फिलीस्तीन की आड़ में तुष्टीकरण

केरल फिलीस्तीन एकजुटता के नाम पर अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की खतरनाक विभाजनकारी प्रतिस्पर्धी प्रदर्शनवाद के जिन्न से ग्रस्त है. मुस्लिम लीग द्वारा समर्थित सत्तारूढ़ सीपीएम इस्राइल के खिलाफ उग्र बयानबाजी में पीछे नहीं है.

By प्रभु चावला | November 21, 2023 8:43 AM

माना जाता है कि अनगिनत सदियों पहले ऋषि परशुराम ने अपनी कुल्हाड़ी अरब सागर में फेंक दी थी. ऋषि का अपना देश जल से उभरा, जो हिंदू धर्म की परम शक्ति का प्रतीक है. इसके जन्म के मिथक पर स्थानीय वैश्विक सांप्रदायिकता की नयी वास्तविकता हावी है, जो केरल के दो प्रमुख दलों- कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा पोषित है. गाजा और कोझिकोड के बीच की 4,780 किलोमीटर की दूरी नफरत फैलाने में अवरोध नहीं है. धार्मिक कट्टरता से उत्साहित और पहचान की राजनीति से प्रेरित कोझिकोड के लोग कुछ दिन पहले सात अक्टूबर को हुए जनसंहार के बाद गाजा पट्टी पर इस्राइल के घातक हमलों के खिलाफ सड़क पर उतरे.

इसी तरह के सामी-विरोधी विरोध प्रदर्शन और उपद्रव उन देशों में भी हो रहे हैं, जहां प्रवासियों की संख्या अधिक है. इनके पीछे सेकुलर अनुदारवादी हैं. लेकिन कोझिकोड में जो आक्रोश व्यक्त हुआ, वह सांप्रदायिक रूप से जहरीला था, जिसमें हमास के आतंकियों का समर्थन किया गया. इस प्रदर्शन को सभी इस्लामी राजनीतिक और धार्मिक समूहों का पूरा समर्थन था. मलयाली केफिये पर सबसे बड़ा दाग हमास के नेता खालेद मशाल का लाइव वर्चुअल संबोधन था. ऐसा विशेषाधिकार किसी अन्य देश में हमास के किसी आतंकी को नहीं मिला.

भारत में अन्यत्र छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों और अनुदार अभिजात्यों वर्गों ने अपनी अस्वीकृति को सार्वजनिक बयानों और निजी व्यथा तक सीमित रखा, पर केरल के हमास समर्थक प्रदर्शन ने राष्ट्रीय सुरक्षा और राज्य में सांप्रदायिक सद्भाव पर गंभीर सवाल खड़े कर दिये. साल 2019 में कांग्रेस द्वारा जीती 52 लोकसभा सीटों में से 15 केरल से हैं, जिनमें राहुल गांधी की सीट भी शामिल है. भारतीय यूनियन मुस्लिम लीग के पास दो और सीपीएम के पास एक सांसद है. भाजपा राज्य में शून्य है. लेकिन अकेले किसी मुस्लिम संगठन को ही दोष नहीं दिया जा सकता. केरल फिलीस्तीन एकजुटता के नाम पर अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की खतरनाक विभाजनकारी प्रतिस्पर्धी प्रदर्शनवाद के जिन्न से ग्रस्त है. मुस्लिम लीग द्वारा समर्थित सत्तारूढ़ सीपीएम इस्राइल के खिलाफ उग्र बयानबाजी में पीछे नहीं है.

लाल उपद्रवियों ने आतंकी से शांति के वाहक बने यासर अराफात की पुण्यतिथि पर एक विशाल रैली का आयोजन किया, जो फिलीस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन के नेता थे और इंदिरा गांधी के पसंदीदा थे. कोझिकोड में मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने इस्राइली प्रधान मंत्री बेंजामिन नेतन्याहू से ज्यादा मोदी सरकार को निशाना बनाया. उन्होंने कहा, ‘भारत इस्राइल में निर्मित हथियारों का सबसे बड़ा उपभोक्ता है. भारतीय करदाताओं का पैसा बेगुनाह फिलीस्तीनी बच्चों को मारने के लिए नहीं दिया जाना चाहिए. इसलिए भारत को इस्राइल के साथ सभी सैन्य सौदों को रद्द कर देना चाहिए और उससे राजनयिक संबंध तोड़ देना चाहिए’, और यह कि ‘इस्राइल सबसे बड़े आतंकी देशों में से एक है. भारत के वर्तमान शासकों का ‘जायनवादी’ पक्षपात कतई अचरज की बात नहीं.’ भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के सुरेंद्रन ने प्रतिक्रिया में कहा, ‘सीपीएम की रैली में मंच पर केवल दाढ़ी वाले मौलवी ही मौजूद थे. इससे लोगों में यह संदेह पैदा हो गया है कि वामपंथी पार्टी ने अपना नाम कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ मौलवी रख लिया है.’

