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बराक ओबामा पधारो म्हारे देस

राष्ट्रपति बराक ओबामा की यात्रा को लेकर अमेरिका और भारत में उत्साह का माहौल है. पिछले कुछ वर्षो में भारत-अमेरिका संबंधों में बेहतरी के बावजूद द्विपक्षीय संबंधों की संभावनाओं को संतोषजनक रूप से हकीकत नहीं बनाया जा सका है. ओबामा और मनमोहन सिंह की कोशिशों के बाद भी वैश्विक राजनीति में दोनों देश कई मसलों […]

राष्ट्रपति बराक ओबामा की यात्रा को लेकर अमेरिका और भारत में उत्साह का माहौल है. पिछले कुछ वर्षो में भारत-अमेरिका संबंधों में बेहतरी के बावजूद द्विपक्षीय संबंधों की संभावनाओं को संतोषजनक रूप से हकीकत नहीं बनाया जा सका है. ओबामा और मनमोहन सिंह की कोशिशों के बाद भी वैश्विक राजनीति में दोनों देश कई मसलों पर साङोदारी बना पाने में सफल नहीं हो पाये थे. मोदी सरकार से अमेरिका को उम्मीदें हैं, तो मोदी भी राजनीतिक और कूटनीतिक पटल पर बिना किसी पूर्ववर्ती बोझ के नये सिरे से द्विपक्षीय संबंधों की इबारत लिखने की स्थिति में हैं. कुछ महीने पहले अमेरिका में ओबामा और मोदी की मुलाकात के दौरान दोनों नेताओं में एक-दूसरे के प्रति सहजता और भरोसा बनने के संकेत मिले थे. अब इस दौरे में इन्हें ठोस रूप मिलने की उम्मीदें हैं. ओबामा की यात्रा के कूटनीतिक महत्व पर एक विशेष परिचर्चा..

अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत यात्राा से उम्मीदें

अमेरिका के लिए

दोनों देशों के बीच परमाणु करार के बावजूद भारत के उत्तरदायित्व कानून के कारण अमेरिकी आपूर्तिकर्ता साजो-सामान नहीं दे पा रहे हैं. ओबामा को इस मुद्दे पर निर्णायक पहल की आशा है.

इस वर्ष समाप्त हो रहे एक दशक पुराने रक्षा सहयोग समझौते के नवीनीकरण के साथ साझा सैन्य उत्पादन की घोषणा हो सकती है.

हिंद महासागर और दक्षिण एशिया में बढ़ते चीनी प्रभाव को कम करने और अमेरिकी हितों को बढ़ाने के लिए ओबामा प्रधानमंत्री से सहयोग और साङोदारी की अपेक्षा इस आधार पर कर सकते हैं कि चीन का वर्चस्व भारतीय हितों के भी अनुकूल नहीं है.

अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए भारत अपने कोयला उपभोग को दोगुना करने जा रहा है. इससे ग्रीन हाउस गैसों के उत्सजर्न को रोकने के लिए वैश्विक समझौते पर प्रश्न-चिह्न लग गया है. ओबामा इस मसले का हल भी निकालने की कोशिश करेंगे.

भारत के लिए

अमेरिकियों द्वारा अधिक निवेश की आशा, खासकर इंफ्रास्ट्रक्चर और ग्रीन तकनीक के क्षेत्र में. भारतीय परियोजनाओं के लिए भारी मात्र में विदेशी निवेशी की जरूरत है.

पाकिस्तान से संचालित भारत-विरोधी चरमपंथियों और आतंकी गिरोहों पर लगाम लगाने के लिए अमेरिकी दबाव. आमतौर पर अमेरिकी नेता भारत यात्रा के साथ पाकिस्तान की यात्रा भी करते हैं, पर इस बार ऐसा नहीं हो रहा है. पाकिस्तान के बरक्स भारत को इस यात्रा से कूटनीतिक लाभों की अपेक्षा है.

जहां मोदी अपने कार्यकाल के प्रारंभिक दौर में हैं, वहीं ओबामा प्रशासन के सिर्फ दो वर्ष बचे हैं. ऐसे में यह यात्रा एक लंबे भरोसे का आधार बन सकती है.

अमेरिका से बेहतर संबंध वैश्विक राजनीति में भारतीय प्रभाव को बढ़ा सकते हैं, वहीं अर्थव्यवस्था, आतंक और अफगानिस्तान तथा अरब में भारत महत्वपूर्ण भूमिका की आशा कर सकता है.

इस दौरे के स्थायी महत्व को समझें

यह सुझाना बेमतलब है कि भारत गुट निरपेक्षता की नीति से मुंह मोड़ रहा है या समाजवादी आस्था को तिलांजलि दे रहा है. यह काम तो दशकों पहले किया जा चुका है. सोवियत संघ के पतन, साम्यवादी साम्राज्य के विखंडन तथा आर्थिक सुधारों को स्वीकार करने के बाद दोनों देशों के बीच नीतिगत और सैद्धांतिक मतभेद की गुंजाइश नाम मात्र की भी नहीं रही है.

अब तक यह परंपरा सुस्थापित है कि जनतंत्र दिवस के पर्व पर किसी विदेशी मेहमान का स्वागत सत्कार किया जाये. ऐसे में कुछ लोगों को यह बात अटपटी लग रही है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के दौरे का विश्‍लेषण अलग से करने की जरूरत क्यों महसूस की जा रही है? वह क्यों आ रहे हैं? अभी छह महीने पहले ही तो मोदी के साथ ‘शिखर वार्ता’ गर्मजोशी के साथ संपन्न हुई है, जिसमें उभय पक्षीय संबंधों का कोई पक्ष शायद ही अनछुवा रहा हो!

