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क्या कांग्रेस 2019 में खत्म हो जायेगी?

पुण्य प्रसून वाजपेयी वरिष्ठ पत्रकार अब राहुल के लौटने के बाद भोथरी होती कांग्रेस में धार देने का सवाल सबसे बड़ा होगा. तो आखिरी सवाल यही है कि क्या सोनिया गांधी अब राहुल को अध्यक्ष पद पर बैठा कर कांग्रेस को अपने पारंपरिक वंशवाद के मद में चलने देगी? आजादी के बाद 67 बरस में […]

पुण्य प्रसून वाजपेयी
वरिष्ठ पत्रकार
अब राहुल के लौटने के बाद भोथरी होती कांग्रेस में धार देने का सवाल सबसे बड़ा होगा. तो आखिरी सवाल यही है कि क्या सोनिया गांधी अब राहुल को अध्यक्ष पद पर बैठा कर कांग्रेस को अपने पारंपरिक वंशवाद के मद में चलने देगी?
आजादी के बाद 67 बरस में से 33 बरस कांग्रेस के अध्यक्ष के तौर पर नेहरू गांधी परिवार ही रहा. नेहरू 1951 से 54 तक, तो इंदिरा गांधी 1959 के बाद 1978 से 1984 तक रहीं. और उसके बाद 1985 से 1991 तक राजीव गांधी. यानी जितना वक्त नेहरू, इंदिरा, राजीव ने अध्यक्ष बन कर गुजारा, उससे ज्यादा वक्त सोनिया अकेले अध्यक्ष के तौर पर बनी हुई हैं.
सोनिया का कांग्रेस अध्यक्षा के तौर पर 17वां बरस जारी है. तो देश में जितने भी बच्चों का जन्म 1998 में हुआ होगा, वे 2019 के लोकसभा चुनाव में पहली बार वोट डालेंगे और उनके जेहन में कांग्रेस का मतलब सोनिया गांधी से आगे कुछ होगा नहीं. तो क्या सोनिया गांधी ने जिस डर से कांग्रेस अध्यक्षा की कुर्सी संभाली हुई है, वही राहुल गांधी के युवराज बने रहने या कांग्रेस के हाशिये पर पहुंच जाने की सबसे बड़ी वजह है. या फिर वाकई सोनिया गांधी से ज्यादा बेहतर कोई कांग्रेसी इस पद के लिए फिट बैठता ही नहीं है.
अब इसे 24 अकबर रोड या दस जनपथ, जिस भी तरीके से देखें. लेकिन नेहरू, इंदिरा के बाद जो गलती राजीव गांधी ने की, उसकी दोगुनी गलती सोनिया गांधी कर रही है. राजीव तो पीएम बन कर अध्यक्ष बने रहे. लेकिन सोनिया बिना पीएम की कुर्सी पर बैठे ही दस जनपथ से कांग्रेस और पीएम दोनों को ही नचाती रहीं. तो सवाल राहुल गांधी भर का नहीं है, बल्कि उस कांग्रेस का भी है, जो सोनिया की ताकत और राहुल को मिलनेवाली ताकत की छांव में ही उम्र गुजरने लगी.
मुश्किल यह है कि सोनिया गांधी की ताकत कांग्रेस पार्टी नहीं, बल्कि नेहरू गांधी परिवार से होना है और कांग्रेस की ताकत कांग्रेस अध्यक्ष नहीं, नेहरू गांधी परिवार का होना है. क्योंकि 1997 में जब कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी को जैसे ही यह मैसेज गया कि सोनिया गांधी चुनाव प्रचार करने उतरेंगी, वैसे ही सीताराम केसरी के अधयक्ष होने के बावजूद उनके घर पर सन्नाटा छा गया. यानी उस दौर में यह सवाल नहीं था कि सोनिया राजनीतिक आगाज करने जा रही हैं.
सवाल यह था कि नोहरू गांधी परिवार के बाद हर कांग्रेसी ना सिर्फ खुद को बराबर मानता है, बल्कि जो नेहरू गांधी परिवार के सबसे करीब होता है, वह खुद को बाकियों में सबसे कद्दावर मानता है. इस कतार में जरा उन कांग्रेसियों की सोचिए जो नयी पीढ़ी के है. जो कांग्रेस के लिए पसीना बहाने को तैयार है, लेकिन चाहे-अनचाहे हर किसी को इंतजार राहुल गांधी का ही करना है, क्योंकि सोनिया गांधी भी राहुल का यह सोच कर इंतजार करती रहीं या करवाती रहीं कि राहुल ही कांग्रेस की उम्मीद हैं. आलम यह हुआ कि राहुल 58 दिन बाद घर पहुंचे, उससे पहले ही सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी दिल्ली के लोधी स्टेट स्थित राहुल के निवास पर पहुंच गये.
