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छीजते विकल्पों का चक्रव्यूह

प्रसेनजीत बोस वामपंथी अर्थशास्त्री कोलकाता में गत रविवार को संपन्न हुई सीपीएम की केंद्रीय समिति की बैठक में मतदान के द्वारा पारित प्रस्ताव की बहुतेरी व्याख्याएं की जा रही हैं, जिनमें से कुछ अत्यंत भ्रामक भी हैं. सीपीएम के वर्तमान महासचिव सीताराम येचुरी साझा सहमति के कार्यक्रम की बुनियाद पर कांग्रेस के साथ एक चुनाव-पूर्व […]

प्रसेनजीत बोस

वामपंथी अर्थशास्त्री

कोलकाता में गत रविवार को संपन्न हुई सीपीएम की केंद्रीय समिति की बैठक में मतदान के द्वारा पारित प्रस्ताव की बहुतेरी व्याख्याएं की जा रही हैं, जिनमें से कुछ अत्यंत भ्रामक भी हैं.

सीपीएम के वर्तमान महासचिव सीताराम येचुरी साझा सहमति के कार्यक्रम की बुनियाद पर कांग्रेस के साथ एक चुनाव-पूर्व गठबंधन के पैरोकार रहे हैं, जिसका समर्थन पार्टी की बंगाल इकाई का बहुमत भी करता रहा है. उनका यह नजरिया रहा है कि ऐसा गठजोड़ भाजपा के विरुद्ध एक देशव्यापी महागठबंधन का आधार बन सकता है, जो वर्ष 2019 में होनेवाले आगामी संसदीय चुनावों में मोदी सरकार की दूरस्थ दिखती पराजय को हकीकत में तब्दील करने के लिए सीपीएम के नेतृत्व में राष्ट्र के राजनीतिक क्षितिज पर एक बार पुनः वाम मोर्चे का उदय भी सुनिश्चित कर सकेगा.

लेकिन, सीपीएम की केंद्रीय समिति की उपर्युक्त बैठक में स्वयं यही नजरिया उसके सदस्यों द्वारा 55 के विरुद्ध 31 मतों से पराजित हो गया और इसके कई समर्थक यह कहे बगैर न रह सके कि यह दुर्भाग्यपूर्ण हार भाजपा को ही मदद पहुंचायेगी.

पर, वास्तविकता यह है कि ये लोग साल 2004 का वह अनुभव भुला दे रहे हैं, जब कार्यक्रम आधारित मतभेदों तथा कटु चुनावी प्रतिद्वंद्विताओं के बावजूद सीपीएम ने सिर्फ भाजपा को सत्तासीन होने से रोक रखने के लिए यूपीए सरकार का बाहर से समर्थन किया था. यदि 2019 की चुनावी टक्कर के बाद इसी उद्देश्य के लिए एक बार फिर वैसा ही करना जरूरी हो, तो सीपीएम तथा अन्य वामदलों के लिए एक बार फिर उसी राह पर कदम बढ़ाने की संभावना समाप्त नहीं हुई है.

दूसरी ओर यह भी एक तथ्य है कि वाम दलों द्वारा जिस वैकल्पिक नीतिगत मंच की पैरोकारी की जाती रही है, कांग्रेस के साथ एक चुनाव-पूर्व गठबंधन का मतलब उसका परित्याग ही कर देना होगा, क्योंकि कांग्रेस अपनी नवउदारवादी नीतियों के चौकठे में पूरी तरह बद्धमूल है, जो निर्धनों एवं कामगारों की कीमत पर बड़े कॉरपोरेटों और अंतरराष्ट्रीय वित्त के हितों का पोषण करती है.

जीएसटी, आधार से संबद्धता, डूबते ऋणों के संकट के साथ बैंकों के राष्ट्रीयकरण के खतरे जैसे मोदी सरकार की नीतियों के जिन नतीजों ने वर्तमान अर्थव्यवस्था को बीमार बना रखा है, दरअसल वे यूपीए सरकार की नीतियों की निरंतरता के ही परिणाम हैं.

