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डॉ राम मनोहर लोहिया की 50वीं पुण्यतिथि आज, वे कहा करते थे सिद्धांतहीन राजनीति मृत्यु के समान है

डॉ राम मनोहर लोहिया में विचार, प्रतिभा और कर्मठता का अनोखा मेल था. राजनीितक कर्मयोगी के रूप में अभी तक उनकी देन का मूल्यांकन नहीं हो पाया है. उन्होंने अन्याय, अविचार, बुराइयों और असत्य का हर अवसर पर पर्दाफाश किया. लोहिया का विश्वास था कि ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’ के प्राचीन आदर्श और आधुनिक विश्व के […]

डॉ राम मनोहर लोहिया में विचार, प्रतिभा और कर्मठता का अनोखा मेल था. राजनीितक कर्मयोगी के रूप में अभी तक उनकी देन का मूल्यांकन नहीं हो पाया है. उन्होंने अन्याय, अविचार, बुराइयों और असत्य का हर अवसर पर पर्दाफाश किया.
लोहिया का विश्वास था कि ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’ के प्राचीन आदर्श और आधुनिक विश्व के समाजवाद, स्वातंत्र्य और अहिंसा के तीन सूत्री आदर्श को इस रूप में रखना होगा कि वे एक-दूसरे की जगह ले सकें. बनी-बनायी लीक पर चलना उनके स्वभाव में न था. उनकी 50वीं पुण्यतिथि के अवसर पर प्रस्तुत है दो पन्नों का यह विशेष आयोजन.
अभिषेक रंजन सिंह
गैर-कांग्रेसवाद से शुरू हुई बदलाव की राजनीति ने तीन दशक में उन्हीं आर्थिक नीतियों को अख्तियार कर लिया, जिसने जनता की चेतना को सांस्कृतिक रूप से कुंद करने का काम किया.
स्वाधीनता संग्राम सेनानी व समाजवादी चिंतक डॉराममनोहर लोहिया की मृत्यु को आज पचास साल हो गए. उनका विचार एवं व्यक्तित्व कुछ ऐसा था कि पांच दशक बीत जाने के बाद भी लोगों के दिलों में उनकी स्म़तियां ताजा हैं.
जो व्यक्ति महज सत्तावन साल की आयु जिया हो और केवल पांच वर्षों तक संसद सदस्य रहे. फिर भी उनके भाषणों को आज भी याद किया जाता है. डॉलोहिया गुलाम भारत में जहां अंग्रेजों से लड़े वहीं आजादी के बाद तत्कालीन भारत सरकार की जनविरोधी नीतियों से. डॉ लोहिया की सांस्कृतिक दृष्टि का मूल तत्व भारत और उसकी राष्ट्रीयता थी. लेकिन उनकी सांस्कृतिक दृष्टि उनके राजनीतिक विचारों से अलग नहीं थी.
लंबे समय तक यूरोपीय देश जर्मनी में रहकर शिक्षा ग्रहण करने के दौरान डॉ लोहिया निजी तौर पर यूरोपीय समाज की नागरिक संहिताओं और उस समाज के ऐतिहासिक विकास क्रम में अर्जित लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति बहुत निष्ठा रखते थे. शायद यही वजह थी कि समाजवाद के लिए जरूरी तीन बुनियादी वर्गों मजदूर, किसान और छात्र के हितों को लेकर उनकी राजनीति आगे बढ़ती थी. तथा इन्हीं तबकों की देशज संस्कृति को वे राष्ट्रीय संस्कृति के तौर पर महत्व देते थे.
उनका स्पष्ट मानना था कि सिद्धांतहीन राजनीति मृत्यु के समान है, क्योंकि वैचारिक समाजवाद के बिना राजनीतिक समाजवाद भी अधूरा है.
केरल में संविद सरकार के दौरान जब निहत्थे किसानों पर पुलिस ने गोलियां बरसायीं थी. उस वक्त लोहिया इलाहाबाद के नैनी जेल में बंद थे. इस घटना से आहत लोहिया ने तार भेजकर अपनी ही सरकार से इस्तीफा मांग लिया. जिसे प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के बड़े नेताओं ने यह कहते हुए मना किया कि सरकारों में तो गोलियां चलती रहती हैं.
