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इतिहास बनने के करीब हैं कोलकाता के यहूदी

वर्तमान में कोलकाता में मूल बगदादी यहूदी के लगभग 20 वंशज ही बचे हैं, अधिकतर की उम्र 70 के पार मुश्ताक खान कोलकाता : यहूदियों आैर मुसलिमों बीच की शत्रुता जग-जाहिर है. अरब देश व दुनिया में यहूदियों के एकमात्र देश इजराइल के बीच के संघर्ष की कहानी रोजाना ही संवाद माध्यम की सुर्खियों में […]

वर्तमान में कोलकाता में मूल बगदादी यहूदी के लगभग 20 वंशज ही बचे हैं, अधिकतर की उम्र 70 के पार
मुश्ताक खान
कोलकाता : यहूदियों आैर मुसलिमों बीच की शत्रुता जग-जाहिर है. अरब देश व दुनिया में यहूदियों के एकमात्र देश इजराइल के बीच के संघर्ष की कहानी रोजाना ही संवाद माध्यम की सुर्खियों में दिखायी देती है. पर अरब व इजराइल से हजारों किलोमीटर दूर भारत की पूर्व राजधानी कोलकाता में इस सदियों पुरानी लड़ाई के विपरीत एक नयी कहानी दिखायी व सुनायी देती है. कोलकाता में यहूदियों द्वारा भारत में बनाया गया एकमात्र शिक्षण संस्थान ज्यूइश गर्ल्स स्कूल शहर के नामचीन स्कूलों में से एक है.
आज भी प्रबंधन यहूदियों के ही हाथों में है. पर स्कूल की अधिकतर छात्राएं मुसलिम हैं. जिनके स्कूल ड्रेस की ब्लाउज पर स्टार ऑफ डेविड का निशान बना हुआ है. स्कूल के बाहर सलवार कमीज अथवा बुर्का पहने हुईं उन छात्राआें की मां की तसवीर अलग ही अहसास जगाती है. यहां पढ़नेवाले ज्यादातर बच्चे अब मुसलिम हैं और कुछ ही लोगों को शायद यह याद हो कि आखिरी बार कब इस स्कूल में कोई यहूदी छात्र पढ़ने के लिए आया था.
1800 दशक के अंत व 1900 दशक के आरंभ में ब्रिटिश भारत की राजधानी के रूप में कोलकाता पूर्वी भारत का सबसे बड़ा प्रवासी केंद्र था. उस समय न केवल देश के अन्य राज्यों के लोग बड़ी संख्या में कोलकाता को अपना घर बना रहे थे, बल्कि पारसी, आर्मेनियन, चीनी, बर्मा, यूनानी आैर यहूदी समुदाय के लोग भी अपना व्यापार स्थापित करने व अपने यहां के युद्ध व विस्थापन से बचने के लिए यहां बस रहे थे.
19वीं सदी में कोलकाता बन गया था यहूदियों का घर
19 वीं शताब्दी की शुरुआत में कोलकाता बगदादी यहूदियों का घर बन गया था, जो मध्य-पूर्व का सबसे महत्वपूर्ण यहूदी समुदाय था. पर 1947 में अंग्रेजों से भारत को आजादी मिलने के बाद लगभग छह हजार यहूदियों ने या तो यूरोप चले गये या फिर नवगठित देश इजराइल का रुख कर लिया था.
वर्तमान में कोलकाता में मूल बगदादी यहूदी के लगभग 20 वंशज ही बचे हैं. इनमें से अधिकतर की उम्र 70 वर्ष से अधिक है. अगर यही स्थिति बनी रही, तो अगले 30 वर्ष के बाद शायद ही इस शहर में कोई यहूदी नजर आये. कोलकाता के यहूदी समाज के जल्द ही इतिहास के पन्नों का हिस्सा बन जाने की आशंका हो गयी है. भले ही इनकी संख्या गिनी-चुनी रह गयी है और इनके अधिकतर रिश्तेदार दूसरे देशों में जा कर बस गये हैं. पर इनके लिए तो काेलकाता ही इनका अपना शहर है.
एशिया में यहूदियों का सबसे बड़ा उपासनागृह भी कोलकाता में
कोलकाता से चले गये यहूदियों ने अपने पीछे एशिया के सबसे बड़े उपासनागृहों में से एक को छोड़ा है. दी मैगन डेविड का निर्माण साल 1880 में कराया गया था. इसके डिजाइन पर उन ब्रितानी चर्चों का गहरा असर देखा जा सकता है, जो उस दौर के कोलकाता में बनाये जा रहे थे. इसमें एक मीनार भी है जो यहूदी उपासनास्थलों के लिए एक असामान्य बात है.
