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जीवन के लिए वन संरक्षण का विकल्प नहीं, एक तिहाई भारतीय भूमि मरुस्थलीकरण की चपेट में

जलवायु परिवर्तन, धरती के तापमान में बढ़ोतरी, जानलेवा प्रदूषण तथा प्राकृतिक आपदाओं की बढ़ती बारंबारता जैसी चुनौतियों ने धरती पर जीवन के अस्तित्व के भविष्य पर सवालिया निशान लगा दिया है. इन खतरों से निबटने का एक उपाय वनों का संरक्षण और विस्तार है. हालांकि भारत में वनीकरण की प्रक्रिया को प्राथमिकता दी जा रही […]

जलवायु परिवर्तन, धरती के तापमान में बढ़ोतरी, जानलेवा प्रदूषण तथा प्राकृतिक आपदाओं की बढ़ती बारंबारता जैसी चुनौतियों ने धरती पर जीवन के अस्तित्व के भविष्य पर सवालिया निशान लगा दिया है. इन खतरों से निबटने का एक उपाय वनों का संरक्षण और विस्तार है. हालांकि भारत में वनीकरण की प्रक्रिया को प्राथमिकता दी जा रही है, लेकिन वनों का क्षरण भी लगातार जारी है. इसके कारण मिट्टी का क्षरण भी हो रहा है तथा पानी जैसे अमूल्य संसाधनों में भी कमी आ रही है. देश और दुनिया में जंगलों की मौजूदा स्थिति पर केंद्रित है आज का इन-दिनों…
वन क्षेत्र बढ़ाने की परियोजना
मरु क्षेत्र के विस्तार को रोकने के संकल्प के तहत भारत ने पांच राज्यों में वनाच्छादित क्षेत्र बढ़ाने की परियोजना शुरू की है. इसके परीक्षण चरण के लिए पांच राज्यों को चुना गया है- हरियाणा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, नागालैंड और कर्नाटक. इसमें इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजरवेशन ऑफ नेचर की भी भागीदारी है. धीरे-धीरे इस परियोजना को उन सभी क्षेत्रों में लागू किया जायेगा, जो मरुस्थलीकरण से प्रभावित हैं. केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर के अनुसार, क्षरण से भारत की 30 प्रतिशत भूमि प्रभावित है.
उन्होंने यह भी कहा है कि यह एक बड़ी चुनौती है और हम किसी वैश्विक दबाव में लक्ष्य का निर्धारण नहीं करते हैं तथा पहले की तरह इसमें भी हम नेतृत्वकारी भूमिका में रहेंगे. यह परियोजना 17 जून को प्रारंभ हुई है और इसे अगले 42 महीनों में पूरा किया जाना है. पर्यावरण से संबंधित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन- कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (सीओपी) का 14वां सत्र इस बार भारत में 29 अगस्त से 14 सितंबर तक आयोजित किया जायेगा. सम्मेलन में 197 से अधिक देशों के पांच हजार से ज्यादा प्रतिनिधि भाग लेंगे.
इस बैठक में मरु क्षेत्र के विस्तार पर रोक लगाने तथा भू-क्षरण और सूखे पर अंकुश लगाने की दिशा में भागीदार देशों द्वारा उठाये गये कदमों की समीक्षा की जायेगी. भारत ने जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में 2030 तक ढाई-तीन अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड के निबटारे के लिए इसके समकक्ष अतिरिक्त वन लगाने और वृक्षारोपण करने का संकल्प लिया है.
वनों के विस्तार की परियोजना बॉन चुनौती संकल्प से भी जुड़ी हुई है. वर्ष 2015 में इस संकल्प को लेते हुए भारत ने 2020 तक 1.30 करोड़ हेक्टेयर और इसके अलावा अस्सी लाख हेक्टेयर ऐसी भूमि को फिर से वनाच्छादित करने का लक्ष्य निर्धारित किया था, जहां भूमि और वन क्षरण हुआ है.
शहरीकरण और व्यावसायिक खेती एशियाई वनों के लिए खतरा
एशिया-प्रशांत क्षेत्र में तेजी से होता शहरीकरण और बढ़ती व्यावसायिक खेतिहर गतिविधियों से जंगलों और प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव में बढ़ोतरी हो रही है. इससे ग्रामीण समुदायों को नुकसान पहुंचने के साथ जलवायु परिवर्तन का असर भी बढ़ता जा रहा है. संयुक्त राष्ट्र की संस्था खाद्य एवं कृषि संगठन की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, इस क्षेत्र में प्रति व्यक्ति वन क्षेत्र 19 फीसदी है, जबकि वैश्विक औसत 32 फीसदी है.