उनके इस तर्क से लोहिया काफी आहत हुए और उन्होंने कहा अगर जब सरकारों में गोलियां चलती रहती हैं तो हमारी सरकार कांग्रेस से अलग कैसे है? क्या हम सत्ता में केवल कांग्रेस का विकल्प बनने के लिए आए थे. यह घटना इस बात का ज्वलंत उदाहरण है कि डॉ लोहिया की राजनीतिक व सांस्कृतिक दृष्टि राजसत्ता के वर्चस्व और तानाशाही के मुखालफत से पैदा होती थी. भले ही उस राजसत्ता में उनकी भी हिस्सेदारी थी.
अपनी ही सरकार से इस्तीफे की मांग करना आजाद भारत में बुनियादी राजनीतिक ईमानदारी का एक बड़ा साक्ष्य है, जो मौजूदा समकालीन नेताओं में दुर्लभ ही नहीं, बल्कि असंभव है. डॉ लोहिया राजनीति में इस तरह की बेईमानी के खिलाफ थे और वे ईमानदारी और जवाबदेही की पारदर्शी संस्कृति के संवाहक थे. जिनके आधार स्तंभों में समानता, बंधुत्व, पंथ निरपेक्षता और संप्रभुता शामिल थे.
जर्मनी से पठन-पाठन से अर्जित लोकतांत्रिक मूल्यों का निर्वाह डॉ लोहिया के जीवन के सामान्य प्रकरणों में भी हमें दिखाई दे जाता है. मसलन, वे आदर्श स्त्री सीता को नहीं, बल्कि द्रौपदी को मानते थे.
यूरोप में औद्योगिक क्रांति के बाद उभरे नारीवादी आंदोलन का उन्होंने गहन अध्ययन किया था और “यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता” वाली रूढ़ भारतीय सोच के वे सख्त खिलाफ थे. जहां स्त्री को या तो शोषण की वस्तु समझा जाता है अथवा देवी के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया जाता है. वे स्त्री को एक मनुष्य के तौर पर देखने की बात कहते थे और उसके सशक्तीकरण के प्रबल समर्थक थे. उनकी यही आधुनिक दृष्टि चित्रकला जैसी जटिल और अमूर्त विधा की समझ को भी आसान बना देती है.
एक वाकया है, डॉ लोहिया हैदराबाद में अपने उद्योगपति मित्र बदरी विशाल पित्ती के यहां बैठे थे, जहां मशहूर दिवंगत चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन भी थे. उन्होंने हुसैन के चित्रों पर टिप्पणी करते हुए कहा, तुम्हारी पेंटिंग तो अमीरों के बैठक सजाने में काम आने लायक है, जिसका आम जनता से कोई लेना-देना नहीं है. उन्होंने हुसैन को सलाह दी कि वे रामायण और रामलीला पर चित्रकारी करें, ताकि वे देश के आम घरों में जगह पा सके. हुसैन ने उनकी बात मानी और आज उनकी बनाई तस्वीरें इतिहास की धरोहर हैं.
यहां यह मान लेना भ्रामक होगा कि रामलीला पर पेंटिंग बनाने का सुझाव देने वाले डॉ लोहिया का राम की राजनीति से कोई लेना-देना था. डॉ लोहिया के लिए राम, कृष्ण और शिव आदि वे सांस्कृतिक नायक थे, जो इस देश की अधिसंख्य जनता के जीने का पीढ़ियों ले सहारा बने हुए थे.
तथा एक आधुनिक लोकतांत्रिक समाज में भी उनका महत्व प्रतीकों के रूप में मौजूद था. डॉ लोहिया के लिए राम का मतलब मर्यादा, कृष्ण का मतलब संहारक और शिव का मतलब एक ऐसी शक्ति से था, जो सबकी कमजोरियों को अपना बना लेता है और जन कल्याण के लिए नीलकंठ हो जाता है.
