यवसाय बन गयी है. तक्षशिला और नालंदा, दुनिया के ज्ञान केंद्र कैसे बने? उनमें शिक्षा व्यवसाय नहीं थी. शिक्षक और छात्रों के बीच एक रिश्ता था, ज्ञान की खोज का. मनुष्य होने का. दुनिया के होने का अर्थ तलाशने का. हम गौर करें कि जब हमारे पास संसाधन नहीं थे, हमारे पास संपदा नहीं थी, हमारे पास इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं था, हमारे पास अच्छी इमारतें नहीं थीं, पैसे का अभाव था, तब 60 वर्षों पहले प्रो सी वी रमण, प्रो मेघनाथ शाहा, प्रो जगदीश चंद्र बसु जैसे लोग हुए. आज हमारे पास संसाधन हैं, लेकिन आज ऐसे कितने लोगों को हमारे संस्थान पैदा कर रहे हैं? कितने नोबल पुरस्कार विद्वान हम पैदा कर रहे हैं? आज की दुनिया ग्लोबल इकॉनमी हो गयी, यह यथार्थ है. हम इतिहास की धारा को पसंद करें, न करें. लेकिन पलट नहीं सकते. इस ग्लोबल वर्ल्ड में नालेज बेस्ड सोसाइटी यानी ज्ञान आधारित समाज बन रहा है. यह अर्थव्यवस्था, नालेज इकॉनमी कही जा रही है. पर इस दौर में हमारे उच्च शिक्षण संस्थानों में से कैसे लोग निकल रहे हैं?

अभी कुछ दिनों पहले एक बड़े राष्ट्रीयकृत बैंक के अधिकारी ने बताया कि उनके यहां 22,000 क्लर्क की वैकेंसी का विज्ञापन निकला. 60 लाख आवेदन आये. 25 लाख आवेदनों पर उन्होंने काम करना शुरू किया. छांट कर. इनमें सब हाइली एडुकेटेड यानी इंजीनियरिंग, एमबीए और पीएचडी कर चुके लोगों ने आवेदन किया था. क्या हमारी उच्च शिक्षण संस्थाएं, थोक भाव में ऐसे लोग पैदा कर रही हैं, जो क्लर्क बनें? भारत के शिक्षण संस्थानों से निकलनेवाले इंजीनियरिंग और आइआइएम के ग्रेजुएट्स के बारे में दुनिया की एक मशहूर एजेंसी ने कुछ दिनों पहले कहा था कि इन संस्थानों से निकलनेवालों में 70 फीसदी ऐसे हैं, जो अनइंप्लायबुल (नौकरी के अयोग्य) हैं. आज थोक रूप में पीएचडी के छात्र निकल रहे हैं.

पर पीएचडी किये लोग कैसे हैं? उनमें कितनी मौलिकता होती है? यह आप पता कर सकते हैं. हमारे यहां विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा का ध्येय क्या हो, यह तय नहीं है. शिक्षा जीवन को तराशती है, इसका बोध हमें नहीं है. शिक्षा का महत्व, आजादी की लड़ाई लड़नेवाले हमारे उन महापुरुषों ने, उन दूरद्रष्टाओं ने, ऋषि परंपरा के उन राजनेताओं ने क्या माना था? मैं काशी विद्यापीठ का उल्लेख करना चाहूंगा, जिसे आज बहुत कम लोग जानते होंगे. देश में देशज ढंग की शिक्षा हो, देसी मूल्यों की शिक्षा हो, महात्मा गांधी ने इसकी परिकल्पना की. इसलिए बनारस में काशी विद्यापीठ बना. काशी विद्यापीठ, जिससे आचार्य भगवानदास जुड़े थे. उन्हें देशरत्न आचार्य भगवानदास कहना ठीक होगा. शुरू -शुरू में जब देशरत्न की पदवी मिलनी शुरू हुई, तब उन्हें यह सम्मान मिला था. उनका भाषण पढ़ रहा था. काशी विद्यापीठ के दीक्षांत समारोह में देश के एक से बढ़ कर एक दिग्गज पहुंचे.