सच्चई यह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति की तुलना साधारण शाही मेहमान से नहीं की जा सकती. गणतंत्र दिवस के मौके पर आमंत्रित वह पहले अमेरिकी सदर हैं और उनके कार्यकाल के अभी दो साल बाकी हैं. अर्थात् भारत और अमेरिका के बीच रिश्ते मोदी और ओबामा के क्रिया-कलाप पर ‘निर्भर’ समङो जा सकते हैं. तब भी बात आगे बढ़ाने के पहले कुछ बातें समझ लेने की जरूरत है. वैदेशिक संबंध कभी व्यक्तिगत मित्रता, नेताओं के बीच शारीरिक भाषा के संवाद या हाव-भाव में प्रतिबिंबित रसायन शास्त्र से संचालित नहीं होते. इनकी बुनियाद राष्ट्रहितों के संयोग या सन्निपात पर ही टिकी रहती है. इसलिए बराक ओबामा के भारत दौरे के निहितार्थ टटोलते वक्त इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता.

यह सुझाना बेमतलब है कि भारत इस घड़ी गुट निरपेक्षता की नीति से मुंह मोड़ रहा है या समाजवादी आस्था को तिलांजलि दे रहा है. यह काम तो दशकों पहले किया जा चुका है. सोवियत संघ के पतन, साम्यवादी साम्राज्य के विखंडन तथा आर्थिक सुधारों को स्वीकार करने के बाद दोनों देशों के बीच नीतिगत और सैद्धांतिक मतभेद की गुंजाइश नाम मात्र की भी नहीं रही है. पूर्ववर्ती भारतीय सरकारों की- वह यूपीए की हो या एनडीए की- आलोचना में बचे खुचे वामपंथी कहा करते रहे हैं कि हिंदुस्तान को अमेरिका का बगल बच्चा बनाने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी है! मोदी ने जब ओबामा को भारत आने का न्योता भेजा तो वह किसी निर्णायक मोड़ पर कदम नहीं रख रहे थे. अंगरेजी मुहावरे में ‘क्रॉसिंग द रूबिकॉन’ जैसा कुछ नहीं हो रहा है.

यहां तत्काल यह जोड़ने की जरूरत है कि ओबामा का इस वक्त भारत आना महज राजनयिक रस्म अदायगी कतई नहीं है और न ही इसे राजनयिक सद्भावना बढ़ानेवाला कदम कह कर खारिज किया जा सकता है. मोदी के निमंत्रण से ओबामा को आश्चर्य भले ही हुआ, लेकिन यह भी कम अचरज की बात नहीं कि इस न्योते को बड़ी फुर्ती से उन्होंने सहर्ष कबूल कर लिया. यह संकेत कहिये या दुनिया के नाम संदेश, वास्तव में विेषण का विषय है.

सवाल यह है कि क्या इस घड़ी अमेरिका के लिए भारत एक महत्वपूर्ण सामरिक साझीदार बन चुका है, जिसे वह अब दक्षिण एशिया में पाकिस्तान पर तरजीह दे रहा है और जिसके बारे में वह यह सोचता है कि अफगान मोर्चे से उसके सैनिकों की वापसी के बाद अपनी मौजूदगी बढ़ा कर भारत अपने और उसके हितों की हिफाजत एक साथ बेहतर तरीके से कर सकता है? क्या एशिया में अब अमेरिका की नजर में चीन के साथ सहयोग की संभावना की सीमाएं छुई जा चुकी हैं तथा भारतीय विकल्प आकर्षक लगने लगा है? हमारी राय में इनमें से किसी भी नतीजे तक पहुंचने में उतावली से बचने की जरूरत है. पाकिस्तान हो या चीन, इनका अमेरिकी खाते में हाशिये पर पहुंचना अभी दूर है. इसी तरह यह सोचना एक खुशनुमा गलतफहमी पालना ही होगा कि कट्टरपंथी इसलामी दहशतगर्दी के खिलाफ मोर्चाबंदी में भारत की ‘उपयोगिता’ के कारण ओबामा दोस्ती को नये रंग में रंग रहे हैं. सीरिया-ईराक-मिस्र-फिलिस्तीन अथवा अरब जगत में अन्यत्र अमेरिकी नीति में भारत की गणना नाममात्र की भी नहीं होती.

यथार्थवादी नजरिया अपनाने से यह बात छुपी नहीं रहेगी कि असल में आर्थिक तर्क ही सर्वोपरि है. वही इस अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम को प्रभावित कर रहे हैं. मोदी ने ‘विकास’ को प्राथमिकता दी है, ‘बदलाव’ का नारा ओबामा वाला अपनाया है. बरसों से आर्थिक मंदी का शिकार अमेरिका अब फिर से इस संकट से उबरता नजर आ रहा है. वहीं तेल की कीमतों में गिरावट के कारण अचानक खस्ताहाल होता का रूस भारत के लिए अमेरिका की तुलना में कम आकर्षक रह गया है. ‘चीन की चुनौती’ भी भारत तथा अमेरिका के संदर्भ में हितों के साम्य को रेखांकित करती है. समझदारी इसमें है कि इस दौरे से किसी नाटकीय उपलब्धि की अपेक्षा करने की बजाय दूरदर्शी नजरिये से इसका स्थायी महत्व समझने का प्रयास किया जाये.

पुष्पेश पंत

वरिष्ठ स्तंभकार

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