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भेड़िये और भेड़ें

सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार भेड़िये भेड़ों से गुहार लगा रहे थे. अलबत्ता गुहार भी उनके मुंह से गुर्राहट जैसी ही निकल रही थी. गुहार लगाते हुए भी वे अपना भेड़ियापन त्याग नहीं पा रहे थे. असल में, भेड़ों से गुहार लगाना उन्हें अपने भेड़ियेपन की तौहीन लगती थी, पर बेचारे विवश थे. जमाना लोकतंत्र का […]

सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
भेड़िये भेड़ों से गुहार लगा रहे थे. अलबत्ता गुहार भी उनके मुंह से गुर्राहट जैसी ही निकल रही थी. गुहार लगाते हुए भी वे अपना भेड़ियापन त्याग नहीं पा रहे थे. असल में, भेड़ों से गुहार लगाना उन्हें अपने भेड़ियेपन की तौहीन लगती थी, पर बेचारे विवश थे. जमाना लोकतंत्र का था, जो संविधान से चलता था. संविधान इस मामले में तो अच्छा था कि भेड़ियों को कुछ अधिकार देता था, पर इस मामले में खराब भी था कि वह भेड़ों को भी कुछ अधिकार देता था.
यह संविधान ही था, जिसकी वजह से भेड़िये भेड़ों को सीधे-सीधे नहीं खा पाते थे. संविधान तो भेड़ियों में से ही कुछ ऐसे ‘कमतर’ भेड़ियों को भी उनके समान ही अधिकार देता था, जिन्हें भेड़िये खुद भेड़िया नहीं मानते थे. जिन्हें सदियों से दबा कर वे उनसे ऐसे काम लेते आये थे, जिन्हें खुद करने में उन्हें घिन आती थी और फिर इसके लिए उन्हें क्षुद्र कह कर दुत्कारते भी थे. स्वभावत: उन्हें इस बात का भारी मलाल रहता था कि यह संविधान न होता, तो ये क्षुद्र भेड़िये, जो कि अब तक हमारे पैरों की जूती हुआ करते थे, आज हमारे सामने यों खड़े न हो पाते.
भेड़िये और भेड़ें सदियों से एक ही नदी के अलग-अलग हिस्सों से पानी पीते आ रहे थे. लेकिन, कुछ सालों से भेड़ियों के लिए यह बिलकुल असहनीय हो चला था. भेड़ों का कहना था कि यह नदी उनकी थी, जबकि भेड़ियों का मानना था कि नदी असल में उनकी थी, भेड़ों ने तो सदियों पहले भेड़ियों के रूप में यहां आकर और उन्हें भेड़ें बना कर उनकी नदी पर कब्जा कर लिया था.
लेकिन, तब से नदी में काफी पानी बह गया था और इस बीच वे भेड़िये भी भेड़ें बन चुके थे और ये भेड़ें भी भेड़िये बन चुकी थीं. ये भेड़िये अब नदी पर क्षणभर के लिए भी उन भेड़ों की शक्ल नहीं देखना चाहते थे. बीच में एक बार उन्होंने शासन के विरोध के बावजूद, जो बाद में शासन का सहयोग साबित हुआ, नदी पर भयंकर उत्पात भी मचा दिया था. इस पर मामला पंचायत से होता हुआ सीधा महापंचायत तक जा पहुंचा था.
मामला लंबा खिंचता देख भेड़ियों ने आखिर भेड़ों से गुहार लगायी कि बहुत हुआ लड़ाई-झगड़ा, आओ, अब आपसी रजामंदी से यह समझौता कर लें कि तुम यह नदी स्वेच्छा से हमारे लिए छोड़ दोगे और कहीं दूर जाकर अपनी एक अलग नदी बना लोगे. महापंचायत खुद इसके लिए मध्यस्थता करने को तैयार थी.
पर भेड़ें हैरान थीं कि यह कैसी आपसी रजामंदी है, जिसमें रजा तो उनकी है और हमारी सिर्फ मंदी? और उनसे भी ज्यादा नदी हैरान थी कि कैसे हैं ये जीव, जो पानी का इस्तेमाल जीने के लिए नहीं, मरने-मारने के लिए करते हैं?

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