जवाहरलाल जी से लेकर आचार्य नरेंद्रदेव, संपूर्णानंद जी, जयप्रकाश नारायण, इंदिराजी जैसे बड़े नेता दीक्षांत समारोहों में गये. आचार्य भगवानदास भी एक बार दीक्षांत समारोह में छात्रों के उद्बोधन के लिए गये. काशी विद्यापीठ में उन्होंने शिक्षा के महत्व पर जो भाषण दिया, वह अद्भुत है. शिक्षा का अर्थ क्या है, इससे बढ़िया और स्पष्ट विचार मुझे कहीं और देखने को नहीं मिला.

इस देश की नियति तय करनेवाले हर व्यक्ति को वह भाषण पढ़ना चाहिए. हर विश्वविद्यालय में यह अनिवार्य होना चाहिए. हर छात्र के लिए यह अनिवार्य होना चाहिए. ताकि वे समझें कि शिक्षा का मर्म क्या है? उस विश्वविद्यालय की परिकल्पना कैसी थी? वहां के विचार कैसे थे? तब मामूली सुविधाओं के बीच चलनेवाले काशी विद्या पीठ ने कैसे लोगों को पैदा किया? लालबहादुर शास्त्री, रामसुभग सिंह, भोला पासवान शास्त्री वगैरह. इस तरह के अनेक छात्र वहां से निकले, जिन्होंने राजनीतिक जीवन में एक रोशनी के रूप में काम किया. मैं ‘अमूल’ के कुरियन का संस्मरण पढ़ रहा था. लालबहादुर शास्त्री जी, प्रधानमंत्री के रूप में गुजरात गये और अमूल इलाके के गांव के एक दलित के घर रात में ठहरे. सब सुरक्षा छोड़ कर.

अकेले. वह पढ़ कर रोमांच होता है कि वह रात भर कैसे रहे? क्या बातें कीं. प्रचार से दूर. फिर उन्हें उस गांव जो अनुभव हुए, उसके आधार पर हालात बदलने की कोशिश की. यह चरित्र अब कहां पैदा होता है? यह चरित्र वैसे संस्थानों में पैदा होता है, जिसमें आचार्य भगवानदास, आचार्य नरेंद्र देव और संपूर्णानंद जैसे लोग होते हैं. अपने विचार रखते हैं. आज हम किस तरह के लोग पैदा कर रहे हैं? अभी भारतीय जनता पार्टी के एक सांसद का विचार पढ़ा.

वह लोकसभा चुनाव की घोषणा के पहले तक घोर कांग्रेसी थे. कांग्रेस में वह लंबे समय तक रहे. उन्होंने मौजूदा प्रधानमंत्री को विवेकानंद कहा. मुझे इस पर आपत्ति नहीं है, क्योंकि हर व्यक्ति के अपने निजी विचार हैं. लेकिन मैं 1984-87 का दौर याद दिलाना चाहूंगा. तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को, उनके तत्कालीन मंत्रिमंडल के सबसे वरिष्ठ सहयोगी ने कानपुर में विवेकानंद.. उगता सूरज कहा. फिर कुछ ही दिनों बाद वही सहयोगी, राजीव गांधी के विद्रोही हो गये और राजीव गांधी को भ्रष्ट, जनद्रोही कहने लगे. यह कैसा चरित्र है? हमारे बयानों में, हम एक पल उत्तर ध्रुव, दूसरे पल दक्षिण ध्रुव पर जा पहुंचते हैं.

अपनी सुविधानुसार बदलें, क्या यही चरित्र है? इसलिए चरित्र निर्माण करनेवाले विश्वविद्यालय बनें. कोई भी विद्यालय या विश्वविद्यालय, जो महात्मा गांधी के नाम से जुड़ा हो या महात्मा बुद्ध की धरती से जुड़ा हो, उसका मकसद, उसका सपना, उसका उद्देश्य तो ऐसा होना चाहिए, जहां से ऐसे छात्र निकलें, जो दुनिया में बुद्ध और गांधी के विचारों के प्रतिबिंब बन सकें. यह सवाल मन में उठना स्वाभाविक है कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों का मकसद क्या है?