भारतीय इतिहास में तमाम ऐसे महापुरुष रहे हैं, जिनकी दृष्टि तो अनुकरणीय थी, लेकिन जिनका निजी जीवन खुद उस दृष्टि पर खरा नहीं उतरता था. इस लिहाज से देखें, तो डॉ लोहिया की कथनी और करनी में कोई फांक नजर नहीं आती है. वे मानते थे कि स्त्री और पुरुष के बीच हर तरह के संबंध जायज हैं, सिवाय वादाखिलाफी के. डॉ लोहिया की सांस्कृतिक दृष्टि में स्त्रियों का काफी महत्वपूर्ण स्थान था. वह सांस्कृतिक उत्थान के लिए महिलाओं की सशक्तिकरण की बात कहते थे.
इस बात को उन्होंने अपने निजी जीवन में भी साबित करके दिखाया. वे आजीवन अविवाहित रहे और एक ऐसे दौर में सहजीवन की अवधारणा को उन्होंने साकार किया, जब सती प्रथा, दहेज प्रथा, पर्दा प्रथा जैसी पुरातन प्रतिगामी विसंगतियां इस समाज का दैनंदिनी हिस्सा थी. आजादी के सत्तरवें वर्ष में आज जब सशक्त हो रही स्त्री के खिलाफ तालिबानी फतवे जारी किए जा रहे हो और गर्भ में स्त्रियों को मार दिया जा रहा हो तो डॉ राममनोहर लोहिया हमारे समक्ष ऐसे महापुरुष के रूप में सामने आते हैं, जिसकी उम्र भारतीय समाज की तत्कालीन अवस्था से कम से कम सौ साल आगे की थी. यह समाज सांस्कृतिक रूप से मौजूदा राजनीतिक संरक्षण की शह पर जैसा दरिद्र बनाया जा रहा है, हमें आज उसी लोहिया की जरूरत है.
जिनका कहा वाक्य उदारवाद में पैदा हुई पीढ़ी की जुबान पर भी बरबस सुनने को मिल जाता है. यह समाज सांस्कृतिक रूप से मृत हो जाए और राजनीतिक रूप से पतित, उससे पहले डॉ लोहिया के राजनीतिक और सांस्कृतिक अवदान का आह्वान किया जाना अति आवश्यक है. ताकि चाल, चरित्र और चेहरे की राजनीति के अलंबरदारों को थोड़ी सद्बुद्धि आवे और वे डॉ लोहिया के विचारों को आत्मसात कर सकें.
गैर-कांग्रेसवाद से शुरू हुई बदलाव की राजनीति ने तीन दशक में उन्हीं आर्थिक नीतियों को अख्तियार कर लिया, जिसने जनता की चेतना को सांस्कृतिक रूप से कुंद करने का काम किया था.
आजादी के पांच दशक तक जनसंस्कृति और लोकसंस्कृति की दुश्मन कांग्रेस बनी रही तो कांग्रेस का विरोध करके आए दलों ने भी कोई विकल्प मुहैया नहीं कराया. इस राजनीतिक विमर्श में सबसे दिलचस्प विडंबना गैर-कांग्रेसवाद के उन झंडाबरदारों ने पैदा की, जो परिवारवाद का विरोध करते-करते खुद अपने खानदानों का राजनीतिक जीवन बीमा करवाने में जुट गए. आज स्थिति यह है कि डॉ लोहिया का सबसे ज्यादा नाम लेने वाले उनके राजनीतिक शिष्यों के परिवार की चार पीढ़ियां सक्रिय राजनीति में अहम ओहदों पर हैं और राजनीतिक एवं वैचारिक समाजवाद का विचार पारिवारिक समाजवाद के दुष्चक्र में फंसकर रह गया है.
( लेखक पत्रकार हैं और डॉ लोहिया से जुड़े शोध कार्यों में संलग्न हैं)
संसद में डॉ लोहिया ने किराई ऋषिदेव को दी थी श्रद्धांजलि
मधेपुरा से 17 किलोमीटर दूर नेशनल हाईवे 107 के दाहिने ओर बीपी मंडल के नाम पर कंक्रीट से बना एक स्वागतद्वार है. इससे चार किलोमीटर आगे एक गांव है मुरहो. गांव के तिराहे पर मार्बल और टाइल्स से बनी बीपी मंडल की भव्य समाधि है. ढाई दशक पहले मुरहो की पहचान प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के सांसद किराई मुसहर से होती थी, लेकिन 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर न सिर्फ उत्तर भारत की राजनीति, बल्कि मुरहो की पहचान भी बदल डाली.
