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ट्राइ के फैसले से भारत में बनी रहेगी आजादी इंटरनेट की

इंटरनेट आधारित व्यापार और बाजार को बढ़ाने के लिए बड़ी वैश्विक कंपनियां नये-नये तरीके खोज रही हैं. इसके लिए वे अपने स्तर से तरह-तरह के प्रलोभन की भी योजना बना रही हैं और उन योजनाओं के प्रचार पर करोड़ों रुपये खर्च कर रही हैं. ऐसे माहौल में नेट न्यूट्रैलिटी के पक्ष में आया ट्राइ का […]

इंटरनेट आधारित व्यापार और बाजार को बढ़ाने के लिए बड़ी वैश्विक कंपनियां नये-नये तरीके खोज रही हैं. इसके लिए वे अपने स्तर से तरह-तरह के प्रलोभन की भी योजना बना रही हैं और उन योजनाओं के प्रचार पर करोड़ों रुपये खर्च कर रही हैं. ऐसे माहौल में नेट न्यूट्रैलिटी के पक्ष में आया ट्राइ का फैसला न केवल इंटरनेट की आजादी के लिहाज से सराहनीय है, बल्कि इस मामले में भी महत्वपूर्ण है कि ट्राइ ने बड़ी कंपनियों के दबाव में झुकने से इनकार कर दिया है.
ट्राइ के निर्णय की दुनियाभर के अखबारों में चर्चा का अर्थ है कि भारत ने एक रास्ता फिलहाल दिखा दिया है. इंटरनेट का दायरा आज हर किसी के जीवन से जुड़ चुका है. ऐसे में इंटरनेट की आजादी और गोपनीयता जैसे मुद्दों पर आपको भी सही जानकारी होनी चाहिए और सचेत रहना चाहिए. नेट न्यूट्रैलिटी से जुड़े जरूरी पहलुओं के बीच ले जा रहा है आज का नॉलेज.
धनंजय सिंह
तकनीकी मामलों के जानकार
केंद्रीय संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने पिछले दिनों बताया कि देश में करीब 40 करोड़ लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं और अगले छह से सात माह में यह संख्या 50 करोड़ से अधिक हो जायेगी. लेकिन, डिजिटल इंडिया के नारे को ध्यान में रखते हुए बात करें, तो हमें यह भी ख्याल रखना होगा कि चाहे हज का फॉर्म भरना हो या मनरेगा का जॉब कार्ड हो, किसी यूनिवर्सिटी में एडमिशन लेना हो, किसी बोर्ड का परीक्षा फॉर्म भरना हो या जमीन की खसरा-खतौनी का मामला हो, अब इंटरनेट का दखल देश के प्रत्येक नागरिक के जीवन तक हो चुका है.
किसी गांव में चाय की दुकान पर यह लेख पढ़ रहे लोगों को मालूम रहना चाहिए कि यह लेख इंटरनेट के माध्यम से ही अखबार के दफ्तर में भेजा गया. वहां से यह उन सब जगहों पर इंटरनेट से ही गया, जहां-जहां अखबार छपता है.
इस हिसाब से बात करें तो इंटरनेट के भविष्य या उसकी आजादी का मामला हर किसी से जुड़ा हुआ है, लेकिन यह जरूर सच है कि जो इसके नियमित उपयोगकर्ता नहीं हैं, उनकी रुचि इस बहस में है नहीं.
साथ ही, जिनके लिए यह अब एक जरूरत बन चुकी है, उनमें भी अधिकतर लोग इस पर चल रही बहस से दूर हैं, जो इस बात से पता चलता है कि जब दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण ने नेट न्यूट्रैलिटी पर चल रही बहस में लोगों से राय मांगी, तो मात्र चौबीस लाख के आसपास लोगों ने ही अपनी राय दी और उसमें से भी बहुत बड़ी संख्या फेसबुक की ‘फ्री बेसिक्स’ के बारे में राय देनेवालों की थी. एक तरफ तो हम बात करते हैं कि देश की बड़ी आबादी इंटरनेट से जुड़ चुकी है, दूसरी ओर इससे जुड़े महत्वपूर्ण विमर्श में भागीदारी के प्रति अपनी उदासीनता भी दिखलाते हैं.
