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ऊबड़-खाबड़ रास्तों से बाहर निकलता गणतंत्र

जयंत जिज्ञासु, लेखक जेएनयू में शोध छात्र हैं. आजादी हासिल करने के बाद एक संप्रभु, समाजवादी, लोकतंत्रात्मक गणराज्य के बनने के लिहाज से 68-70 साल कोई दीर्घावधि नहीं होती. यह सतत-अनवरत-निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है. एक ऐसा समाज जो अन्याय, ज्यादती, अमानुषी परंपराओं से क्षत-विक्षत रहा हो, वहां जनतंत्र की जड़ें धीरे-धीरे जमीन में गहरे […]

जयंत जिज्ञासु, लेखक जेएनयू में शोध छात्र हैं.

आजादी हासिल करने के बाद एक संप्रभु, समाजवादी, लोकतंत्रात्मक गणराज्य के बनने के लिहाज से 68-70 साल कोई दीर्घावधि नहीं होती. यह सतत-अनवरत-निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है. एक ऐसा समाज जो अन्याय, ज्यादती, अमानुषी परंपराओं से क्षत-विक्षत रहा हो, वहां जनतंत्र की जड़ें धीरे-धीरे जमीन में गहरे फैलने लगे. यह भी कम बड़ी उपलब्धि नहीं है. हिंदुस्तान के साथ-साथ औपनिवेशिक चंगुल से आजाद होने वाले कई मुल्क अभी तक डेमोक्रेसी की बुनियाद भी ढंग से नहीं डाल पाये हैं, कोई दहशतगर्द के हवाले है, तो कहीं सैन्य शासन की धमक सुनाई पड़ती है. पर, सवाल उठता है कि सामंती ठसक वाली सामाजिक संरचना को बदल पाने में हम कहां तक कामयाब हो पाये हैं?
फुले, गांधी, नेहरू, आंबेडकर, भगत, पेरियार, सावित्री, फातिमा, राजेंद्र, कर्पूरी की कोशिशें जमीन पर कितनी उतर पायी हैं? मसला यह नहीं कि हमारी आजादी के संघर्ष के पदचाप अभी भी सुने जा सकते हैं, नॉस्टेलजिया में रहना हमारा स्वभाव है, पर इतनी कम उम्र में हमने इतने सारे रोग पाल लिए हैं कि राष्ट्र निर्माण की सेहत को लेकर बड़ा अंदेशा रहता है. रस्किन के अनटू द लास्ट और गांधी के आखिरी इंसान के उदय की चिंता के इर्द-गिर्द ही तमाम सरकारों की कवायद चलती रही है, कम-से-कम हर दल के घोषणापत्र से तो यही ध्वनि निकलती है.
इन सालों में उपलब्धियों के नाम पर हमारे पास गिनाने को कम नहीं है, मसलन आइआइटी, आइआइएम, एम्स, जेएनयू आदि जैसे स्तरीय शिक्षण संस्थानों का होना, जो किसी भी देश की प्रगति के अहम सूचकांक होते हैं. लेकिन जब 496 विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की सामाजिक पृष्ठभूमि एक आरटीआइ के माध्यम से पता चली, तो हैरानी हुई कि दलित समाज से मात्र 6, आदिवासी समाज से 6 और पिछड़े समाज से सिर्फ 36 कुलपति थे.

यह दशा कम-से-कम समतामूलक समाज की स्थापना की जद्दोजहद को लेकर निराश करती है.