कांग्रेस ने 23 नवंबर को कोझिकोड में एक बड़ी रैली का एलान किया है. दोनों पार्टियां चुनावी फायदे के लिए फिलीस्तीनियों की लाशों पर राजनीति कर रही हैं. दोनों को मुस्लिम समुदाय के सक्रिय समर्थन के बिना बहुमत नहीं मिल सकता है, जो राज्य की आबादी का लगभग 35 प्रतिशत हिस्सा हैं- राष्ट्रीय औसत का दोगुना. हालांकि, कांग्रेस ने इस रैली को स्थानीय आयोजन बना दिया है क्योंकि राष्ट्रीय नेतृत्व की प्रतिक्रिया अस्पष्ट है. मल्लिकार्जुन खरगे या गांधी परिवार से कोई जैसे प्रमुख नेता इसमें शामिल नहीं हो रहे हैं. केरल से आने वाले कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल इसे संबोधित करेंगे. गाजा समर्थक इससे इनकार करते हैं कि केरल की घटनाओं का हमास से कोई लेना-देना नहीं है और उनपर अनुचित आरोप लग रहे हैं.

शायद मालाबार के मुस्लिमों की फिलीस्तीन के प्रति सहानुभूति के सूत्र इतिहास में हैं. पश्चिम एशिया के मुस्लिम सातवीं सदी में मालाबार आये और हिंदुओं को निष्कासित कर जमींदार बन गये. इतिहासकारों के अनुसार, फारस सागर से होने वाले अरब व्यापार की बढ़त ने कोझिकोड को ‘मसालों का शहर’ का उपनाम दिया. इन व्यापारियों को स्थानीय लड़कियों से शादी करने और व्यवसाय करने की उदार अनुमति दी गयी थी. वे बड़ी संख्या में यहां बस गये. उन्हें ‘मोपला’ (दामाद) कहा जाता था. जब 18वीं सदी के अंत तक जमीन का मालिकाना मूल हिंदू जामियों (जमींदारों) को काफी हद तक बहाल कर दिया गया, तो मोपला इसे पचा नहीं सके. साल 1921 में उन्होंने हिंदू जमींदारों के खिलाफ विद्रोह कर दिया. हालांकि इसे एक ब्रिटिश विरोधी विद्रोह के रूप में दिखाया गया था, पर दंगे की प्रकृति हिंदू विरोधी थी.

बीआर आंबेडकर और एनी बेसेंट जैसे उदारवादी नेताओं ने भी लिखा है कि मोपला विद्रोह एक कृषि विद्रोह नहीं था, बल्कि केरल के हिंदुओं को खत्म करने के लिए किया गया था. बेसेंट का कहना था, ‘उन्होंने खिलाफत राज की स्थापना की, एक राजा बनाया, भारी लूट-मार की तथा धर्मत्याग नहीं करने वाले सभी हिंदुओं को मार डाला या भगा दिया.’ आंबेडकर अधिक आक्रामक थे, ‘यह ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह था, यह तो समझ में आता है. लेकिन सबसे ज्यादा हैरानी की बात यह थी मालाबार के हिंदुओं के साथ मोपलाओं का व्यवहार.’ उन्होंने आगे कहा, ‘यह कोई हिंदू-मुस्लिम दंगा नहीं था. मृत, घायल या धर्म परिवर्तन करने वाले हिंदुओं की संख्या ज्ञात नहीं है. लेकिन संख्या बहुत अधिक रही होगी.’

सौ से अधिक वर्षों बाद प्राचीन घृणा की चिंगारियां सार्वजनिक विमर्श में हावी हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कट्टरपंथियों के हाथों सैकड़ों कार्यकर्ताओं को खोया है. लेकिन केरल के सामाजिक परिदृश्य के एकतरफा ध्रुवीकरण को बदलने का उसका संघर्ष विफल हो रहा है. पूरे भारत ने इस्राइल-अरब संघर्ष पर मध्य मार्ग अपनाया है, केरल का एक बड़ा वर्ग सांप्रदायिक और सांस्कृतिक पतन के रास्ते पर है. यह एक नये दक्षिण भारत के एक पक्षपाती, कुरूप चेहरे का प्रतिनिधित्व करता है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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