जलवायु विस्थापितों के लिए नीति बनानी होगी
climate displaced : मानवीय पलायन सिर्फ मानव श्रम का स्थानांतरण नहीं होता, उसके साथ बहुत-से लोक ज्ञान, मानव सभ्यता, पारंपरिक जैव विविधता का भी अंत हो जाता है. सुंदरवन के सिमटने और उसका असर गंगासागर तक पड़ने से वहां के लोगों को अपना घर-खेत छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा है.
climate displaced : पिछले दिनों ब्राजील में संपन्न हुए पर्यावरण संरक्षण के सबसे बड़े आयोजन ‘कॉप-30’ में एक बड़ा प्रश्न अनुत्तरित रह गया कि जलवायु परिवर्तन से उपज रही आपदाओं के कारण विस्थापित हो रहे लोगों के लिए आसरे से लेकर रोजगार तक के संकट से कैसे निपटा जाये. संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय प्रवासन संगठन (आइओएम) ने सम्मेलन में जानकारी दी थी कि दुनियाभर में लोग पहले से ही या तो विस्थापित हो रहे हैं या इससे बचे रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
बाढ़, भीषण गर्मी, सूखा, तूफान और रेगिस्तान बनने, समुद्र स्तर में वृद्धि, ग्लेशियरों के पिघलने जैसी धीरे-धीरे होने वाली घटनाएं आजीविका और जीवन को प्रभावित कर रही हैं. वर्ष 2024 में ऐसी आपदाओं के कारण अपने देश की सीमाओं के भीतर साढ़े चार करोड़ से अधिक लोग जबरन प्रवासित हुए. यह अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा है. दुर्भाग्यपूर्ण है कि वैश्विक समाज ने इतनी बड़ी मानवीय त्रासदी पर कोई निर्णायक रवैया नहीं अपनाया. भारत जैसे देश अब जलवायु विस्थापन की त्रासदी के बड़े शिकार हो रहे हैं.
असम में ब्रह्मपुत्र की तेज धाराओं के बीच स्थित दुनिया का सबसे बड़ा नदी द्वीप माजुली 1951 में लगभग 1,250 वर्ग किलोमीटर में फैला था, और आबादी 81,000 थी. अगले 60 वर्षों में इसकी आबादी बढ़ कर 1,67,000 हो गयी, पर द्वीप का क्षेत्रफल दो-तिहाई कम हो गया था. विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि हिमालय के पिघलते ग्लेशियरों के साथ ब्रह्मपुत्र में तीव्र होते जलप्लावन से 2040 तक माजुली लुप्त हो सकता है. उस द्वीप से हर वर्ष हजारों लोग पलायन करते हैं. दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश में अभी तक जलवायु पलायन को लेकर कोई नीति नहीं बनी.
मानवीय पलायन सिर्फ मानव श्रम का स्थानांतरण नहीं होता, उसके साथ बहुत-से लोक ज्ञान, मानव सभ्यता, पारंपरिक जैव विविधता का भी अंत हो जाता है. सुंदरवन के सिमटने और उसका असर गंगासागर तक पड़ने से वहां के लोगों को अपना घर-खेत छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा है. सुंदरवन का लोहाचारा द्वीप 1991 में गायब हो गया, जबकि बंगाल की खाड़ी से लगभग 30 किलोमीटर उत्तर में घोरमारा में पिछले कुछ दशकों में अभूतपूर्व क्षरण देखा गया है. हमारे तटीय क्षेत्र, जहां लगभग 17 करोड़ लोग रहते हैं, बदलते जलवायु की मार से सर्वाधिक प्रभावित हैं.
यहां रहने वालों को समुद्र के जल स्तर में वृद्धि, कटाव और उष्णकटिबंधीय तूफान तथा चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है. बंगाल की खाड़ी में अभी तक का सबसे शक्तिशाली तूफान ‘चक्रवात अंफान’ आया, जिससे कई लाख लोगों को घर खाली करने के लिए मजबूर होना पड़ा. सबसे खतरनाक कटाव समुद्री किनारों का है, जो गांव के गांव उदरस्थ कर रहा है. जल स्तर बढ़ने से महानगरों के भी डूबने की चेतावनियां दी जा रही हैं.
वैश्विक रूप से चरम मौसम से पलायन का सर्वाधिक खामियाजा महिलाओं और बच्चों को भुगतना पड़ता है. भारत में बाढ़ और तूफान ने बीते छह वर्षों में 67 लाख बच्चों को बेघर कर दिया है. ये बच्चे स्कूल छोड़ने के लिए भी मजबूर हुए हैं. यूनिसेफ तथा इंटरनल डिसप्लेसमेंट मॉनिटरिंग सेंटर के 2016 से 2021 तक किये गये अध्ययन से यह खुलासा हुआ है. भारत, चीन तथा फिलीपींस के 2.23 करोड़ बच्चे विस्थापित हुए हैं. इन देशों में बच्चों के बेघर होने के पीछे भौगोलिक स्थिति जैसे मॉनसून की बारिश, चक्रवात और चरम मौसम की बढ़ती घटनाएं भी हैं.
भारत में, 2011 की जनगणना के अनुसार, लगभग 45 करोड़ लोग प्रवासित हुए, जिनमें से 64 प्रतिशत लोग ग्रामीण क्षेत्र से थे. प्रवासियों का एक बड़ा हिस्सा कम आय वाले राज्यों- उत्तर प्रदेश और बिहार से है. दोनों राज्य दक्षिण एशिया के सबसे अधिक खेती वाले गांगेय क्षेत्र से आते हैं. घर छोड़ कर जाने वाले कुछ लोग तो महज थोड़े दिनों के लिए काम करने गये, लेकिन अधिकांश का पलायन स्थायी हुआ. यह जनसंख्या मुख्य रूप से हाशिये पर रहने वालों की थी, जो कृषि पर निर्भर थी. गांगेय क्षेत्र भारत का सबसे घनी आबादी वाला क्षेत्र है. हाल के दशक के दौरान इन क्षेत्रों से पलायन की गति तेज हो गयी है और इस प्रवृत्ति के भविष्य में भी जारी रहने की आशंका है.
जब रोजगार के लिए महानगरों की ओर पलायन बढ़ता है, तो यह पहले से ही सघन आबादी वाले क्षेत्रों में स्वास्थ्य, साफ पानी, परिवहन आदि की दिक्कतें उत्पन्न करता है. दुर्भाग्य है कि अभी हमारे यहां जलवायु संबंधी खतरों के कारण अपने घरों से विस्थापितों के लिए कोई माकूल योजना है ही नहीं. पर्यावरणीय शरणार्थी, जलवायु शरणार्थी, जलवायु विस्थापित और पर्यावरण विस्थापित जैसे शब्द अभी सरकारी दस्तावेजों में आये नहीं हैं. इनके लिए कोई अलग श्रेणी नहीं है और न ही जलवायु प्रवासियों से निपटने के लिए कोई योजना है. गंभीरता से देखें, तो देश की आजादी के सौ वर्ष पूरे होने पर हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती और त्रासदी होगी अपनी जड़ों से उखड़कर मजबूरी में किसी अनजान स्थान पर जीने की जद्दोजहद करने वाले कई करोड़ लोग, जिनके पास अपने लोक, परंपरा, आस्था के कोई अतीत-निशान नहीं होंगे.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