केंद्रीय विश्वविद्यालयों की जब परिकल्पना हुई, तब माना गया कि देश के जो पिछड़े क्षेत्र हैं या जो पीछे छूट गये राज्य हैं या जहां शिक्षा के बेहतर केंद्र या सेंटर ऑफ एक्सेलेंस नहीं हैं या जिन राज्यों के पास आर्थिक संसाधन नहीं हैं, उनको केंद्र सरकार अपने संसाधनों से ऐसा ढांचा बना कर दे, जिससे वे विश्वविद्यालय सेंटर ऑफ एक्सेलेंस यानी उत्कृष्ट संस्थान हों. आसपास के समाज से जुड़ें. उद्योग-धंधों से जुड़ें. उस इलाके से जुड़ कर इनोवेशन का काम करें और उस इलाके की तकदीर बदलें. विचार बदलें. इसके लिए कल्पना की गयी कि ऐसे शिक्षण केंद्रों को पूंजी केंद्र सरकार देगी. दुनिया की इन दो विभूतियों के नाम से जुड़ी धरती, चंपारण व गया में केंद्रीय विश्वविद्यालय बन रहे हैं. पर हमने उसके लिए पूंजी क्या रखी है? 2009 में केंद्रीय विश्वविद्यालय अधिनियम बना, उस वक्त 240 करोड़ की पूंजी रखी गयी. 2012 में केंद्रीय विश्वविद्यालय संशोधन विधेयक आया, उसमें भी यह पूंजी 240 करोड़ रखी गयी.

2014 में केंद्रीय विश्वविद्यालय संशोधन विधेयक आया, जिसे हम पास कर रहे हैं, उसमें भी इन दो विश्वविद्यालयों के बनाने में 240 करोड़ रुपये का प्रावधान रखा गया है. 2009, 2012 और अब 2014 में वही 240 करोड़ की राशि और दो नये विश्वविद्यालयों का गठन. यानी आज 2014 में मूल्य वृद्धि की दृष्टि से क्या स्थिति है? बजट आवंटन में हम इसका भी ध्यान हम नहीं रख पाये हैं. मुद्रास्फीति की क्या स्थिति रही है, यह भी हम भूल गये हैं. हम अगर महात्मा गांधी और बुद्ध के नाम पर विश्वविद्यालय बनाना चाहते हैं, तो हमें उस अनुरूप पूंजी लगानी चाहिए.

पूंजी कहां से आयेगी, इस पर भी मेरा एक सुझाव है. आज भारत के बड़े उद्योगपति या बड़े कारपोरेट घराने अमेरिका में या दुनिया के दूसरे देशों में, जहां से उन्होंने शिक्षा ग्रहण की है, वहां वे अपने घराने के नाम पर या अपने घराने से जुड़े संस्थापकों के नाम पर चेयर स्थापित कर रहे हैं या केंद्र खोल रहे हैं. खोलें, यह कोई आपत्ति का विषय नहीं है. पर जिस देश में रह कर वे समृद्ध बने, उस देश की शिक्षण संस्थाओं में, जो महात्मा गांधी और बुद्ध के नाम से जुड़ी हों, उनमें वे पैसा लगायें. इसके लिए केंद्र सरकार को पहल करनी चाहिए.

एक खबर पढ़ी थी कि हिंदुस्तान में जो सबसे गरीब 10 लोग हैं, उनके पास देश की कुल संपत्ति का मात्र 0.2 है. यह वर्ष 2014 का आंकड़ा है (स्रोत- 08.12.2014, द हिंदू). देश के 10 टॉप लोगों के पास देश की कुल संपदा का 74 है. देश के टॉप 1 जो लोग हैं, उनके पास भारत की कुल संपदा का 49 है. याद रखिए, कि भारत में ऊपर के जो 10 लोग हैं, उनके पास देश की कुल संपदा का 74 है. ऊपर के जो 5 हैं, उसके पास 65.5 संपदा है और ऊपर के जो 1 सुपर रिच हैं, उनके पास 49 संपदा है.

