सुनवाई के बाद फैसले में देरी नुकसानदेह
Delay In Judgment : सुप्रीम हस्तक्षेप के बाद 10 याचिकाओं का निपटारा हो गया. उनमें से अधिकांश मामले गरीब लोगों से जुड़े थे. इलाहाबाद हाईकोर्ट का हाल तो और भी बेहाल है. वहां एक मामले में दिसंबर, 2021 में सुनवाई पूरी होने के बाद जनवरी, 2025 तक आदेश पारित नहीं हुआ.
Delay In Judgment : अग्रिम जमानत के मामले में पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट में सुनवाई खत्म होने के तीन सप्ताह बाद तक आदेश जारी नहीं हुआ. सुप्रीम कोर्ट में याचिका के बाद हाईकोर्ट की वेबसाइट में आदेश अपलोड हो गया. सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के जज साहब के स्टेनो की डायरी जब्त करने और एनआइसी के लॉग रिकॉर्ड की जांच का आदेश दिया है. सुनवाई खत्म होने के बाद आदेश जारी करने में देरी का मर्ज देशव्यापी होने के साथ बहुत पुराना है. एक अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के जज सूर्यकांत की पीठ ने झारखंड हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल से स्टेटस रिपोर्ट मंगायी. उसके अनुसार जनवरी, 2022 से दिसंबर, 2024 के दौरान 56 मामलों में सुनवाई खत्म होने के बावजूद आदेश जारी नहीं हुए थे.
सुप्रीम हस्तक्षेप के बाद 10 याचिकाओं का निपटारा हो गया. उनमें से अधिकांश मामले गरीब लोगों से जुड़े थे. इलाहाबाद हाईकोर्ट का हाल तो और भी बेहाल है. वहां एक मामले में दिसंबर, 2021 में सुनवाई पूरी होने के बाद जनवरी, 2025 तक आदेश पारित नहीं हुआ. उस मामले में सुप्रीम कोर्ट के जज प्रशांत कुमार मिश्रा ने 25 अगस्त के फैसले में कहा कि ऐसे विलंब से न्यायपालिका के प्रति लोगों का भरोसा कमजोर होता है. उन्होंने यह भी कहा कि ऐसे विलंब से निपटने के लिए हाईकोर्टों में शिकायत निवारण का प्रभावी तंत्र नहीं है. इससे पहले अक्तूबर, 2020 के फैसले में जस्टिस संजय किशन कौल ने महाराष्ट्र में औरंगाबाद हाईकोर्ट के फैसलों के विलंब पर रोष व्यक्त किया था.
यह धारणा मजबूत हो रही है कि ताकतवर लोगों के मामलों में जल्द सुनवाई के साथ त्वरित फैसले हो जाते हैं. मुकदमों में विलंब का खामियाजा अधिकांशतः कमजोर और गरीब लोगों को भुगतना पड़ता है. फैसले में विलंब से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलने के साथ न्यायिक अनुशासन को भी ठेस पहुंचती है. सिविल प्रोसिजर कोड (सीपीसी) के अनुसार सुनवाई खत्म होने के 30 दिन में आदेश जारी होना चाहिए. विशेष मामलों में यह अवधि 60 दिन हो सकती है. पुराने क्रिमिनल प्रोजिसर कोड (सीआरपीसी) में ट्रायल खत्म होने के बाद जल्द फैसले के नियम के बावजूद स्पष्ट समयसीमा निर्धारित नहीं थी. नये बीएनएसएस कानून के अनुसार सुनवाई खत्म होने के 45 दिन के भीतर आदेश जारी होना चाहिए.
अनिल राय बनाम बिहार सरकार के 2001 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जजों के फैसले के लिए समयसीमा निर्धारित करने का आदेश दिया था. उसमें चीफ जस्टिस काफ्रेंस की 1989-90 की रिपोर्ट का जिक्र है. उसके अनुसार सुनवाई खत्म होने के छह सप्ताह के भीतर लिखित फैसला जारी होना चाहिए. अगर तीन महीने के भीतर फैसला न हो, तो खुली अदालत में फैसला जारी करने के लिए हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस आदेश दे सकते हैं. वह मामले को दूसरे जज के पास सुनवाई के लिए भी भेज सकते हैं. पर फैसला लिखने में देरी करने वाले जजों को दंडित करने की बजाय उनके द्वारा मामले की दोबारा सुनवाई होने से पक्षकारों की पीड़ा और बढ़ जाती है.
