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पाकिस्तानी बर्बरता का जवाब

तरुण विजय सांसद, राज्यसभा महाराष्ट्र में हनुमान जयंती विशेष उत्साह से मनायी जाती है. लेकिन, इस बार हनुमानजी के स्मरण के साथ कुलभूषण जाधव की चर्चा भी उतनी ही तीव्रता और वेदना के साथ हुई. सिर्फ इसलिए नहीं कि कुलभूषण महाराष्ट्र के सतारा क्षेत्र के निवासी हैं, बल्कि इसलिए भी कि भारत के विरुद्ध पाकिस्तान […]

तरुण विजय
सांसद, राज्यसभा
महाराष्ट्र में हनुमान जयंती विशेष उत्साह से मनायी जाती है. लेकिन, इस बार हनुमानजी के स्मरण के साथ कुलभूषण जाधव की चर्चा भी उतनी ही तीव्रता और वेदना के साथ हुई. सिर्फ इसलिए नहीं कि कुलभूषण महाराष्ट्र के सतारा क्षेत्र के निवासी हैं, बल्कि इसलिए भी कि भारत के विरुद्ध पाकिस्तान बर्बर हमलों की हदें पार करता जा रहा है. वास्तव में जाधव को पाक सेना की कंगाल अदालत ने प्राणदंड की घोषणा कर भारत पर युद्ध का ही ऐलान किया है.
इस युद्ध का बीज भारत विभाजन के साथ बोया गया था. आजादी के बाद सितंबर 1947 में किया गया हमला, कच्छ पर हमला, 1965 की लड़ाई- जो हम जीत कर भी हाजी पीर लौटा बैठे, 1971 में पाकिस्तान का भारतीय फौजों के सामने आत्मसमर्पण, फिर जिया उल हक द्वारा खालिस्तानी आतंकवाद के जरिये हजार घावों से भारत को रक्तरंजित करना, और फिर आइएसआइ के जेहादी हमले- जिनमें 86 हजार से ज्यादा भारतीय मारे जा चुके हैं. पाकिस्तानी प्रहाराें की फेहरिस्त लंबी है, पर उससे लंबी है भारत के धैर्य की थका देनेवाली कथा.
यह कहना कि पाकिस्तान स्वयं भी इस आतंक का शिकार हो रहा है और उसको अमेरिका तथा चीन का भी सहारा है, भारत के लिए बेमानी है. हमारे लिए यदि कोई एक ही बात महत्वपूर्ण है, तो वह है पाकिस्तानी आतंकवाद और हमलों से कैसे भारत को सुरक्षित किया जाये.
यह सत्य है कि आज दुनिया में सबसे ज्यादा मुसलमान मुसलमानों द्वारा ही पाकिस्तान में मारे जा रहे हैं. वजह है आपसी सामुदायिक घृणा और उससे जन्मी हिंसा. बलूचिस्तान और सिंध में भी पाकिस्तानी फौजों के पाश्विक अत्याचारों की लंबी सूची है. फौज और आइएसआइ के सहारे वहां 76 से ज्यादा दहशतगर्दों की जमातें सक्रिय हैं.
एक मोटे अनुमान के अनुसार पाकिस्तान में 200 से ज्यादा भारतीय कैदी हैं. सरबजीत सिंह और कश्मीर सिंह की कारुणिक कथाएं तो सामने आ गयीं, लेकिन साल 1971 के युद्ध के समय पकड़े गये 54 भारतीय युद्धबंदियों के बारे में अभी तक कुछ पता नहीं चला है. सूत्रों के अनुसार, उनमें से अनेक आज भी जेल में मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं.
अमानुषिक अत्याचार पाकिस्तान की फितरत में है. कैप्टन सौरभ कालिया और उनके साथ जाट रेजिमेंट के पांच जवानों- सिपाही अर्जुन राम बासवाना, मूलाराम, नरेश सिंह, भंवर लाल बागड़िया और मीका राय के पार्थिव शरीर जब सौंपे गये, तो उनकी क्षत-विक्षत हालत देख खून उबल उठा था. लेकिन, उस बर्बरता को हमें चुप होकर सहना पड़ा. लांस नायक हेमराज और लांस नायक सुधाकर सिंह के सिर काट कर उनके शरीर भारतीय सेना को सौंपे गये (जनवरी, 2013), तो पूरा देश क्रुद्ध हो उठा था. पर कुछ दिन बाद सब कुछ भुला दिया गया.