अमेरिका जैसे मुल्क में भी अफरमेटिव एक्शन (सकारात्मक कार्रवाई) का प्रावधान है. हमारे देश में भी आरक्षण की व्यवस्था लागू ही इस मंशा से की गयी थी कि एक रोज हम इस स्थिति में पहुंच जायेंगे, जहां आरक्षण की जरूरत ही समाप्त हो जायेगी. पर, जब नीयत में खोट हो और संस्थानों में बैकलॉग जानबूझ कर न भरा जाये, तो अनंत काल तक यह व्यवस्था जारी रहेगी और उपेक्षितों को उसका अपेक्षित लाभ भी नहीं मिल पायेगा. कुल मिला कर उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण के आविर्भाव के बाद आरक्षण यूं भी शनैः-शनैः निष्प्रभावी होता गया है.
कुछ लोग अपने जेहन में अपनी जाति भी लिए चलते हैं. शैक्षणिक संस्थानों में ऐसे गुटों की पहचान बड़ी आसानी से की जा सकती है. जिसने ‘पूस की रात’ कभी देखी या जी ही नहीं, वह हलकू का दर्द भला क्या जाने. अब बेवजह कुछ खास जातियों को कोसने से अगर समरस, सौहार्द पूर्ण और समतामूलक समाज की स्थापना होनी होती, तो कब की हो चुकी होती. उसी तरह दलितों के उभार के प्रति एक तरह की हेय दृष्टि, आदिवासियों के उन्नयन के प्रति उपेक्षा-भाव और पिछड़ों की उन्नति-तरक्की को संदेहास्पद ढंग से देखते हुए खारिज करने की मनोवृत्ति से अगर आप चाहते हैं कि राष्ट्रधर्म का निर्वाह हो जायेगा, आरक्षण की जरूरत समाप्त हो जायेगी, तो आप लिख लीजिए कि इस मानसिकता के साथ इस देश से आप कयामत तक आरक्षण खत्म नहीं कर पायेंगे.

समाज और मुल्क की मुख्यधारा से इन्हें जोड़ने के लिए विशेष अवसर प्रदान किया ही जाना चाहिए. संविधान का स्पिरिट है कि ‘लाइक्स विल बी ट्रीट्ड अलाइक’, कहीं नहीं उल्लिखित है कि ‘ऑल विल बी ट्रीटेड अलाइक’. समान और असमान के बीच समान स्पर्धा नहीं हो सकती. यहीं समग्रता में आरक्षण की वाजिब बहस की जरूरत महसूस होती है.

पूरे देश के अंदर उच्च शैक्षणिक संस्थानों में तदर्थ व्यवस्था के तहत अध्यापन का कार्य चल रहा है. अब जबकि लड़कियां और वंचित समूह के लोग विश्वविद्यालयों की देहरी लांघने लगे हैं, तो सरकार की यह उदासीनता राष्ट्रहित में नहीं है. हम विश्वगुरु क्यों होना चाहते हैं? क्या यह अकुलाहट अहसासे-बढ़तरी की मानसिकता नहीं है और प्रयास हमारे बिल्कुल दोयम दर्जे के. स्किल इंडिया, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ जैसे वादों-दावों का क्या होगा? आधारभूत संरचना पर ठोस काम किये बगैर हम कहीं पहुंचते हुए नहीं दिख रहे. कुछ राज्यों में डिग्री लाओ, नौकरी पाओ की झालमुड़ी नीति ने प्राथमिक शिक्षा को लगभग चौपट कर दिया है. वहीं ढिंढ़ोरावादी विकास मॉडल ने पूरे देश के झुलसते जनमानस को ओएसिस के अलावा और कुछ नहीं दिया है. मन की बात को संसद-सत्र का करीब-करीब स्थानापन्न बना दिया जाना बेहद निराशाजनक है. इस पीढ़ी का संकट यह है कि राजनैतिक संवाद के गिरते स्तर और संसद की मर्यादा को फॉर ग्रांटिड लिए जाने के दूरगामी परिणाम को आंकने की जहमत वह उठा नहीं पा रही. कहीं मुखालफत की कोई तहजीब पलती है, तो उसे देशद्रोह बता दिया जाता है. मुझे टॉमस पैन याद आते हैं जिन्होंने कहा था, “एक सच्चे देशभक्त का कर्त्तव्य है कि वह अपनी सरकार की ज्यादतियों से अपने देश की सुरक्षा करे”.
रजनी कोठारी ने एक बार कहा था कि हमारा लोकतंत्र अपनी रक्षा स्वयं कर लेगा. मैं उनकी इस बात से बिल्कुल भी इत्तफाक नहीं रखता. जम्हूरियत अपनी हिफाजत के लिए हमेशा निगरानी मांगती है. फ्रांसीसी क्रांति ने हमें इक्वैलटी-लिबर्टी-फ्रैटर्निटी (समानता-स्वतंत्रता-बंधुत्व) का जो सूत्र दिया, उसे बड़े करीने से संभाल के रखने की जरूरत है.

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