यह स्थिति तब है, जब 1990 और 2015 के बीच कुल वन क्षेत्र में करीब 1.80 करोड़ हेक्टेयर की वृद्धि हुई है. हालांकि कुछ एशियाई देशों ने वनों के संरक्षण तथा आदिवासी समुदायों को अधिक अधिकार देने की नीतिगत पहल की है, फिर भी बेहद अहम बुनियादी जंगलों की कीमत पर रोपे गये वन क्षेत्र में इन ढाई दशकों में लगभग दुगुनी बढ़ोतरी हुई है. बुनियादी या प्राकृतिक जंगलों में जैव विविधता व्यापक होती है और उन्हें नष्ट होने के बाद फिर से हासिल करना संभव नहीं होता है. इस आधार पर रोपे गये एशियाई जंगलों की गुणवत्ता बहुत कम है.
जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का सामना करने में वनों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है, परंतु जनसंख्या बढ़ने और खनिज एवं अन्य संसाधनों की बढ़ती मांग से उनके ऊपर बहुत दबाव बढ़ रहा है. दुनिया के दो तिहाई से अधिक वन क्षेत्र सरकारों के अधीन हैं, लेकिन उनके ऊपर स्थानीय समुदायों का भी दावा होता है.
ऐसे में छोटे किसानों और ग्रामीणों तथा सरकारों और उद्योग के बीच संघर्ष में भी वृद्धि हो रही है. वर्ष 1990 और 2015 के बीच एशिया-प्रशांत क्षेत्र में रोपे गये वन क्षेत्र, जिसमें व्यावसायिक रोपण भी है, में लगभग दुगुनी बढ़ोतरी हुई है.
ऐसे वन कुल वन क्षेत्र का 17 फीसदी हैं, जबकि इनका वैश्विक औसत सिर्फ सात फीसदी है. इस संबंध में यह संतोषजनक है कि आदिवासी समुदायों और स्थानीय लोगों के लिए या उनके स्वामित्व के वन क्षेत्र में 2002 और 2017 के बीच करीब 1.70 करोड़ हेक्टेयर की वृद्धि हुई है. इसके बावजूद रिपोर्ट ने रेखांकित किया है कि संरक्षित क्षेत्रों में संघर्ष, जमीन कब्जा, फायदे में हिस्सेदारी, ठेकेदारी जैसी बातें इस क्षेत्र में व्यापक हैं तथा जलवायु परिवर्तन के गंभीर होते जाने के साथ इनमें बढ़त ही होगी.
चिंताजनक स्तर पर वनों के लुप्त होने के बाद भी भारत वैश्विक स्तर पर इस मामले में शीर्ष के देशों में शामिल नहीं है. वर्ष 2018 में उष्णकटिबंध में 36.4 लाख हेक्टेयर जंगल खत्म हुए, जिनमें मुख्य रूप से प्राकृतिक यानी बुनियादी वन थे.
यह प्रभावित क्षेत्र बेल्जियम के क्षेत्रफल से भी बड़ा है. वनों के कुल नुकसान का दो तिहाई से अधिक सिर्फ पांच देशों- ब्राजील, इंडोनेशिया, कांगो, कोलंबिया और बोलिविया- में हुआ है. साल 2002 में ब्राजील और इंडोनेशिया में ही वनों की कुल विलुप्ति का 71 फीसदी हिस्सा था, लेकिन अब यह रुझान बदला है.
साल 2018 में 1.20 करोड़ हेक्टेयर उष्णकटिबंधीय वृक्ष क्षेत्र का नुकसान दर्ज किया गया था. यह क्षेत्र निकारागुआ के बराबर है, और अगर औसत निकालें, तो उस साल हर मिनट 30 फुटबॉल मैदानों के बराबर जंगल साफ किये गये थे. वर्ष 2001 से वनों का आंकड़ा रखा जाता है, तब से 2018 चौथा सबसे ज्यादा नुकसान का साल रहा है.
भारत का वन अधिकार कानून, इंडोनेशिया का सामाजिक वानिकी कार्यक्रम तथा कंबोडिया का सामाजिक भूमि छूट उन नीतिगत पहलों में शामिल हैं, जिनके आधार पर समुदायों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के प्रयास हो रहे हैं. विभिन्न सरकारें इस संबंध में संवेदनशीलता दिखा रही हैं, परंतु कई सरकारें ऐसी भी हैं, जो वनों पर अपना नियंत्रण मजबूत कर सामाजिक और पर्यावरणीय सुरक्षा कवच को कमजोर करने में लगी हैं. इस रवैये से वनों की स्थिति में स्थायी रूप से बदलाव होने की आशंका है.
जारी है वनों का सिकुड़ना
वर्ष 2005 के बाद से वनों की कटाई दर में कमी आयी है, लेकिन वन क्षेत्र का सिकुड़ना अब भी जारी है, मरुस्थलीकरण का सामना करने को लेकर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (यूएनसीसीडी) द्वारा जारी प्रारंभिक मूल्यांकन रिपोर्ट के अनुसार.