उनकी संपदा बढ़ी कब? वर्ष 2000 से 2014 के बीच यानी पिछले 14 वर्षों में. इस बीच एक और रिपोर्ट (दिसंबर 2014 में ही) आयी है, जीएफआइ (अंतरराष्ट्रीय रिसर्च फर्म है, ग्लोबल फाइनेंशियल इंटेग्रिटी) की. इस सालाना रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2003 से 2012 के बीच (दस सालों में) भारत से लगभग 25 लाख करोड़ रुपये अवैध रूप से बाहर जा चुके हैं. कांग्रेस के लोग, जिनके राज में यह सब हुआ, वह भी नैतिक प्रभाव डाल सकते हैं, इन पैसेवालों पर कि उनके कार्यकाल में संपदा इतनी बढ़ी है और आप विदेशी विश्वविद्यालयों में अपने घराने के मालिकों के नाम पर चेयर (केंद्र) स्थापित कर रहे हैं. करें, पर भारत, जहां से आपने अपनी संपदा अर्जित की है, वहां के शिक्षण संस्थानों में भी आप पैसे लगायें.

इसलिए सरकार चाहे, तो आग्रह या दबाव बना कर धन इकट्ठा कर सकती है. क्या महात्मा गांधी और भगवान बुद्ध के नाम पर बननेवाले विश्वविद्यालय, महज एक केंद्रीय विश्वविद्यालय के रूप में ही होंगे? या कुछ अलग होंगे? मुझसे पूछें, तो गांधी के नाम पर विश्वविद्यालय, दुनिया को रोशनी दिखानेवाला एक केंद्र होना चाहिए. मोतिहारी का आंदोलन, दुनिया में मनुष्य की मुक्ति की नयी लड़ाई के रूप में अगर दर्ज है, तो वहां बननेवाला विश्वविद्यालय, जो गांधी के नाम से जुड़ा होगा, वह भी एक नयी दृष्टि का केंद्र बने. दुनिया के स्तर पर.

वहां से निकले विचार या शोध या अध्ययन या ज्ञान दुनिया को प्रभावित करें? गांधी से एक बार लोगों ने पूछा कि जब भारत आजाद होगा, तो आपके विकास का रास्ता क्या होगा? गांधी ने कहा, ब्रिटेन जैसा विकास या वहां की अर्थनीति का अनुपालन तो संभव ही नहीं है. क्योंकि ब्रिटेन को विकास का यह स्तर पाने के लिए या इस समृद्धि के लिए उसे दुनिया के न जाने कितने मुल्कों को गुलाम बनाना पड़ा. ब्रिटेन की समृद्धि या विकास दुनिया के आधे से अधिक प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है. अगर भारत इसी रास्ते चला, तो उसको न जाने कितने नये नक्षत्र-ग्रह चाहिए, गुलाम बनने के लिए, ताकि भारत, ब्रिटेन जैसा आर्थिक संसाधन इकट्ठा कर सके.

फिर ब्रिटेन की तरह समृद्ध बन सके. ब्रिटेन का आर्थिक विकास मॉडल, भारत के लिए अनुकरणीय है ही नहीं. इसलिए गांधी ने एक नये विकास की परिकल्पना की. आज जहां हम खड़े हैं, वहां स्पष्ट है कि दुनिया में पूंजीवाद संकट में है. साम्यवाद फेल कर चुका है. मार्केट इकॉनमी या ग्लोबल इकॉनमी का जो नया दौर चला, वह भी संकट में है. 2014 अक्तूबर में, अमेरिका में आयोजित आइएमएफ की बैठक में दुनिया के वित्त मंत्री और केंद्रीय बैंकों के नीति-निर्माता उपस्थित थे. उन्होंने माना कि अर्थव्यवस्था को तेज गति से आगे ले जाने का अब कोई रास्ता दिखायी नहीं दे रहा है. मौजूदा बाजारवादी आर्थिक मॉडल विफल हो रहा है.

भारत के रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने यहां तक कहा कि अब हमें अपने राजनेताओं से कहना चाहिए कि हमें जितने उपाय करने थे, यानी मौद्रिक उपाय या अन्य नीतिगत आर्थिक उपाय, वह हमने कर लिये. अब आगे रास्ता नहीं दिखायी देता. दुनिया में तकनीक ने बड़ी आकांक्षाएं पैदा कर दी हैं, जिसके लिए तेज आर्थिक विकास की जरूरत है. लोग चाहते हैं कि बड़े पैमाने पर रोजगार पैदा हो. पर वह हम पैदा नहीं कर पा रहे हैं. यूरोप संकट में है. पश्चिम तेजी से बढ़ नहीं रहा. यानी जब आर्थिक विकास का मौजूदा पश्चिमी बाजारवादी मॉडल विफल है, तब गांधी के नाम पर कोई विश्वविद्यालय बने और गांधी के विकास की परिकल्पना की चर्चा न हो, यह कैसे संभव है.

