झुलनिया का धक्का: क्यों बलम कलकत्ता जाने को मजबूर हुए?

Jhulaniya Ke Dhakka: बिहार के सासाराम से वोटर अधिकार यात्रा की शुरुआत के साथ लालू यादव ने एक बार फिर भोजपुरी गीत “लागल-लागल झुलनिया के धक्का बलम कलकत्ता चलअ” की शुरुआती लाइनें दोहरायीं. हालांकि इसका संदर्भ दूसरा है. आइए जानें और समझें इस बीत के पीछे छिपा है प्रवासी बिहारी समाज का संघर्ष. जानें कैसे पत्नी का प्यार भरा उलाहना, पति को कमाने के लिए कलकत्ता जाने पर मजबूर करता था

By Rajeev Kumar | August 17, 2025 6:14 PM

Jhulaniya Ke Dhakka: महागठबंधन की वोटर अधिकार यात्रा (Voter Adhikar Yatra) का शुभारंभ रविवार को सासाराम से हुआ, जिसमें राहुल गांधी (Rahu Gandhi), तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) समेत गठबंधन के कई दिग्गज नेता मौजूद रहे. आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad Yadav) भी इस यात्रा में शामिल हुए और हमेशा की तरह अपने ठेठ अंदाज में नजर आए. मंच से उन्होंने भोजपुरी गीत (Bhojpuri Song) की पंक्तियां दोहराकर बीजेपी (BJP) पर निशाना साधा. लालू ने भाजपा पर वोट चोरी का आरोप लगाते हुए कहा- “लागल-लागल झुलनिया के धक्का, बलम कलकत्ता चलअ…” (Lagal Lagal Jhulaniya Ke Dhakka Balam Calcutta Chala) उनका संकेत साफ था कि विरोधियों को ऐसा धक्का देंगे कि वे बहुत दूर चले जाएंगे. बता दें कि लालू यादव पिछले कुछ वर्षों से लगभग हर सभा में यह गीत सुनाते आ रहे हैं, लेकिन इसका अर्थ कुछ और है…

लागल-लागल झुलनिया के धक्का, बलम कलकत्ता चलअ…: लालू के नजरिये से राजनीतिक मायने

लालू यादव ने बीजेपी पर वोट चोरी का आरोप लगाते हुए भोजपुरी गीत की पंक्ति दोहरायी: लागल-लागल झुलनिया के धक्का बलम कलकत्ता चलअ. इसका प्रतीकात्मक अर्थ है- विरोधियों को ऐसा चुनावी झटका देना कि वे मैदान से बाहर हो जाएं. यह बयान सासाराम में दिया गया, जो भोजपुरी भाषी क्षेत्र है और जहां पिछड़ी, दलित और मुस्लिम आबादी की बहुलता है.महागठबंधन ने इस क्षेत्र में पहले क्लीन स्वीप किया था, और लालू ने इस गीत के जरिये बहुजन वोटरों को भावनात्मक रूप से जोड़ने की कोशिश की. लालू यादव खुद भोजपुरी भाषी हैं और लोकगीतों के रसिया हैं. वे अक्सर अपने भाषणों में लोकोक्तियों और देसज कहावतों का जिक्र करते हैं ताकि आम जनता से भावनात्मक जुड़ाव बना सकें.

लागल-लागल झुलनिया के धक्का, बलम कलकत्ता चलअ…: लोकगीत का सांस्कृतिक अर्थ यह है

यह भोजपुरी गीत सिर्फ एक बोल नहीं, बल्कि बिहारी समाज के उस दौर की हकीकत है जब लाखों लोग रोजगार की तलाश में कलकत्ता (अब कोलकाता) का रुख करते थे. पत्नी का प्यार भरा उलाहना ही पति के लिए सबसे बड़ा धक्का बनता, जो उसे कमाने और जिम्मेदारी निभाने के लिए मजबूर कर देता था. “बलम कलकत्ता चलअ” का मतलब है कि रोजगार की तलाश में गांवों से पुरुषों का शहरों की ओर पलायन, जो ग्रामीण समाज को बेशक खालीपन और दर्द में उतार जाता है, लेकिन इसके पीछे होती है बेहतर भविष्य की चाह.

झुलनिया का धक्का क्या है?

“झुलनिया का धक्का” दरअसल शादी के बाद पत्नी का वह ताना है, जब पति के पास कोई काम-धंधा या आय का साधन नहीं होता. पत्नी प्यार से समझाती –
“पैसा ना रही त रउरा के केहू ना पूछी, खाली प्रेम से जीवन ना चली.”
यानी केवल प्यार से जिंदगी नहीं चलती, घर चलाने के लिए कमाई जरूरी है.

क्यों चुना गया कलकत्ता?