वीरता के गीत गानेवाला यह समाज भूल जाता है कि देश पर शहीद होनेवाले जवानों के भी परिवार हैं, उनके माता-पिता, पत्नी और बच्चे हैं. मीडिया में आतंकवादियों के बच्चों के इंटरव्यू छापने का फैशन है, लेकिन क्या कभी किसी महान सैनिक के माता-पिता, पत्नी या बेटी का इंटरव्यू आपने देखा है?
कल्पना कीजिये, यदि इस प्रकार की बर्बरता अमेरिका या चीन के सैनिकों के साथ हुई होती, तो क्या प्रतिक्रिया होती? भारत का सैनिक केवल वर्दीधारी नौकरीपेशा कर्मचारी नहीं है. वर्दी पहनते ही वह भारतीय संप्रभु गणतंत्र का उतना ही सशक्त प्रतिनिधि हो जाता है, जितना तिरंगा झंडा है, संविधान है और राष्ट्रपति की गरिमा है. उससे रत्ती भर कम सैनिक के सम्मान को नहीं आंका जा सकता. कश्मीर में केंद्रीय आरक्षी पुलिस बल (सीआरपीएफ) के जवान के साथ देशद्रोही पत्थरबाजों द्वारा किये गये शर्मनाक व्यवहार की वीडियो क्लिप वायरल हुई.
लेकिन, क्या उसकी कुछ प्रतिक्रिया हुई? हम अपनी धरती पर, अपने कश्मीर में, मातृभूमि के लिए लड़ रहे सैनिकों की रक्षा नहीं कर पाते, इसका क्या जवाब होगा?
यदि वह जवान कायर पाकिस्तानी पैसे पर पलनेवाले पत्थरबाजों से अपनी रक्षा करने के लिए गोली चलाता, ताे उसके विरुद्ध सबसे ज्यादा भारत के ही सेकुलर पत्रकार लिखते. लेकिन, क्या भारत में एक जवान के अपमान पर कहीं कोई लेख, संपादकीय या संसद में शोर देखा-सुना गया? क्योंकि, यहां जवान के पक्ष में बोलना चुनावी जीत का कारण नहीं बनता.
कुलभूषण को फांसी की सजा नहीं सुनायी गयी है, पहले तय कर लिया गया कि उसे कत्ल करना है. उसके बाद फाइलों पर दस्तखत कर दिये गये. न तो भारतीय राजनयिकों को कुलभूषण से मिलने दिया गया, न ही इन बातों का जवाब दिया गया कि यदि वह भारतीय जासूस था, तो उसे भारतीय पासपोर्ट के साथ जाने की क्या जरूरत थी? इस विषय में अंतरराष्ट्रीय विएना समझौते का पालन करते हुए भारतीय उच्चायोग के राजनयिकों को कुलभूषण से मिलने की अनुमति क्यों नहीं दी गयी? कुलभूषण की स्वीकारोक्ति का जो वीडियो प्रसारित किया गया है, वह टुकड़ों में और फोटोशॉप क्यों है? सामान्यत: ऐसे मामले सिविल अदालत में जाते हैं.
पहली बार पाकिस्तानी कोर्ट मार्शल अदालत में यह मामला क्यों भेजा गया? दिसंबर, 2016 में नवाज शरीफ के विदेशी मामलों के सलाहकार सरताज अजीज का बयान आया था कि सिवाय कुछ बयानों के कुलभूषण के विरुद्ध कोई सबूत अभी तक नहीं मिला है, तो अचानक किस आधार पर उसे सजा सुनायी गयी? क्या यह सत्य है कि कुलभूषण, जो ईरान में अपना व्यापार कर रहे थे, तालिबानियों द्वारा पकड़े गये और फिर उनको पाकिस्तानी सेना के हवाले कर दिया गया?
इन सवालों को लेकर हमें विश्वास है कि भारत सरकार उतनी ही उद्वेलित और चिंतित है, जितने कि हम सब. हम सिर्फ कह सकते हैं, जन-मन के भाव बता सकते हैं. एक सशक्त निर्णायक सरकार कुलभूषण के विषय में हरसंभव, बल्कि असंभव से उपाय भी करेगी और कुलभूषण वापस सही-सलामत लौटेंगे, यही इस बैसाखी के पर्व पर हमें कामना करनी चाहिए.

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