जानें, कैसे हुआ इंटरनेट का जन्म
मानवता को प्रभावित करनेवाले तमाम आविष्कारों की तरह इंटरनेट का उदय भी एक युद्ध का ही परिणाम है. यह युद्ध अपनी सूचनाओं को सुरक्षित रखने और उनके प्रेषण में गोपनीयता बरकरार रखने का था.
सोवियत संघ ने वर्ष 1957 में अपना उपग्रह स्पुतनिक अंतरिक्ष में भेजा, जो धरती से अंतरिक्ष में जानेवाला मानव निर्मित पहला उपग्रह बना. हालांकि, उससे सोवियत संघ की जो अपेक्षाएं थीं, वह पूरी नहीं हो पायीं और अंतरिक्ष में पहुंच जाने के अलावा मिशन का कोई दूसरा लक्ष्य पूरा नहीं हो पाया. लेकिन इस प्रक्षेपण से इंटरनेट की नींव जरूर पड़ी.
सोवियत संघ की इस सफलता से भौंचक उस समय उसके प्रतिस्पर्धी समझे जानेवाले देश अमेरिका ने स्कूलों से लेकर उच्च स्तर पर विज्ञान को बढ़ावा देने की योजनाएं बनानी शुरू की. नेशनल एयरोनॉटिक्स स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) और एडवांस रिसर्च प्रोजेक्ट एजेंसी (आरपा) का गठन इसी कवायद के तहत हुआ. आरपा को ऐसे संचार तंत्र को विकसित करने की जिम्मेवारी दी गयी, जो दुश्मन के किसी भी हमले से प्रभावित न हो सके. प्रारंभिक दौर में कई प्रयोगों के बाद एक कंप्यूटर से दूसरे कंप्यूटर तक संदेश भेजने का जब प्रयोग किया गया, तो भेजा गया सबसे पहला शब्द था ‘लाॅग इन’. तब संवाद की इस नयी विधा को नाम मिला ‘आरपानेट.’ धीरे-धीरे यह तंत्र रक्षा अनुसंधान से जुड़े लोगों के दायरे से बाहर आया और इंटरनेट बन गया.
1991 में ‘वर्ल्ड वाइड वेब’ की शुरुआत
वर्ष 1991 में टिम बर्नर्स ली ने ‘वर्ल्ड वाइड वेब’ बना कर इंटरनेट को उस महाजाल में बदल दिया, जहां दुनियाभर के लोग आसानी से एकदूसरे के साथ सूचनाओं का आदान-प्रदान कर सकते थे. तब से इस माध्यम की दिशा और दशा दोनों बदल गयी और आज जन्म के 50 साल से भी अधिक समय के बाद इंटरनेट के बिना दुनिया की कल्पना करना ही मुश्किल है. धरती के सारे निवासियों तक इसकी पहुंच कैसे हो और इससे उनके जीवन में क्या बदलाव आ सकता है, उस पर बहस हो रही है.
इंटरनेट की स्वतंत्रता को समझिये
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद् ने वर्ष 2012 में इंटरनेट की आजादी को मानवाधिकारों की सूची में शामिल किया. उसी वर्ष अमेरिका में कुछ नागरिक संगठनों ने ‘इंटरनेट स्वतंत्रता का उद्घोषणा पत्र’ जारी किया. इंटरनेट की स्वतंत्रता का अर्थ है- बिना किसी भेदभाव के सबको समान गति से नेट की उपलब्धि और इस पर उपलब्ध संपूर्ण सामग्री तक बिना रोक-टोक सबकी पहुंच. कंटेंट और आर्थिक भेदभाव के बिना सबको समान अवसर मिलना.