अब जरा कल्पना कीजिए कि देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस में नेहरू गांधी परिवार की चौथी पीढ़ी क्या हांकी जानेवाली पीढ़ी है. यानी कभी कांग्रेसी कार्यकर्ता हांके. कभी कांग्रेसी नेता हांके. कभी कोई विकल्प ना होने पर वोटर हांके, तो ही सफलता मिलेगी. क्योंकि 58 दिन बाद राहुल गांधी दिल्ली लौटे, तो कांग्रेस के भीतर से ज्यादा कांग्रेस हेड क्वॉर्टर के बाहर खड़े रहनेवाले कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने दिन के उजाले में सड़क पर पटाखे छोड़ कर हेड क्वॉर्टर में सिमटी कांग्रेसी नेताओं को सड़क की तरफ देखने को कहा. लेकिन अंदर बाहर किसी ने नहीं पूछा कि राहुल गांधी कहां गये थे.
जहां गये वहां किया क्या. और अब लौटे हैं तो करने क्या वाले हैं. और दोबारा जायेंगे नहीं, इस पर कोई कैसे भरोसा करे. यानी राहुल गांधी को लेकर अटकलें ज्यादा हैं और खबरें कम. तो क्या देश की सबसे पुरानी पार्टी इस संकट से गुजर रही है कि उसके भविष्य के नेता को लेकर ही अटकलें ऐसी हैं कि कांग्रेस को किस रास्ते चलना है, यह दिशा उलझी हुई है.
यानी सोनिया गांधी के नजरिये से इतर राहुल गांधी को समङों, तो इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि बीते एक दशक से राजनीति में सक्रिय राहुल गांधी राजनीतिक जमीन बनाने की दिशा में कभी कदम उठा ही नहीं सके.
साल 2004 में राहुल पहला चुनाव लड़े, तो केंद्र में कांग्रेस की अगुवाई में मनमोहन सरकार आ गयी. मनमोहन सिंह के दौर में जिस भी मुद्दे पर बोले वह मनमोहन सिंह के हक में या मनमोहन सिंह के विरोध में थे. यानी दस बरस में वह ना तो संघ की सियासत को समझ पाये.
ना ही गुजरात को मौत के सौदागर शब्द से आगे देख पाये. विकास का मतलब मनमोहन की धारा से आगे समझ नहीं पाये. भ्रष्टाचार का अर्थ रुपये में से पांच पैसे ही पहुंचने के कथन से आगे बढ़ा नहीं पाये. दलित और किसान को यूपीए के चश्मे से आगे देख नहीं पाये. यानी राजनीति का ककहरा सत्ता के दायरे में ही देखते-समझते हुए दलित किसान, आदिवासी और मनरेगा मजदूर तले नापते रहे.
तो क्या 58 दिन के बाद लौटने पर गांधी नेहरू परिवार की चौथी पीढ़ी सबसे कमजोर होकर लौटी है और उसे वाकई नहीं पता है कि उसे जाना कहां है. क्योंकि सत्ता की सुरक्षा में राहुल गांधी ने दलित के घर रात भी बितायी. कलावती के घर के अंधेरे को भी बताया. मुंबई लोकल की जद्दोजहद को भी समझा. मजदूरों के समान पीठ पर मिट्टी भी ढोयी. लेकिन जैसे ही इन सारे हालात से दो-दो हाथ करने का वक्त आया, राहुल देश के बाहर निकल गये.
दरअसल, कांग्रेस अध्यक्ष का मतलब तो नेहरू गांधी परिवार हो सकता है, लेकिन कांग्रेस का मतलब भी अगर नेहरू गांधी परिवार हो चुका है, तो असल संकट को समङो कि देश में राजनीति करनेवाला कौन सा तबका राजनीति करने घर से निकलेगा. कौन सा कार्यकर्ता किस पार्टी का झंडा उठायेगा. क्योंकि मौजूदा वक्त में हर राज्य में क्षत्रपों का सत्ता है. और जहां कांग्रेस भाजपा की सत्ता है, वह अब अपने दिल्ली में बैठे नेताओं के रहमो-करम पर आ टिकी है.
कांग्रेस में चलन पहले से रहा है और अब भाजपा में भी हर सीएम के नेता नरेंद्र मोदी हैं. यानी पार्टी का मतलब एक चेहरा. और एक चेहरे का मतलब पार्टी संगठन. यानी देश के सामाजिक आर्थिक हालात के मद्देनजर राजनीति नहीं होगी, बल्कि राजनेता की समझ और उसके जीत के पैमाने के आधार पर लोकप्रिय अंदाज में राजनीति होगी.
ऐसे मोड पर अब राहुल के लौटने के बाद भोथरी होती कांग्रेस में धार देने का सवाल सबसे बड़ा होगा. तो आखिरी सवाल यही है कि क्या सोनिया गांधी अब राहुल को अध्यक्ष पद पर बैठा कर कांग्रेस को अपने पारंपरिक वंशवाद के मद में चलने देगी या फिर सोनिया वंशवाद की राजनीति को दरकिनार कर कांग्रेस में चुनाव के जरिये अध्यक्ष पद का रास्ता खोले और कांग्रेस को अपने आप से मथने दें. क्योंकि 2019 तक कांग्रेस अगर खड़ी ना हो सकी, तो मान कर चलिये 130 बरस पुरानी पार्टी का अंत 2019 में हो जायेगा!

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