अगर हम आर्थिक विकास की गांधी की परिकल्पना करें और गांधी के अनुयायी प्रो जे सी कुमारप्पा, जिन्होंने गांधीवादी आर्थिक मॉडल की परिकल्पना को आगे बढ़ाया, जिन्होंने कैपिटलिज्म, सोशलिज्म एंड विलेजिज्म किताब लिखी. इन सब चीजों पर आज की दुनिया के संदर्भ में हम नये ढंग से विचार करें, तो गांधी के नाम का यह शिक्षा केंद्र दुनिया में अपनी जगह बना सकेगा? प्रोफेसर शुमाकर ने चर्चित पुस्तक लिखी, स्माल इज ब्यूटीफुल.

जयप्रकाश नारायण ने बनारस में एक संस्था बनायी, गांधीयन इंस्टिट्यूट. इसमें आकर प्रो शुमाकर ने यह विचार रखा था. विकास के संदर्भ में एप्रोपिएट टेक्नोलॉजी की चर्चा शुरू हुई. क्या हम ऐसा केंद्र नहीं बना सकते, जहां से विकास, राजनीति, शिक्षा सब क्षेत्रों में मौलिक और नये विचार निकलें? इसी तरह बुद्ध से जुड़ी जगह, गया में केंद्रीय विश्वविद्यालय खुल रहा है. मशहूर इतिहासकार प्रोफेसर अर्नाल्ड टायनबी ने कहा था, तब जबकि भारत और चीन अपनी मुक्ति की लड़ाई या आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे, कि एक नयी सभ्यता पूरब से निकलेगी, जो पश्चिम की संकटग्रस्त सभ्यता के लिए मार्गदर्शक बनेगी. उनका आशय भारत-चीन से था. हम समृद्ध जरूर हो रहे हैं, पर पश्चिम के रास्ते पर चल कर. वही विकास मॉडल अपना कर.

गांधी की परिकल्पना का जो विकास था, जिसमें महज भौतिक संपदा की प्रधानता नहीं थी, उसको आज हमने खत्म कर दिया है. अब हमारी कोशिश हो कि बुद्ध के नाम पर बननेवाला केंद्रीय विश्वविद्यालय, महज एक आइलैंड बन कर न रह जाये. देश में उच्च शिक्षण संस्थाओं के अन्य केंद्र हैं, पर वहां क्वालिटी एजुकेशन नहीं है. अच्छे प्राध्यापक नहीं है. प्रोफेसरों के पद खाली हैं. हेड आफ इंस्टीट्यूशन ऐसे लोग रखे जाते हैं, जिनकी इंटीग्रिटी पर सवाल उठता है. इस हाउस की चर्चा में बताया गया कि कैसे-कैसे लोग, जिनकी शिक्षा में वो बौद्धिक- तेजस्विता नहीं, जिनकी विद्वता नहीं, वह इस पद पर पहुंचते रहे हैं. क्या हम इस रास्ते इन संस्थाओं का प्रमुख राजनीतिक प्रभाव-असर के आधार पर बना कर, अच्छे विश्वविद्यालय बना पायेंगे, जहां से वैसे संकल्प और विचारवाले लोग निकल पायें, जो दुनिया की रहनुमाई करें? दरअसल, इन दोनों महापुरुषों (बुद्ध और गांधी) के नाम पर आज दुनिया फख्र करती है. इन्होंने दुनिया या मनुष्य को बेहतर होने का संदेश दिया.