अब पढ़ने में यह सब जितना आसान लगता है, अलग- अलग कारणों से यह मामला इतना आसान है नहीं. क्योंकि इंटरनेट की उपलब्धता और उपयोगिता के साथ ही इंटरनेट की सुविधा प्रदान करने वाली कंपनियों की व्यापारिक नीतियों के चलते अब ‘मुफ्त इंटरनेट’ और ‘तटस्थ इंटरनेट’ की बहस दूसरा रूप ले चुकी है. अमेरिका में फेडरल कम्युनिकेशंस कमीशन यानी एफसीसी और भारत में टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी (ट्राइ) को इन कंपनियों के खेल में नियामक एजेंसी का अपना किरदार निभाना पड़ा है. भारत से पहले यह मुद्दा अमेरिका और यूरोपियन यूनियन में गर्म है.
फेसबुक तक सीमित नहीं है इंटरनेट
भारत के लिए यह बहस महत्वपूर्ण क्यों है? जब फेसबुक की बड़ी अधिकारी शेरिल सैंडबर्ग ने कहा कि दुनिया के तमाम हिस्सों में इंटरनेट का मतलब ही फेसबुक है, तब उन्होंने सोचा नहीं कि वो अपनी तारीफ कर रही हैं या इंटरनेट के आम उपभोक्ताओं की नादानी का बखान कर रही हैं. अपने देश में भी तमाम ग्रामीण युवक अभी ऐसे मिल जायेंगे, जो कहते हैं कि वे इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं करते. हां, अपने मोबाइल फोन में फेसबुक चलाते हैं.
यह अनुमान है कि भारत में इंटरनेट के जितने भी उपभोक्ता हैं, उनमें 60 प्रतिशत से अधिक फोन पर ही इसका इस्तेमाल करते हैं. मई, 2010 में फेसबुक ने अफ्रीका में अपनी एक स्कीम शुरू की थी- फेसबुक जीरो और 18 महीने के भीतर पूरे महाद्वीप पर उसका कब्जा हो गया.
जिन लोगों के हालात सुधारने के नाम पर यह स्कीम शुरू हुई, उनमें से करीब 99 प्रतिशत आबादी फोन पर ही नेट का इस्तेमाल करती है और उनके लिए अब भी इंटरनेट का मतलब फेसबुक ही है. यानी यह स्कीम मोबाइल फोन बनानेवाली और दूरसंचार सेवा देनेवाली दोनों कंपनियों के लिए भारी मुनाफे की स्कीम बन गयी, क्योंकि धीरे-धीरे जीरो की जगह अब डाटा चार्ज भी लगने लगा और लोगों को इसकी आदत पड़ गयी.
भारत में इंटरनेट पर भेदभाव की इजाजत नहीं
यहां यह भी ध्यान रखने की बात है कि दूरसंचार कंपनियों को सरकार जो स्पेक्ट्रम बेचती है यानी वह संसाधन जिस पर हमारा आपका फोन काम करता है, इंटरनेट चलता है, वह राष्ट्रीय संसाधन है. सभी नागरिकों को इसके उपभोग का समान अधिकार होना चाहिए, न की कीमत के आधार पर और न ही बाजार में अपनी पकड़ के अनुसार कंपनियां इसे निर्धारित करें कि कौन, किस तरह से इसका इस्तेमाल करेगा.
साधारण शब्दों में कहें तो ट्राइ ने कहा है कि कंटेंट यानी इंटरनेट पर क्या मौजूद है और किसी ग्राहक से उसे इस्तेमाल करने के लिए कितना पैसा वसूलना है, इसके आधार पर सेवा प्रदान करनेवाली कोई भी कंपनी ग्राहकों से किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं कर सकती. इसी आधार पर नेट की सुविधा देने वाली कंपनियों की कुछ स्कीम और फेसबुक की बहुचर्चित फ्री बेसिक्स योजना पर रोक लग गयी है और भारत की यह खबर दुनियाभर के अखबारों में छप रही है. कई कंपनियों ने नये सिम के साथ कुछ मुफ्त इंटरनेट सेवाएं शुरू की थीं, जो अब बंद हो जायेंगी और फेसबुक की फ्री बेसिक्स को तो पिछले साल ही रोक दिया गया था.
