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बच्चों पर इतना गुस्सा क्यों!

क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार शायद अब हम बड़ों का काम बच्चे को डराने से आगे बढ़ गया है. अब हम डराने-धमकाने के मुकाबले जान लेना ज्यादा ठीक समझते हैं! इतनी पिटाई करो कि सामनेवाला उठ ही न सके. अगर सामनेवाला बच्चा है, तो बदले की भी कोई गुंजाइश नहीं है! आमों से भरा का एक […]

क्षमा शर्मा

वरिष्ठ पत्रकार

शायद अब हम बड़ों का काम बच्चे को डराने से आगे बढ़ गया है. अब हम डराने-धमकाने के मुकाबले जान लेना ज्यादा ठीक समझते हैं! इतनी पिटाई करो कि सामनेवाला उठ ही न सके. अगर सामनेवाला बच्चा है, तो बदले की भी कोई गुंजाइश नहीं है!

आमों से भरा का एक ठेला खड़ा था. मानसिक रूप से बीमार एक बच्चा उधर आया. उसने एक आम उठाया और खाने लगा. आम बेचनेवाले को यह बात नागवार गुजरी. पहले तो उसने बच्चे को डांटा. जब इससे भी उसका मन नहीं भरा, तो वह बच्चे को पीटने लगा. उसने बच्चे को इतना पीटा कि उसकी मौत हो गयी.

एक और घटना. एक बच्चा ट्यूशन पढ़ने जा रहा था. रास्ते में कुछ लोग ताश खेल रहे थे. उन्होंने बच्चे को अपने पास बुलाया और सिगरेट लाने को कहा. बच्चे ने कहा कि वह सिगरेट नहीं ला सकता, क्योंकि दुकानदार उसे सिगरेट नहीं देगा. अठारह वर्ष से कम आयु वालों को सिगरेट बेचने की इजाजत नहीं है. यह सुन कर वे लोग आगबबूला हो गये. ज्यादा गुस्सा इस बात पर आया कि एक छोटा बच्चा उन्हें कानून सिखा रहा है. उन्होंने बच्चे को इतना पीटा कि उसकी मौत हो गयी.

दिल दहला देनेवाली ये दोनों घटनाएं पिछले दिनों देश की राजधानी दिल्ली में घटी हैं. दोनों ही घटनाओं में बच्चों की मौत पिटाई से हुई, जबकि बच्चों को पीटना हमारे यहां कानूनन अपराध है. इन्हें इनके परिजनों या स्कूल में अध्यापकों ने नहीं पीटा था. इन्हें पीटनेवाले लोग एकदम अपरिचित थे. एक बच्चा मानसिक रूप से कमजोर था. वह अच्छा-बुरा नहीं समझ सकता था. उसे शायद यह भी पता न होगा कि आम खरीद कर खाना चाहिए या कि आम वाले से पूछ कर लेना चाहिए. लेकिन, पीटनेवाले को उस पर कोई दया नहीं आयी. दूसरा बच्चा थोड़ा जागरूक था. उसे मालूम था कि अठारह वर्ष से कम उम्र के बच्चे को सिगरेट या कोई अन्य तंबाकू उत्पाद बेचना कानूनन अपराध है. मगर उसे कानून न तोड़ने और दूसरों को इसके बारे में बताने की सजा मिली.

देश के ज्यादातर हिस्सों से ऐसी घटनाएं अकसर सुनने में आती हैं कि महज कुछ पैसों के लेन-देन के चक्कर में किसी की हत्या कर दी गयी. कई बार तो दोस्त ही ऐसा कर देते हैं. हम गर्व से कहते हैं कि हमारा देश अहिंसक है. किसी को कुछ देने के मामले में हम राजा हरिश्चंद्र और दानवीर कर्ण को अपना आदर्श समझते हैं. मगर मौका मिले और पैसे का मामला हो, तो किसी की हत्या करने से भी नहीं चूकते. चाहे वह छोटी उम्र का बच्चा ही क्यों न हो. आखिर इतना गुस्सा हमारे अंदर क्यों है? किससे नाराज हैं हम. शायद खुद से ही, क्योंकि खुद से नाराज आदमी में ही असुरक्षा पनपती है और वह ही हत्या जैसे कदम उठाता है.

दोनों घटनाओं में बच्चों के प्रति बड़ों ने हिंसा की. इस बात पर इन बड़ों को थोड़ी-बहुत भी लज्जा आयी या नहीं, पता नहीं. आजकल अपराध करके कोई भी अपराधी लज्जित नहीं होता है. लज्जा को वह कमजोर का आभूषण मानता है. पकड़े जाने पर वह नजरें झुकाता नहीं है, बल्कि आंखों में आंखें डाल कर देखता है. अकसर दो उंगलियों से विक्ट्री का निशान बनाता है, जैसे कोई बड़ा युद्ध जीत कर आया हो.

गौर करें तो पहली घटना में यदि आम वाले को एक आम के पैसे नहीं भी मिले तो भी कोई इतनी बड़ी बात नहीं हुई थी कि उसका लाखों का नुकसान हो गया हो. बच्चे ने उससे पूछा नहीं इस कारण शायद उसे अपनी बेइज्जती लगी. इसका बदला उसने बच्चे की जान लेकर लिया.

दूसरी घटना में भी सिगरेट लाने से मना करना ताश खेलनेवालों को अपनी बेइज्जती लगी होगी. एक बच्चे की इतनी हिम्मत कि वह किसी काम के लिए मना करे. मना करनेवाले और बात न माननेवाले को तो सबक सिखाना जरूरी होता है! वह कमजोर है तो दंड देना और आसान है. बच्चे से ज्यादा कमजोर और होगा कौन. बस पीट दिया. अब वह मर गया तो हम क्या करें, मंशा तो ऐसी नहीं थी. वैसे भी हमारे यहां यह माना जाता है कि बच्चे को पीट कर ही सही राह पर लाया जा सकता है.

जान चली गयी तो क्या किया जाये, कभी-कभी ऐसी गलती हो जाती है. इसमें पीटनेवालों का क्या कुसूर. कुसूर तो बच्चों का ही था कि वे पिटाई नहीं ङोल सके! आखिर वे बच्चे ही क्या जो मार न खा सकें!

पुराने जमाने में बच्चों को पीटने के लिए हर घर में हरे पेड़ से तोड़ कर पतली डंडियां रखी जाती थी, जिन्हें कमचियां कहा जाता था. हरी, पतली डंडियों के बारे में बताया जाता था कि इनसे चोट तगड़ी लगती है. उस पिटाई का क्या फायदा जिससे चोट ही न लगे. हाथ से मारने पर अपने हाथ में भी चोट लगने का डर रहता था. इसलिए पेड़ों की मदद ली जाती थी. उस समय के स्कूलों के जो चित्र किताबों में दिखते हैं, उनमें भी अध्यापक के हाथों में छड़ी होती थी. तुलसी की इस चौपाई का बारंबार उदाहरण दिया जाता था- भय बिन होय न प्रीत.

शायद अब हम बड़ों का काम बच्चे को डराने से आगे बढ़ गया है. अब हम डराने-धमकाने के मुकाबले जान लेना ज्यादा ठीक समझते हैं! इतनी पिटाई कि सामनेवाला उठ ही न सके. अगर सामनेवाला बच्चा है, तो बदले की भी कोई गुंजाइश नहीं है. न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी!

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