कभी समाजवाद का मजबूत गढ़ रहा कोसी इलाका पूर्व सांसद किराई ऋषिदेव पूर्व मुख्यमंत्री बीपी मंडल और भूपेंद्र नारायण मंडल की जन्मभूमि रहा है.
जितनी रोचक कहानी बीपी मंडल से जुड़ी है, उससे कहीं अधिक दिलचस्प किस्सा किराई मुसहर से जुड़ा है. भागलपुर सह पूर्णिया लोकसभा क्षेत्र से पहली बार 1953 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार किराई ऋषिदेव सांसद चुने गये. किराई एक भूमिहीन मजदूर थे और वे दूसरों के खेतों में काम किया करते थे.
हालांकि अब उनकी यादों को मुरहोवासियों ने भी लगभग भुला दिया है. स्थानीय लोगों को बीपी मंडल के बारे में पता है, क्योंकि उनका परिवार गांव के बड़े जमींदारों में शुमार था. वहीं, नयी पीढ़ी के लोगों को किराई के बारे में जानकारी नहीं है.
साठ वर्षीय छट्टू ऋषिदेव किराई ऋषिदेव के बेटे हैं. दो बार सांसद रहे किराई और उनके परिवार की सादगी और ईमानदारी का इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज भी उनके पास पक्के मकान नहीं है.
छट्टू ऋषिदेव कहते हैं, “मौजूदा समय में नेता इतने भ्रष्ट हो गए हैं कि पंचायत का मुखिया बनने पर लाखों रुपये कमा लेते हैं.”अपने पिता से जुड़ी यादों का जिक्र करते हुए छट्टू ऋषिदेव बताते हैं, “एक बाद संसद में बहस के दौरान प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने बाबू जी (किराई ऋषिदेव) से पूछा- आपके गांव में कोई परेशानी हो तो बताइये” इस पर बाबू जी ने कहा, “पंडी जी हम्मर गामक दलित समुदाय के लोक वोही डबरा सं पाइन पीवेत छैत जय डबरा में कुक्कुर आ सुग्गर पाइन पीवेत अछि” (पंडितजी हमारे गांव में दलित समुदाय के लोग उसी गड्ढे का पानी पीते हैं, जहां कुत्ते और सूअर पानी पिया करते हैं.) किराई ऋषिदेव की वर्ष 1965 में मौत हो गयी. उन दिनों फर्रूखाबाद के तत्कालीन सांसद डॉ राममनोहर लोहिया ने उनकी मौत पर लोकसभा में 23 नवंबर 1965 में कहा था-
“अध्यक्ष महोदय, एक हमउम्र और जानदार दोस्त की मौत पर कितनी यादें आती हैं व कितनी तकलीफें होती हैं. मैं इस सदन को केवल इतना बताऊं कि जब श्री किराई ऋषिदेव चुने गये थे तो पहली मर्तबे रेल के डिब्बे में अपनी जगह पर नहीं,फर्श पर बैठे. वह ऐसी जमात से आये थे, लेकिन फिर बाद में स्वाभिमान में बढ़ते गये. जानदारी में बढ़ते गये और मैं समझता हूं कि ऐसा जानदार समाजवादी, जिसको हम कहा करते हैं जानदार समाजवादी,बहुत कम देखने को मिले हैं.
इसलिए मैं आप से यह अर्ज करूं कि जहां भारत में और सब कमियां रही हैं. यह खुशी की बात रही है कि जो दबे हुए लोग हैं- हरिजन, आदिवासी, पिछड़े, औरतें उनमें पिछले अठारह वर्षों में धीरे-धीरे कुछ निर्भीकता और कुछ स्वाभिमान जागा है. आखिर में मैं खाली एक अफसोस जाहिर कर दूं कि यह कव्ल अज वक्त मौत कुछ अभाव के कारण हुई जिसको हम लोग अपनी सीमित शक्ति के कारण दूर नहीं कर सके और एक बहुत जानदार दोस्त अपना चला गया.”

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