फेसबुक का दोहरा रवैया
सोचिये कि जिस फेसबुक ने अमेरिका में नेट की तटस्थता की बात की थी, वह अब भी भारत में क्यों मुफ्त इंटरनेट देने की अपनी योजना से पीछे न हटने की बात कर रहा है? पहले फेसबुक ने ‘इंटरनेट डॉट ओआरजी’ नाम से स्कीम बनायी, जो दुनिया के लगभग 38 देशों में गरीबों तक मुफ्त इंटरनेट देने की बात करती है. लेकिन, इस योजना पर जब इंटरनेट की आजादी के लिए काम करनेवालों ने सवाल उठाने शुरू कर दिये, तब उसे नाम दे दिया गया ‘फ्री बेसिक्स.’
देश के अखबारों में और टेलीविजन चैनलों पर फेसबुक के विज्ञापन आने लगे, जिसमें इंटरनेट से वंचित लोगों तक मुफ्त में इंटरनेट पर जरूरी सेवाएं देने की बात थी. देश के बड़े शहरों में फेसबुक की बड़ी-बड़ी होर्डिंग्स लग गयीं.
इसमें बताया गया कि रिलायंस के साथ मिल कर देश को जोड़ने और गरीबी दूर करने की योजना है फ्री बेसिक्स. दुनिया के बहुत बड़े व्यापारी फेसबुक के मालिक को शायद यह समझ में आया कि ‘फ्री’ लिख देने से देश में उनके पक्ष में सारे इंटरनेट यूजर्स खड़े हो जायेंगे. सवाल यह भी है कि जब कहा जा रहा हो कि सोशल मीडिया ने मुख्यधारा की मीडिया को जबरदस्त टक्कर देने की क्षमता हासिल कर ली है, तब फेसबुक को मुख्यधारा की मीडिया का सहारा क्यों लेना पड़ा?
भारत की आबादी और उसकी क्रय क्षमता किसी भी व्यापारी के लिए आकर्षण का केंद्र है और फेसबुक के लिए भी यही आबादी बहुत बड़ा बाजार. इसी कारण से मुफ्त इंटरनेट देने की योजना के बारे में जानकारी देने के लिए भी सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च करने पड़ गये.
अमेरिका में फेसबुक की अलग राय
यहां यह जानना रोचक है कि वर्ष 2014 में अमेरिका में जब 100 से अधिक कंपनियों ने नियामक एजेंसी को नेट की तटस्थता यानी नेट न्यूट्रैलिटी के पक्ष में पत्र लिखा, तो उनमें से एक कंपनी फेसबुक भी थी, जो भारत में इस तटस्थता को नेट की आजादी पर प्रतिबंध बताते हुए अपनी स्कीम ‘फ्री बेसिक्स’ के पक्ष में सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च कर चुकी है.
‘वर्ल्ड वाइड वेब’ के जनक स्विट्जरलैंड के टिम बर्नर्स ली ने साफ कहा है कि नेट न्यूट्रैलिटी से किसी भी आधार पर समझौता नहीं करना चाहिए, क्योंकि जो लोग वंचित तबके तक मुफ्त इंटरनेट देने की बात कर रहे हैं, उनका एजेंडा स्वतंत्र और सबके इंटरनेट की अवधारणा के एकदम विपरीत है. अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने भी साफ किया है कि उनके चुनावी घोषणापत्र में ही नेट न्यूट्रैलिटी की बात थी और वे इससे पीछे नहीं हटने वाले. डाटा चार्ज या कंटेंट के आधार पर इंटरनेट की आजादी पर प्रतिबंध नहीं होने चाहिए.
भारतीय बाजार का आकर्षण
ट्राइ के निर्देशों के अनुसार फेसबुक ने अपने उपभोक्ताओं से इस मुद्दे पर अपनी राय देने को कहा और बहुत चालाकी से इस प्रक्रिया को ऐसा बनाया कि अधिकतर लोगों ने फेसबुक के पक्ष में ट्राइ को राय दी. इतना ही नहीं, अमेरिकी फेसबुक उपयोगकर्ताओं से भी ट्राइ को राय भिजवायी गयी, जिसे अब फेसबुक अपनी तकनीकी गलती मान रहा है. दुनिया की सर्वाधिक आबादीवाले देश चीन में फेसबुक और गूगल प्रतिबंधित है. बड़ा बाजार हमारे यहां ही है.