यह मूल्यांकन वर्ष 2000 से 2015 की अवधि के लिए है और भूमि क्षरण को लेकर इस तरह का यह पहला वैश्विक मूल्यांकन है.
यूएनसीसीडी के 197 देशों में से 145 ने भूमि क्षरण को लेकर अपने आंकड़े दाखिल किये हैं. इस आंकड़े के अनुसार, कुल वन भूमि के 32.4 प्रतिशत हिस्से वनाच्छािदत है.
वैश्विक स्तर पर वृक्ष से ढके इन हिस्सों का छह प्रतिशत मध्य व पूर्वी यूरोप और दक्षिण अमेरिका और कैरिबियाई देशों में है.
उच्चतम भूमि वर्ग परिवर्तन (द हाइएस्ट लैंड क्लास चेंज) को कृत्रिम क्षेत्र कहा जाता है, जो मुख्य रूप से शहरी उपयोग की भूमि है.
वर्ष 2000 से 2015 की अवधि में कृत्रिम भूमि उपयोग में रिकॉर्ड 32.2 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई, यानी इस दौरान 168,000 वर्ग किलोमीटर अतिरिक्त कृत्रिम भूमि के उपयोग में वृद्धि हुई.
इस अवधि में कृषि भूमि भी बढ़ कर 575,000 वर्ग किलोमीटर तक पहुंच गयी. इस कृषि भूमि के कुल क्षेत्र का 369,000 वर्ग किलोमीटर का इलाका पहले पेड़ों से ढका था, जिसे कृषि भूमि में तब्दील कर दिया गया.
जनसंख्या का दबाव, पट्टेदारी और गरीबी जैसे अप्रत्यक्ष कारकों की वजह से बार-बार वन क्षेत्र में कमी आती रही है.
भारत में वनों की स्थिति
नीति आयोग के अनुसार, देश में जमीन के 21.23 फीसदी हिस्से में वन क्षेत्र हैं. राष्ट्रीय वन नीति के सुझाव के हिसाब से यह आंकड़ा 33 फीसदी होना चाहिए.
भारत के वन सर्वेक्षण के मुताबिक, वन क्षेत्र में 2015 की तुलना में 2017 में करीब आठ करोड़ हेक्टेयर से अधिक की बढ़ोतरी हुई. यह सकारात्मक रुझान वैश्विक स्तर पर घटते वनों के बरक्स संतोषजनक है, लेकिन पूर्वोत्तर के पांच राज्यों में वन क्षेत्र का घटना चिंताजनक है.
वर्ष 2005 से 2017 तक दिल्ली में लगभग 1.12 लाख से अधिक पेड़ काटे गये या सूख गये. दिल्ली सरकार द्वारा जारी इस आंकड़े के मुताबिक देश की राजधानी में हर घंटे एक पेड़ का अस्तित्व समाप्त हुआ. हालांकि 2014 से 2017 के बीच 28.12 लाख पेड़ लगाने का सरकार ने दावा किया था, किंतु यह भी 36.57 लाख पेड़ लगाने के लक्ष्य से नीचे ही रहा था.
नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट बेहद निराशाजनक तस्वीर पेश करती है. वर्ष 2017 में दिल्ली में 4,624 पेड़ों को गिराने की अनुमति मांगी गयी थी. इसके बदले 23,120 पेड़ नुकसान की भरपाई के लिए लगाया जाना था. लेकिन, सिर्फ 2,550 पेड़ ही लगाये गये यानी काटे गये पेड़ों की संख्या के आधे से कुछ अधिक. उस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि 2014 से 2017 के बीच सरकार को काटे गये पेड़ों के बदले 65,090 पेड़ लगाने थे. लेकिन, इनमें से वन विभाग सिर्फ 21,048 पेड़ ही लगा सका. यह भी एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि दिल्ली वृक्ष नियामक की 2013 से 2018 तक सिर्फ एक ही बैठक बुलायी गयी. जब देश की राजधानी में पेड़ों को लेकर लापरवाही का यह आलम है, तो इससे देश के शेष भाग की स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है.
केयर अर्थ ट्रस्ट की रिपोर्ट के अनुसार, चेन्नई में पेड़ों का क्षेत्र हर साल दो फीसदी की दर से घट रहा है. पिछले सालों में यह महानगर भारी बाढ़ और जल-संकट के कारण अक्सर चर्चा में रहा है.
येल जर्नल ऑफ बायोलॉजी एंड मेडिसीन के एक अध्ययन के मुताबिक, पश्चिमी घाट में बहनेवाली काली नदी के बेसिन में 1973 से 2016 के बीच वन क्षेत्र 61.8 फीसदी से घटकर 37.5 फीसदी रह गया है. इसी इलाके की कावेरी नदी के बेसिन में हरियाली 1965 और 2016 के बीच 33 फीसदी से घटकर 18 फीसदी रह गयी है. इस क्षरण ने अन्य कारणों के साथ दोनों नदियों के बहाव में कमी में योगदान दिया है.
