Jitiya Vrat Katha: जितिया व्रत में क्यों सुनी जाती है चील और सियारिन की कथा, जानें इसके पीछे का छुपा हुआ धार्मिक महत्व
Jitiya Vrat Katha: हिन्दू धर्म में जितिया व्रत या जीवित्पुत्रिका व्रत का विशेष महत्व है. माताएं यह व्रत अपने बच्चों की लंबी उम्र और सुख-समृद्धि की कामना से करती हैं. इस व्रत में चील और सियारिन की कथा सुनना अनिवार्य माना गया है, जो श्रद्धा, संयम और निष्ठा के महत्व को दर्शाती है.
Jitiya Vrat Katha: हिन्दू धर्म में जितिया व्रत या जीवित्पुत्रिका व्रत का विशेष स्थान है. यह व्रत माताएं अपने बच्चों की लंबी आयु और सुख-समृद्धि की कामना से करती हैं. इस व्रत के नियम अत्यंत कठिन होते हैं—महिलाएं पूरे दिन निर्जला उपवास रखती हैं और संध्या समय जीमूतवाहन देव की पूजा करती हैं. परंपरा के अनुसार, इस व्रत में चील और सियारिन की कथा सुनना आवश्यक माना जाता है.
चील और सियारिन का संकल्प
कथा के अनुसार, एक बार चील (गरुड़ पक्षी) और सियारिन (लोमड़ी) दोनों ने जितिया व्रत रखने का निश्चय किया. व्रत के दिन दोनों ने उपवास शुरू किया. चील ने पूरे नियम और संयम का पालन किया और बिना अन्न-जल ग्रहण किए संध्या तक व्रत निभाया. वहीं, सियारिन व्रत की कठिनाई सहन न कर सकी और बीच में ही मांस खा लिया.
धर्मराज का निर्णय
व्रत समाप्त होने के बाद धर्मराज प्रकट हुए और उन्होंने दोनों के आचरण के आधार पर फल सुनाया. उन्होंने कहा कि नियमपूर्वक व्रत करने वाली चील को ही इसका पुण्य मिलेगा, जबकि सियारिन को कोई फल प्राप्त नहीं होगा. परिणामस्वरूप, चील की संतान दीर्घायु और सुखी जीवन प्राप्त करती है, जबकि सियारिन की संतान अल्पायु और कष्टमय जीवन जीती है.
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कथा से मिलने वाली सीख
यह कथा इस बात का प्रतीक है कि व्रत केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि श्रद्धा, संयम और नियमों के साथ करना चाहिए. महिलाओं को यह संदेश मिलता है कि जैसे चील ने कठिन परिस्थितियों में भी व्रत नहीं तोड़ा, वैसे ही व्रती माताएं धैर्य और आस्था के साथ उपवास करें. तभी यह व्रत फलदायी माना जाता है और संतान को लंबी उम्र व सुख-समृद्धि प्राप्त होती है.
कथा सुनने की परंपरा
इसी कारण जितिया व्रत में चील और सियारिन की कथा सुनना अनिवार्य माना गया है. यह परंपरा महिलाओं को धर्म, संयम और निष्ठा का महत्व समझाती है और उन्हें व्रत के वास्तविक उद्देश्य से जोड़ती है.
जितिया व्रत कब है
इस वर्ष अष्टमी तिथि का आरंभ 14 सितंबर को प्रातः 05:04 बजे होगा और इसका समापन 15 सितंबर को सुबह 03:06 बजे होगा. शास्त्रों में उदयातिथि को विशेष महत्व दिया गया है. इसलिए माताएं 14 सितंबर को सूर्योदय से पहले जल और भोजन ग्रहण कर तैयार होती हैं और फिर सूर्योदय से लेकर अगले दिन के सूर्योदय तक निर्जला व्रत करती हैं.