ऐसी स्थिति में फेसबुक ने अपने ‘फ्री बेसिक्स’ के जरिये जिस आजादी की बात की है, वह आजादी को बंधक बनाने की ही बात है, क्योंकि उसकी योजना इंटरनेट की तटस्थता के सिद्धांत के विपरीत है. कुछ मूलभूत सुविधाओं के लिए कोई शुल्क न लेने की बात फेसबुक ने की है, जिसमें स्वास्थ्य, सूचना और मौसम के साथ मनोरंजन से जुड़ी कुछ साइट्स होंगीं. उपभोगकर्ता को इसके लिए कोई शुल्क नहीं देना होगा. लेकिन, यदि नये लोगों तक ज्ञान पहुंचाने की बात है, तो यह योजना उतनी ही खतरनाक है, जितनी ईस्ट इंडिया कंपनी को पहली बार भारत में व्यापार करने का मौका मिलना. इस योजना में साझीदार कंपनियां फेसबुक को पैसे देंगी और उसके बदले में ग्राहक मुफ्त के लालच में केवल उन्हीं की साइट्स देखेगा. यहां यह तर्क काम नहीं करता कि जब उसे जरूरत होगी, तब वह उन साइट्स पर भी जायेगा, जहां उसके डाटा का शुल्क लिया जायेगा. क्योंकि फेसबुक भारत के गरीबों के लिए नहीं, बल्कि इंटरनेट के बाजार में गूगल जैसी कंपनी से लड़ रहा है.
खोजे जा रहे हैं व्यापार और बाजार बढ़ाने के नये-नये तरीके
जब हम ‘स्टार्टअप’ को डिजिटल इंडिया अभियान से जोड़ कर बात कर रहे हैं, तब उसी समय ऐसी कोई योजना, जिसमें कुछ चुनिंदा उद्यम ही इस मुफ्त बतायी जा रही सेवा में मिलें, तो कहां रह जाती है नेट की तटस्थता, और वह बात कि नेट बिना भेदभाव के अपने समूचे रूप में सबके लिए उपलब्ध रहे? इसको इस बात से भी जोड़ कर देखें कि फेसबुक ने जब से बड़े समाचारों को लेकर ट्रेंडिंग का ट्रिकर शुरू किया है, तब से देश-दुनिया का हर बड़ा समाचार उसमें दिखता है, लेकिन नेट न्यूट्रैलिटी पर ट्राइ का इतना महत्वपूर्ण फैसला आया, तो उसे फेसबुक ट्रेंडिंग में जगह नहीं मिली.
कुछ चुनिंदा कंपनियों को ही जगह मिलने का अर्थ यह है कि अभी इस लेख को जो लोग इंटरनेट पर पढ़ रहे हैं, अगर उनको कोई अखबार इंटरनेट पर बिना डाटा शुल्क चुकाये पढ़ने को मिले, तो शायद वे उसी को पहले पढ़ना पसंद करेंगे, क्योंकि जो उनका प्रिय अखबार था, उसने उस कंपनी से करार नहीं किया, जो लोगों तक मुफ्त इंटरनेट देने की समाजसेवा कर रही है. प्रोजेक्ट लून के तहत गूगल आसमान में अपने गुब्बारे उड़ा रहा है. फेसबुक ड्रोन के माध्यम से सुविधाओं से वंचित इलाकों तक इंटरनेट पहुंचाने के प्रोजेक्ट पर काम कर रहा है.
इंटरनेट आधारित व्यापार और बाजार को बढ़ाने के नये-नये तरीके खोजे जा रहे हैं. ऐसे में इंटरनेट की आजादी और गोपनीयता, दोनों मुद्दों पर खामोश रहना ठीक नहीं. ट्राइ के निर्णय की दुनियाभर के अखबारों में चर्चा का अर्थ है कि भारत ने एक रास्ता फिलहाल दिखा दिया है.

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