हर इंसान आज भी संकट के समय, इन दोनों लोगों से निजी प्रेरणा ग्रहण करता है. इनके नाम पर विश्वविद्यालय बने, यह बड़ी बात है. इससे इन विश्वविद्यालयों का गौरव बढ़ेगा. महात्मा गांधी, जिन्होंने अहिंसा, सद्भाव, आपसी समन्वय की परिकल्पना की और बुद्ध, जिन्होंने करुणा का संदेश दिया. अगर ऐसे महापुरुषों के नाम पर हम कोई विश्वविद्यालय या शिक्षा केंद्र खड़ा करते हैं, तो महज वो बिहार की धरती पर बननेवाले दो केंद्रीय विश्वविद्यालय नहीं होंगे. वे भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया को नयी रोशनी दिखानेवाले केंद्र बनें. यह कोशिश हम करें. महात्मा गांधी और बुद्ध के नाम से जुड़ी जगहों, उनकी तपस्थली, कर्मस्थली पर बननेवाले ये विश्वविद्यालय, आधुनिक चुनौतियों पर शोध करें और दुनिया को राह दिखायें.

अगर पिछले सात-आठ सौ वर्षों का इतिहास पलटिए, तो लगता है कि जो समाज इनोवेट करने में, खोज करने में आगे रहा, उसी ने दुनिया की रहनुमाई की है. उन खोजों में खास तौर से ऊर्जा सबसे महत्वपूर्ण रहा है. माना जाता है कि कोयले की खोज, कोयले के उपयोग, कोयले से ऊर्जा बनाने की तकनीक ने ब्रिटेन को दुनिया की महाशक्ति बना दिया. सैकड़ों साल तक उसके राज्य में सूर्यास्त नहीं हुआ. ब्रिटिश साम्राज्य खड़ा हो गया.

उसी तरह दूसरे विश्वयुद्ध के आसपास पेट्रोल उत्पादन करनेवाले क्षेत्रों पर प्रभुत्व जमा कर या उसे अपने असर में लाकर, अमेरिका दुनिया की बड़ी ताकत बन गया. अब पुन: माना जाता है कि जो देश ऊर्जा के परंपरागत स्रोतों को छोड़ कर यानी पेट्रोल और कोयला छोड़ कर नयी तकनीक खोजेंगे, वे दुनिया की नयी महाशक्ति होंगे. आज अमेरिका में बड़ी बहस चल रही है कि अमेरिका अपने सुपरपावर का यह खिताब, यह आभा कैसे और कब तक कायम रख सकता है? उसके जो भी विश्वविद्यालय संस्थान या शोध केंद्र हैं, वे लगातार नयी खोज में लगे हैं.

भारत भी नयी खोज की बदौलत ही दुनिया में जगह ढूंढ़ सकेगा. यह सही भी है, क्योंकि वे शिक्षण संस्थान, जिनमें मौलिक चीजों का शोध होता है, वे ही दुनिया को राह दिखाते हैं. मसलन, सिलिकन वैली. स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में जितने अध्ययन या प्रयोग कंप्यूटर को लेकर व अन्य चीजों को लेकर हुए, उससे इंटरनेट इकॉनमी का जन्म या नयी तकनीक का जन्म या नयी मशीनों का जन्म हुआ, जो दुनिया के इनसानों व समाज को गहराई से प्रभावित कर रहे हैं. वहां के विश्वविद्यालय आसपास के उद्योगों से जुड़ कर, उनके विकास के केंद्र बन गये हैं. हब बन गये हैं. क्या हमारे विश्वविद्यालय इस राह चलेंगे? अगर इस रास्ते चलते हैं, तो बिहार, सिर्फ भारत के लिए नहीं, पूरी दुनिया के लिए एक नया रास्ता दिखायेगा. एक जमाने में नालंदा से बौद्धिक ज्ञान, चीन में फैला.

दुनिया में फैला. जब आवागमन के साधन नहीं थे, तब जापान में फैला, कोरिया में फैला, तिब्बत गया. आज जब दुनिया ग्लोबल हो गयी है, ग्लोबल विलेज का दौर है, तब बुद्ध और गांधी के नाम से जुड़नेवाले इन संस्थानों या इन जगहों पर क्या हो कि हम पुन: पुरानी आभा को प्रज्जवलित कर सकें. यही सपना-परिकल्पना इन विश्वविद्यालयों के गठन के पीछे हो.

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