सुनवाई खत्म होने के बाद लिखित फैसला जारी करने में देरी और मुकदमे की सुनवाई में देरी, दोनों अलग-अलग बातें हैं. सुनवाई में देरी से जिला अदालतों में 4.6 करोड़ और हाईकोर्ट में 63.30 लाख मुकदमे लंबित हैं. कलकत्ता हाईकोर्ट में 2,185 मुकदमे 50 वर्ष से ज्यादा समय से लंबित हैं. दिल्ली की जिला अदालतों में लंबित 15.62 लाख मुकदमों में से 2.21 लाख मुकदमों में स्टे मिला है. आपराधिक मुकदमों में जमानत और सिविल मुकदमों में स्थगन के बाद मुख्य मामलों की सुनवाई और फैसला टलता रहता है. सुप्रीम कोर्ट की ‘प्रिजन इन इंडिया-2024’ की रिपोर्ट के अनुसार जेलों में बंद 70 फीसदी कैदी गरीब परिवार से हैं. झारखंड के 56 मामलों में सुनवाई के बावजूद फैसलों में देरी से साफ है कि गरीबों के पास पैरवी के लिए अच्छे वकील न होने से उन्हें जल्द न्याय नहीं मिलता.
गरीबों की निःशुल्क कानूनी मदद के लिए सरकार की विधिक सेवा योजना भी मकसद पूरा करने में विफल है. सोशल मीडिया में व्यंग्य चल रहा है कि आवारा कुत्तों को तुरंत राहत मिल गयी, पर आम जनता को जीवनकाल में न्याय नहीं मिलता. सरकारी डीटीसी बस में 15 यात्रियों को बिना टिकट यात्रा कराने के आरोप में बर्खास्त कंडक्टर को सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले से राहत मिली. पर कई दशक की मुकदमेबाजी के बाद सुप्रीम कोर्ट में अपील की सुनवाई में देरी के दौरान कंडक्टर की मृत्यु हो गयी. ऐसी देरी से न सिर्फ पक्षकारों का भरोसा कमजोर होता है, बल्कि देश की आर्थिक प्रगति में बाधा भी होती है.
हाईकोर्ट के सिविल मुकदमों में सिविल प्रोसिजर कोड (सीपीसी) की धारा-151 के अनुसार अर्जियां दायर होती हैं. इसलिए संवैधानिक अदालतों पर भी सीपीसी के प्रावधान लागू होते हैं. संविधान के अनुच्छेद-141 के अनुसार भी इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले हाईकोर्ट के जजों पर बाध्यकारी हैं. उसके बावजूद सुनवाई के बाद फैसलों में देरी के बढ़ते देशव्यापी मर्ज से कई सवाल खड़े होते हैं. पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट के मामले में स्टेनो की डायरी जब्त करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश से जाहिर है कि ऐसे विलंब के पीछे न्याय को प्रभावित करने वाले दूसरे कारण भी हो सकते हैं. लिखित आदेश में विलंब से जनता की अपील का अधिकार भी बाधित होता है.
हाईकोर्ट संवैधानिक अदालत हैं और उनका स्वतंत्र क्षेत्राधिकार भी है, लेकिन संवैधानिक उत्तरदायित्व के निर्वहन के लिए जजों को संक्षिप्त और सारगर्भित फैसले लिखने चाहिए. इसके लिए जटिल मामलों की सुनवाई के बाद फैसलों को तुरंत लिखवाने और वेबसाइट में अपलोड करने से पारदर्शिता के साथ न्यायिक सिस्टम में ईमानदारी भी बढ़ सकती है. अगर आम आदमी सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन करे, तो उसके खिलाफ अवमानना का मामला चल सकता है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन न होने पर पुलिस महानिदेशक और मुख्य सचिव के खिलाफ भी अवमानना मामलों में सख्त आदेश पारित होते हैं. जजों को संवैधानिक सुरक्षा हासिल है और उनके खिलाफ अवमानना का मामला नहीं चल सकता. इसके बावजूद कानूनी प्रक्रिया और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का उल्लंघन करने वाले जजों के खिलाफ प्रतिकूल प्रविष्टि के साथ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जा सकती है. इससे मुकदमों का जल्द निपटारा होने के साथ न्यायिक व्यवस्था के प्रति लोगों का भरोसा और सम्मान बढ़ेगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
