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आरक्षण पर सार्थक बहस जरूरी

संविधान निर्माताओं ने सामाजिक, आर्थिक व शैक्षणिक रूप से वंचित लोगों को समाज की मुख्यधारा में शामिल करने और प्रतिनिधित्व का बराबर का मौका देने के उद्देश्य से संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की थी, पर आज देश का दुर्भाग्य है कि आरक्षण सामाजिक विघटन का प्रमुख कारण बनता जा रहा है. आज सरकारी नौकरियों […]

संविधान निर्माताओं ने सामाजिक, आर्थिक व शैक्षणिक रूप से वंचित लोगों को समाज की मुख्यधारा में शामिल करने और प्रतिनिधित्व का बराबर का मौका देने के उद्देश्य से संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की थी, पर आज देश का दुर्भाग्य है कि आरक्षण सामाजिक विघटन का प्रमुख कारण बनता जा रहा है.
आज सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की मांग के लिए हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र में आंदोलन हो रहे हैं. इन आंदोलनों ने वर्तमान आरक्षण प्रणाली पर एक नयी बहस को जन्म दे दिया है. इन आंदोलनों में हिंसक गतिविधियां चिंतनीय है. डाॅ आंबेडकर ने कहा था, 10 साल बाद समीक्षा हो कि आरक्षण पाने वाले लोगों की स्थिति में कितना सुधार हुआ है.
यदि किसी वर्ग का विकास होता है, तो उनके बच्चों को आरक्षण के दायरे से बाहर किया जाये. आरक्षण बैसाखी नहीं है. यह उपेक्षित वर्गों के विकसित होने का साधन मात्र है. ऐसी स्थिति में जब आजादी के 70 साल बाद भी जातिगत आरक्षण समाज में एकरूपता के उद्देश्यों को लाने असमर्थ रहा है, तब यह समय की मांग है कि वर्तमान आरक्षण व्यवस्था पर स्वस्थ और सार्थक बहस हो. इसे नये तरीके से परिभाषित किया जाये.
शिवम पाठक, गोंडा

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