यह इबादत घर जो कभी कोलकाता के विविधता भरे यहूदी समाज की जिंदगी का एक प्रमुख हिस्सा हुआ करता था, अब खाली पड़ा हुआ है. इसके गेट के बाहर सड़क पर दुकान लगानेवाले लोग सोचते हैं कि यह एक चर्च है. मजे की बात यह है कि इसकी देखभाल एक मुसलिम करता है. राबुल खान का परिवार पीढ़ियों से मैगन डेविड की देखभाल कर रहा है. उनका कहना है कि कोई बात नहीं, जब तक कि वह नहीं आते हैं, मैं इस जगह की देखरेख उनके लिए करता रहूंगा.
जायके की भी छाप छोड़ी
यहूदियों ने केवल इस शहर की विरासत पर ही नहीं, बल्कि यहां के जायके पर भी अपनी छाप छोड़ी है. एक सदी से भी अधिक समय से न्यू मार्केट स्थित नाहौम कनफेक्शनरी अपने कुरकुरे ब्राउनी, शानदार पनीर मफिन व लजीज पेस्ट्री की बदौलत अपनी पहचान बनाये हुए हैं.
किसी भी सैलानी का सफर नाहौम तक गिये बगैर अधूरा माना जाता है. बगदाद से आये नाहौम इजराइल ने 1902 में इस बेकरी की शुरुआत की थी. आज ‍उनके वंशज इसका संचालन कर रहे हैं. 2013 में अपने बड़े भाई डेविड की मौत के बाद से इसकी देखभाल कर रहे आइजक का कहना है कि नाहौम का सफर चलता रहेगा. यह हमारे लिए केवल एक व्यवसाय नहीं, इस शहर के साथ का एक रिश्ता है, जो चलता ही रहेगा. चाहे हम रहें या न रहें, पर हमारी यादें व विरासत जरूर रहेंगी.
दुनिया के सबसे बड़े शहरों में से गिने जानेवाले इस शहर से भले ही यहूदियों के लुप्त होेने का खतरा मंडरा रहा है, पर जिंदगी के पांच दशक देख चुकीं जाइल सिलिमन इसे बदलने की कोशिश कर रही हैं. इससे पहले कि ये समुदाय पूरी तरह से लुप्त हो जाये, जाइल कोलकाता के यहूदियों के इतिहास को रिकॉर्ड कर उनका एक डिजिटल आर्काइव तैयार किया है.
कुछ इतिहासकारों का कहना है कि कोलकाता आनेवाले पहले यहूदी शालोम आेबादियाह हा- कोहेन थे, जो 1798 में सीरिया से यहां आये थे. उनकी आर्थिक सफलता ने इराक से दूसरे लोगों को यहां आने के लिए प्रेरित किया. दूसरे विश्वयुद्ध के आते-आते लगभग छह हजार बगदादी यहूदियों ने कोलकाता को अपना शहर बना लिया था. इतिहासकार मानिक चक्रवर्ती का कहना है कि अंग्रेजों के भारत छोड़ने के बाद यहूदियों को अपने भविष्य की चिंता सताने लगी थी. उन्हें इस बात की फिक्र थी कि आनेवाले दिनों में भारत में क्या होगा. नये हुक्मरानों का उनके साथ रवैया कैसा होगा. उन्हें अपना व्यवसाय चलाने में कोई दिक्कत तो नहीं होगी. इन्हीं चिंताआें के बीच कुछ लोगों ने यहां से जाना शुरू किया आैर फिर बाकी लोग भी उनके पीछे हो लिए.
महानगर में यहूदी छोड़ गये हैं कई विरासतें
कोलकाता में यहूदी भले ही लुप्त होने के कगार पर पहुंच गये हैं, पर उन्होंने इस शहर में कुछ ऐसी विरासतें छोड़ी हैं, जो आनेवालीं सदियों तक उनकी कहानी बयान करती रहेगी. उनके शिक्षण संस्थान, तीन उपासना स्थल और एक कब्रिस्तान इस शहर की ऐतिहासिक विरासत में उनका योगदान है. इनमें सबसे बड़ा नाम ज्यूइश गर्ल्स स्कूल है. यहूदी लड़कियों की शिक्षा के लिए 1881 में इस स्कूल की स्थापना की गयी थी. 1960 इस स्कूल के दरवाजे सभी समुदाय की छात्राआें के लिए खोल दिये गये थे. आज इस स्कूल में लगभग 1200 छात्राएं पढ़ती हैं.
स्कूल की सेक्रेट्री जोए कोहेन कहती हैं कि यह समुदाय 200 साल से भी ज्यादा पुराना है और इस शहर के लोग उनके साथ बहुत अच्छा बर्ताव करते हैं. लड़कियों के लिए स्कूल चलाकर हम कोलकाता शहर को कुछ वापस लौटा रहे हैं. जोए कोहेन को उम्मीद है कि अगले 200 वर्षों में भी ज्यूइश गर्ल्स स्कूल इसी मजबूती से चलता रहेगा और कोलकाता के लिए उतना ही महत्वपूर्ण रहेगा जितना कि आज है.

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