वर्ष 2011 में माधव गाडगिल कमेटी ने अपनी एक रिपोर्ट में सलाह दी थी कि पश्चिमी घाट के 64 फीसदी इलाके को पारिस्थितिकी की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र घोषित कर दिया जाए. इसके साथ कुछ अन्य सुझाव भी रिपोर्ट में थे, पर इसे यह कह कर तब किनारे कर दिया गया था कि यह बहुत अधिक पर्यावरण के पक्ष में है. लेकिन 2018 में केरल की भयावह बाढ़ के बाद अब इस रिपोर्ट को देखने का नजरिया बदल रहा है तथा इस पर फिर से विचार किया जा रहा है.
आग से तबाह होते जंगल
संबद्ध केंद्रीय मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार हर साल लगभग हर राज्य में वन में आग लगने की घटना होती है. देश के कम-से-कम 60 फीसदी जिलों में ऐसी आग लगती है. आग लगने की बारंबारता के हिसाब से शीर्ष के 20 जिलों में ज्यादातर पूर्वोत्तर के राज्यों में हैं.
आग पर नियंत्रण के लिए राज्यों के पास समुचित धन नहीं है या फिर आवंटित नहीं किया जाता है. साल 2018 में 3,700 वन पंचायतों को इस मद के लिए डेढ़ करोड़ रुपये आवंटित किये गये थे, जो कि औसतन चार हजार रुपये है. क्या इस रकम से विनाशकारी भयावह जंगली आग पर काबू पाया जा सकता है? कर्नाटक में 2014 की तुलना में 2017 में जंगली आग की घटनाओं में 350 फीसदी की बढ़ोतरी हुई थी.
भूमि क्षरण से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य
भूमि में प्राकृतिक कारणों या मानवीय गतिविधियों के कारण जैविक या आर्थिक उत्पादकता में कमी की स्थिति को भू-क्षरण कहा जाता है. जब यह अपेक्षाकृत सूखे क्षेत्रों में घटित होता है, तब इसे मरुस्थलीकरण की संज्ञा दी जाती है.
क्षरित भूमि का 80 फीसदी हिस्सा सिर्फ नौ राज्यों- राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक, झारखंड, ओड़िशा, मध्य प्रदेश और तेलंगाना- में है. झारखंड, राजस्थान, दिल्ली, गुजरात और गोवा के 50 फीसदी से अधिक भौगोलिक क्षेत्र में क्षरण हो रहा है. दिल्ली, त्रिपुरा, नागालैंड, हिमाचल प्रदेश औरमिजोरम में मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया बहुत तेज है.
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के स्पेस एप्लीकेशंस सेंटरकी 2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार, देशभर में 9.64 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में मरुस्थलीकरण हो रहा है. यह भारत के कुल भूमि क्षेत्र का लगभग 30 फीसदी हिस्सा है. उल्लेखनीय है कि भारत का लगभग 70 फीसदी जमीनी क्षेत्र अपेक्षाकृत सूखा क्षेत्र है. ऐसे में मरुस्थलीकरण एक बेहद गंभीर समस्या है.
पांच सालों में 1.2 लाख हेक्टेयर जंगल खत्म हुए
वर्ष 2014 से 2018 के बीच देश में 1,22,748 हेक्टेयर वनों का नुकसान हुआ था. इन सालों में सबसे ज्यादा नुकसान 2016 और 2017 में हुआ, जब क्रमश: 30,936 हेक्टेयर और 29,563 हेक्टेयर जंगल गायब हो गये.
वर्ष 2009 से 2013 के बीच 77,963 हेक्टेयर तथा 2004 और 2008 के बीच 87,350 हेक्टेयर वन क्षेत्र बर्बाद हुए थे.
इस तरह से 2002 से 2018 की अवधि में 3,10,625 हेक्टेयर वन क्षेत्र लुप्त हो चुके हैं.
नासा के सैटेलाइट चित्रों के आधार पर ये आंकड़े मेरीलैंड विश्वविद्यालय ने जुटाये हैं तथा इन्हें अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्था वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट की एक इकाई ग्लोबल फॉरेस्ट वाच ने जारी किया है. इस सर्वेक्षण में वनों के तबाह होने के कारणों का विश्लेषण नहीं है. लेकिन 2015 तक की उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि खनन, जल-जमाव और खेती में बदलाव वनों के लुप्त होने के सबसे बड़े कारण हैं.
वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट के अलग विश्लेषण के अनुसार, जंगलों के कम होने से भारतीय वातावरण में 2017 तक कार्बन डाइ-ऑक्साइड की मात्रा में 101 से 250 फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई है.

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