सन 1911 तक कलकत्ता भारत की राजधानी रहा और यहां ढेरों कल-कारखाने थे. यही वजह रही कि बिहार और पूर्वांचल के लोग नौकरी और मजदूरी के लिए यहीं आते. ट्रेन पकड़कर बलम (पति) कलकत्ता जाते और किसी भी छोटे-मोटे काम या व्यापार से घर का खर्च चलाते.

कलकत्ता जाकर क्या मिला?

  • कई लोग मेहनत करके धनी-मानी हो गए और गांव लौटकर जमीन-जायदाद खरीद ली
  • कुछ ने स्थायी बिजनेस जमाया और परिवार की जिंदगी बदल दी
  • लेकिन बहुत से लोग सिर्फ खाए-पिए बराबर रहे, यानी जितना कमाया उतना खर्च हो गया, बचत नहीं हो पाई.

झुलनिया के धक्के ने बदली किस्मत

यह गीत बताता है कि कैसे पत्नी का छोटा-सा ताना पति को जिम्मेदार बनाता है. “झुलनिया का धक्का” ही वह ताकत बना, जिसने बिहारी पुरुषों को प्रवास के लिए प्रेरित किया. यही कारण है कि कलकत्ता प्रवास ने हजारों परिवारों की किस्मत बदल दी.

पीढ़ियों से लोक में प्रिय रहा यह गीत

झुलनिया के धक्का एक रूपक है, जो भोजपुरी लोकगीतों में पत्नी के तानों या उलाहनों को दर्शाता है, जो पति को बेरोजगारी की स्थिति में काम की तलाश में मजबूर कर देता है. गीत लागल-लागल झुलनिया के धक्का बलम कलकत्ता चलअ उस दौर की सामाजिक सच्चाई को दर्शाता है जब बिहार और पूर्वांचल के लोग, खासकर किसान और मजदूर वर्ग, आजीविका की तलाश में कलकत्ता, आसाम या बर्मा जैसे स्थानों की ओर पलायन करते थे. यह लोकगीत वाचिक परंपरा का हिस्सा है और पीढ़ियों से लोक में लोकप्रिय रहा है, भले ही इसके रचनाकार का नाम ज्ञात न हो.

पूरब देश की ओर पलायन की पीड़ा से जन्मे कई महान कलाकार

भोजपुरी लोकगीतों की परंपरा में पलायन एक केंद्रीय भाव रहा है, जिसने इसकी रचनात्मकता और भावनात्मक गहराई को समृद्ध किया है. कोलकाता और पूरब देश की ओर पलायन की पीड़ा ने रसूल मियां, भिखारी ठाकुर और महेंद्र मिसिर जैसे महान कलाकारों को जन्म दिया. भिखारी ठाकुर की बिदेसिया और गबरघिचोर जैसे नाटकों में कोलकाता जाने वाले पुरुष और पीछे छूट गई स्त्री की वेदना को मार्मिक रूप से दर्शाया गया है. वहीं महेंद्र मिसिर की पूरबी शैली में स्त्री मन के विरह और पलायन की पीड़ा को गहराई से उकेरा गया है.

पलायन के केंद्र बदले, कोलकाता आज भी भावनात्मक प्रतीक

भोजपुरी के विभिन्न जातीय लोकनृत्य और गीतों जैसे गोंड़ऊ नाच, अहिरऊ, कहरऊ, लोरिकाइन आदि में भी पूरब देश का उल्लेख मिलता है, जो पलायन के प्रतीक के रूप में उभरता है. कोलकाता, बर्मा और असम जैसे क्षेत्रों में काम की तलाश में गये लोगों की कहानियां इन गीतों में जीवंत होती हैं. हालांकि 1980 के बाद पलायन के केंद्र दिल्ली, मुंबई, सूरत जैसे शहरों में शिफ्ट हो गए, फिर भी कोलकाता भोजपुरी लोकगीतों में आज भी भावनात्मक प्रतीक बना हुआ है.

पलायन आज भी भोजपुरी समाज की बड़ी सच्चाई

समकालीन भोजपुरी गीतों में कोलकाता का जिक्र अब स्त्री देह की वस्तुकरण की ओर झुकता दिखता है, जहां पहले जादू-टोना जैसे रूपकों में बंगाली स्त्रियों का उल्लेख होता था, अब उन्हें आइटम गीतों में प्रस्तुत किया जाता है. पलायन आज भी भोजपुरी समाज की बड़ी सच्चाई है, और चुनावी माहौल में यह मुद्दा फिर से चर्चा में है. कोलकाता केवल एक शहर नहीं, बल्कि भोजपुरिया भावनाओं का हिस्सा है, जिसे लोकगीतों ने पीढ़ियों से संजो कर रखा है.

प्रवासी बिहारी समाज की आर्थिक कहानी

“झुलनिया का धक्का” सिर्फ गीत नहीं, बल्कि प्रवासी बिहारी समाज की आर्थिक कहानी है. इसने यह सिखाया कि जीवन में जिम्मेदारी और रोजगार कितने जरूरी हैं.

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