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गणित के सवाल में जेंडर का प्रश्न

सन्नी कुमार टिप्पणीकार sunnyand65@gmail.com गणित में सवाल आता है- किसी काम को 5 पुरुष 10 दिनों में तथा 5 महिलाएं 15 दिनों में कर सकती हैं, तो 2 पुरुष और 3 महिलाएं इसे कितने दिनों में पूरा करेंगे? ऐसे सवाल आपने खूब हल किये होंगे. गणित के लिहाज से इस सवाल में कुछ भी अस्वाभाविक […]

सन्नी कुमार
टिप्पणीकार
sunnyand65@gmail.com
गणित में सवाल आता है- किसी काम को 5 पुरुष 10 दिनों में तथा 5 महिलाएं 15 दिनों में कर सकती हैं, तो 2 पुरुष और 3 महिलाएं इसे कितने दिनों में पूरा करेंगे? ऐसे सवाल आपने खूब हल किये होंगे. गणित के लिहाज से इस सवाल में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है और अधिकतर लोग इस सवाल को आसानी से हल भी कर लेंगे.
लेकिन जेंडर के हिसाब से इस सवाल की संरचना दोषपूर्ण है तथा इसे हल करने का प्रयास गिने-चुने लोग ही करते हैं. अगर एकाध अपवाद को छोड़ दें, तो सवाल की संरचना इसके विपरीत क्यों नहीं होती? अर्थात महिलाओं द्वारा कम समय में काम समाप्त कर देने और पुरुषों के लिए उसी काम को पूरा करने में अधिक समय लगने की बात सवाल में क्यों नहीं होती? इस पर विचार कर ही हम गणित के सवाल का जेंडर हल खोज सकते हैं.
दरअसल, यह उस मानसिक अवस्था का भाषायी रूपांतरण है, जिसमें महिलाओं को पुरुषों से ‘कमजोर’ माना जाता है और जिसमें आश्चर्यजनक स्वीकार्यता होती है कि पुरुष किसी काम को महिलाओं की अपेक्षा कम समय में कर सकते हैं.
इस दूषित धारणा को स्वीकार लेने के चलन से स्वाभाविक रूप से यह भाव भाषा में रूपांतरित हो जायेगा. इसलिए ही गणित के कल्पनामूलक सवाल में भी पुरुष जल्दी कार्य समाप्त कर लेते हैं और महिलाएं देरी से. इस विभेदीकारी सोच की परत इतनी स्थायी हो चुकी है कि हम इस पर विचार तक नहीं करते.
कुछ अपवादों को छोड़ दें, जहां पुरुष अपने शारीरिक गठन के कारण अधिक कुशलता से कार्य करते हों, तो सामान्यतया महिला-पुरुष की कार्य-दक्षता में अंतर नहीं होता. ऐसे अपवाद केवल कुछ ‘शारीरिक श्रम’ के संबंध में ही हो सकते हैं, जबकि यह स्वरूप निरंतर कम हो रहा है. इसके अलावा श्रम के विविध क्षेत्रों में यह अंतर नहीं होता.
क्या पुरुष ट्रैक्टर चालक के पास कोई खास योग्यता होती है कि वह महिला चालक की अपेक्षा खेत की जुताई जल्दी और अधिक दक्षता से कर दे?
या फिर पुरुष अधिकारी महिलाओं से उच्चतर बौद्धिक कौशल धारण करता है? अगर इन सवालों के जवाब न में हैं, तो फिर गणित के सवाल निर्माण में इस बुनियादी तर्कसंगतता का इस्तेमाल क्यों नहीं होता? सीधा सा जवाब है कि समानता के सिद्धांत में प्रति हामी भरने के बावजूद हमारा समाज उसको व्यावहारिक रूप से लागू नहीं करना चाहता.
यह अनायास नहीं है कि फिल्मों में समान काम के लिए पुरुष एक्टर और महिला एक्टर के वेतन में जमीन-आसमान का अंतर होता है. ऐसे कई उदाहरण हैं.
यह एक दुखद अवस्था है जिसे यथाशीघ्र बदलना चाहिए, पर हम इसे और मजबूत कर रहे हैं. जो बच्चे महिला-पुरुष के बीच कृत्रिम विभाजन को रचनेवाली भाषा के आदी हो जायेंगे, उन्हें बाद में समानता की सैद्धांतिकी कितनी आकर्षित कर पायेगी! कार्य क्षमता सभी में बराबर नहीं होती, पर इस अंतर का आधार महिला और पुरुष नहीं होता. इसलिए, ऐसी हर अवैध मान्यता को प्रश्नगत किया जाना चाहिए, ताकि समतामूलक समाज निर्मित हो सके.

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