राहुल गांधी की हालिया बयानबाजी के बाद भी इस बात के कोई संकेत सामने नहीं आये हैं कि कांग्रेस में इन अहम बिंदुओं पर किसी रणनीतिक पुनर्विचार की तैयारी है. जब आर्थिक तथा रणनीतिक दिशाओं में इस हद तक मतभिन्नता मौजूद है, तो आखिर चुनाव-पूर्व साझा कार्यक्रम किस बिना पर आकार ले सकेंगे?

कांग्रेस के साथ कार्यक्रमों की कोई समझ विकसित करने के बिंदु पर सीपीएम के अंदर चलनेवाली बहस कोई नयी नहीं है. सैफुद्दीन चौधरी जैसे नेताओं ने भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस के साथ एक रणनीतिक गठजोड़ की पैरवी करते हुए ही 2001 में सीपीएम से जुदा हो अपनी एक अलग पार्टी बनायी थी. येचुरी समेत जिन पार्टी नेताओं ने तब सैफुद्दीन की सोच का विरोध किया था, उनमें से अधिकतर आज उनके ही तर्क दोहरा रहे हैं. ऐसे ही विचार रखते सोमनाथ चटर्जी भी सीपीएम के साथ नहीं रह सके थे.

भारतीय परिदृश्य की जमीनी वास्तविकताएं सीपीएम और कांग्रेस के सहमेल को विश्वसनीय और टिकाऊ नहीं बनने देतीं. सीपीएम का जनाधार केवल कुछ ही राज्यों तक सीमित है. अभी उसका सबसे बड़ा समर्थन केरल में है, जहां कांग्रेसनीत यूडीएफ से उसका मुख्य चुनावी मुकाबला रहा है. त्रिपुरा में जो कांग्रेस हुआ करती थी, आज उसका अधिकांश पूरी तरह भगवा रंग में रंगा हुआ है, और आसन्न होते चुनावों में सीपीएम-नीत वाममोर्चा उससे निबट लेगा.

जहां तक दूसरे राज्यों की बात है, तो दक्षिण में तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश तथा तेलंगाना और उत्तर में हिमाचल प्रदेश एवं राजस्थान में कांग्रेस और सीपीएम का गठजोड़ चुनावी रूप से निष्प्रभावी रहेगा अथवा वह कांग्रेस को इकतरफा फायदा पहुंचायेगा, जिसकी एवज में सीपीएम के पाले कुछ भी न आयेगा.

वर्ष 2016 में संपन्न बंगाल के चुनावी नतीजे इस संभावना का अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, जब सीपीएम से जुड़कर कांग्रेस तो दूसरे स्थान पर पहुंच गयी, पर अपने अपेक्षाकृत बड़े जनाधार के बावजूद सीपीएम को तीसरे पायदान से संतोष करना पड़ा. तब से लेकर आज तक, सीपीएम के समर्थन से जीत तक पहुंचे पांच कांग्रेसी विधायक या तो तृणमूल कांग्रेस या फिर भाजपा का रुख कर चुके हैं और मुख्यतः सीपीएम के जनाधार में ही सेंध लगाते हुए भाजपा बंगाल में अपने पांव पसारती जा रही है.

बंगाल में वाममोर्चे के उस छीजते प्रभाव का उपचार सीपीएम और कांग्रेस के गठजोड़ से नहीं हो सकता, जिसकी पहली वजह खुद वाममोर्चे के ही दक्षिणायन होने में निहित रही है.

जब तक पार्टी के इलाज की चल रही कोशिशें इस रोग को संबोधित नहीं करतीं, इस स्थिति में बेहतरी की संभावनाएं दूर की ही कौड़ी बनी रहेंगी. बंगाल में सीपीएम को सबसे पहले अपनी सियासी-सांगठनिक सेहत में सुधार लाना होगा, केवल तभी वहां उसके पुनरोदय की कोई संभावना आकार ले सकेगी.

(अनुवाद : विजय नंदन)

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