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विजय बहादुर
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जड़ों से जुड़ने की जद्दोजहद
पिछली सदी में 1960 के आसपास बलराज साहनी की एक फिल्म आयी थी दो बीघा जमीन. ये उस वक्त का आईना थी. इसमें किसान कड़ी मेहनत कर अपने छोटे भाई को पढ़ा-लिखा कर शहर में नौकरी करने भेजता है, लेकिन जब वह किसान खुद बुरे वक्त में होता है, तो शहरी भाई उसे भूल जाता है. 21वीं सदी के कोरोना संकट काल में यह उलट हो गया है. शहरी भाई शहरों में गलीज जिंदगी बसर कर अपने गांव को समृद्ध करता है और जब मुसीबत में घर लौटता है, तो गांव वाला भाई उसे दुश्मन मान बैठता है.
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सफल कौन है ?
पिछले लगभग तीन महीने में कोरोना संक्रमण के बाद इंसान के जीवन में रहन- सहन और सोचने के नजरिये में काफी बदलाव आया है. आज ये साबित हो रहा है कि किसी भी इंसान के लिए मूलभूत जरूरत पूरा करने की कीमत काफी कम है.
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आज में जीयें, कल की सोचें
बेहतरीन वक्त जो आपने गुजारा है उससे आनंदित होकर प्रेरणा लें, सिर्फ भावुकता में नहीं बहें. वर्तमान को बेहतर तरीके से जीने की कोशिश करें और आनेवाला कल कैसे बेहतर हो इसको लेकर चिंतन और योजना बनायें.
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वर्क फ्रॉम विलेज
B positive : बहुत सारी अच्छी खबरें रोजाना आजकल सुनने और पढ़ने को मिल रही हैं, जबकि सिर्फ 4 महीने पहले तक रोज ये खबरें मिलती थीं कि कैसे लोग ग्रामीण इलाकों से शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं. गांव सिकुड़ रहे हैं और शहरों का विस्तार होकर कंक्रीट के नये जंगल बन रहे हैं.
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हाशिए पर बैठा इंसान और सफलता
अपने आसपास देखिए. हर दिन मीडिया में वैसे लोगों की सफलता की कहानियां नजर आती हैं, जिन्होंने विपरीत हालात में जीवन में बेहतर मुकाम बनाया है.
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शौक जिंदा रखिए
हाल में ही उनकी एक किताब आयी है कल्पना टॉकीज ! समकालीन परिवेश में बुनी गयी यह कथा एक इंजीनियर के छात्रावासीय जीवन की अनूठी कहानी है, जिसमें मध्यमवर्गीय ग्रामीण परिवार से आये एक हिंदी भाषी लड़के की दोस्तों के साथ मस्ती, दोस्ती, प्यार, तकरार के साथ-साथ अंग्रेजी नहीं बोल पाने की कसक है. कॉलेज के एग्जाम में पास करने के बजाए जिंदगी की रेस में आगे दौड़ कर निकल जाये, वही सिकंदर है. इसकी सीख भी इसमें है.