28.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

सौंदर्यबोध का विरोधाभास

सन्नी कुमार टिप्पणीकार sunnyand65@gmail.com हमारे ऑफिस में दैनंदिन सहयोगी के रूप में कार्यरत एक स्टाफ के बारे में अक्सर अपने कलीग से सुनने को मिलता है कि ‘देखने में कहीं से यह दैनंदिन सहयोगी नहीं लगता. कितना गोरा, कितना स्मार्ट है. क्या पर्सनालिटी है इसकी. इसको तो किसी अच्छे काम में होना चाहिए, आदि. आप […]

सन्नी कुमार
टिप्पणीकार
sunnyand65@gmail.com
हमारे ऑफिस में दैनंदिन सहयोगी के रूप में कार्यरत एक स्टाफ के बारे में अक्सर अपने कलीग से सुनने को मिलता है कि ‘देखने में कहीं से यह दैनंदिन सहयोगी नहीं लगता. कितना गोरा, कितना स्मार्ट है. क्या पर्सनालिटी है इसकी. इसको तो किसी अच्छे काम में होना चाहिए, आदि.
आप सब भी कभी न कभी इस प्रकार के संवाद में सहभागी रहे होंगे, जब सिर्फ रंग-रूप के आधार पर हम उसके पेशे का अनुमान कर रहे होते हैं और जब यह हमारी सोच के विपरीत आती है, तो हम अनायास ही उसके प्रति एक किस्म की सहानुभूति व्यक्त करने लगते हैं. इस पूरे संदर्भ में दो बातें परस्पर जुड़ी हुई हैं- एक, अच्छे और बुरे श्रम की पहचान कर उस श्रम का सोपानीकरण करना और दूसरा, इस अच्छे और बुरे श्रम के लिए किसी खास रंग-रूप को उपयुक्त मानना.
दरअसल, ऐसी प्रवृत्ति मानव सौंदर्य की हमारी समझ से विकसित होती है. जब मानव सौंदर्य की परिभाषा संकुचित होकर संपूर्ण मानवीय अस्मिता से कट कर सिर्फ दैहिक गुणों तक सिमट जाती है, तो ऐसे विरोधाभास उत्पन्न होते हैं. सौंदर्यबोध की यह धारणा एक दिन में विकसित नहीं हुआ है, बल्कि समय के साथ धीमी और व्यवस्थित तरीके से यह प्रक्रिया संपन्न हुई है. फिर क्रमशः यह हमारे सांस्कृतिक जीवन का अंग बनता चला गया.
मानवीय सौंदर्यबोध में मानव देह के केंद्रीय हो जाने का अर्थ जटिल मानव अस्तित्व को किसी भी अन्य निर्जीव वस्तु की तरह सरल बना देना है, जिसका मूल्यांकन उसके ‘बाह्य विशेषताओं’ के आधार पर किया जा सके. फिर इस मानव देह के लिए कुछ कृत्रिम मानक तय किये जाते हैं, जिससे श्रेष्ठ और कमतर मानव का निर्धारण हो सके. इस निर्धारण में सभ्यताई वर्चस्व सबसे निर्णायक निर्धारक होता है तथा उनका दैहिक गठन, रहन-सहन, वेशभूषा आदि ‘मानक’ के रूप में निर्धारित हो जाती है और इस तरह मानव सौंदर्य के आधार को कृत्रिम रूप से रच दिया जाता है.
भारतीय संदर्भ में देखें, तो लंबे समय तक गुलामी झेलनेवाले इस देश में आज भी औपनिवेशिक सौंदर्यबोध हावी है और यही वजह है कि खास रंग-रूप, नैन-नक्श वाले व्यक्ति को न केवल सुंदर माना जाता है, बल्कि श्रेष्ठता का दावा भी उसी के हिस्से जाता है. पुन: श्रम को भी उसके आर्थिक उपार्जन की क्षमता तथा उसके सामाजिक महत्व के हिसाब से श्रेणीबद्ध कर दिया जाता है तथा श्रेष्ठ कार्य के लिए श्रेष्ठ मानव तय करने की यह प्रक्रिया संपन्न हो जाती है.
यही गड़बड़ प्रक्रिया जब हमारी अभिव्यक्ति के रूप में मूर्त हो जाती है, तो हम अनायास बोल पड़ते हैं कि ‘इसे देख कर कहीं से नहीं लगता कि इसे इस तरह के कार्य में होना चाहिए’. इस गड़बड़ प्रक्रिया को लोकप्रिय बनाने में सिनेमा की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, जब उसमें विलेन के चरित्र को एक खास किस्म की वेशभूषा से सजाया जाता है और मुख्य पात्र को ‘जेंटलमैन’ की तरह दिखा कर ऐसे विकृत सौंदर्यबोध को रूढ़ कर दिया जाता है. यह एक गलत नजरिया है और हमें इसकी विद्रूपता को समझना चाहिए.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें