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लो फिर से आया चुनावी मौसम

प्रो योगेंद्र यादव राष्ट्रीय अध्यक्ष, स्वराज इंडिया फिर आ गया चुनाव का मौसम. लो फिर आ गयी सर्वे की बहार. लो फिर आ गये कयास लगानेवाले, काला जादू दिखानेवाले. फिर शुरू हो गयी चाय, छांछ, कॉफी, पेग पर चुनावी चर्चा. अपने पूर्व जन्म में मैं भी इस चर्चा में हिस्सा लिया करता था. कोशिश करता […]

प्रो योगेंद्र यादव
राष्ट्रीय अध्यक्ष, स्वराज इंडिया
फिर आ गया चुनाव का मौसम. लो फिर आ गयी सर्वे की बहार. लो फिर आ गये कयास लगानेवाले, काला जादू दिखानेवाले. फिर शुरू हो गयी चाय, छांछ, कॉफी, पेग पर चुनावी चर्चा.
अपने पूर्व जन्म में मैं भी इस चर्चा में हिस्सा लिया करता था. कोशिश करता था कि सच बोलूं, झूठी उत्तेजना के खेल से बचूं. पता नहीं कितना सफल हो पाया. अब जब दूर खड़ा होकर चुनावी भविष्यवाणी और विश्लेषणों को देखता हूं, तो हंसी आती है. सोचता हूं न जाने कैसे ये टीवी वाले बिना बात का बतंगड़ बना लेते हैं, झूठा सस्पेंस खड़ा कर देते हैं. न जाने कैसेे हम इस झांसे में आ जाते हैं और बुनियादी बातों को भूल जाते हैं.
अब गुजरात को ही लीजिए. बिना कोई उचित कारण दिये और खामखा अपनी फजीहत करवाकर अंततः चुनाव आयोग ने तारीख की घोषणा ही कर दी है. उधर हिमाचल का चुनाव भी होनेवाला है.
चुनाव को लेकर मीडिया में चुनावी चर्चा भी चल निकली है. हर साल की तरह अब इस चुनाव को भी लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल बताया जा रहा है. हर विधानसभा चुनाव की तरह इसे केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता की अग्नि परीक्षा बतायी जा रही है. जिससे मिलता हूं, यही पूछता है- अरे! आप तो सेफोलॉजिस्ट रहे हैं, आप बताइए गुजरात में क्या होगा?
गुजरात की राजनीतिक खबरें एक दिशा में इशारा करती हैं, तो चुनावी सर्वे दूसरी दिशा में. एक साधारण दर्शक-पाठक को यह गोरखधंधा समझ नहीं आता. यूं भी मीडिया को अपने इशारे पर नचाने के मामले में मोदी सरकार की छवि इतनी खराब है कि किसी सच्ची खबर पर भी भरोसा करना मुश्किल है. वहीं चुनाव आयोग के झुक जाने से यह संदेह और भी गहरा हो गया है.
पिछले कुछ समय से गुजरात से आयीं खबरें बीजेपी के लिए उत्साहजनक नहीं रही हैं. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद मुख्यमंत्री बनीं आनंदी बेन पटेल राज-काज के मामले में सिफर निकलीं.
उनकी जगह आये विजय रूपानी ने किसी तरह संकट को टाले तो रखा, लेकिन कुछ खास काम नहीं हुआ. पाटीदार समाज के लिए आरक्षण की मांग के बहाने पटेल समाज का गुस्सा फूटा. लाखों की रैलियां हुईं, हिंसा हुई और हार्दिक पटेल के रूप में एक नया चेहरा उभर कर सामने आया. उधर दलित समाज में उत्पीड़न को लेकर चेतना पहले से गहरी हुई. उना कांड के प्रतिरोध में खड़े हुए दलित आंदोलन के नेता के रूप में जिग्नेश मेवानी उभरे.
किसानों का बीजेपी सरकार से पुराना गुस्सा है. पिछले तीन साल में यह गुस्सा और भी बढ़ा है. उधर व्यापारी भी जीएसटी के चलते बीजेपी के सरकार से परेशान हैं. सूरत में व्यापारियों की बड़ी-बड़ी भाजपा विरोधी रैलियां हुई हैं.
इन घटनाओं से उपजी चिंता बीजेपी नेतृत्व के माथे पर पढ़ी जा सकती है. चुनाव आयोग पर दबाव डाल चुनाव की घोषणा टलवाने के पीछे पार्टी नेतृत्व की चिंता दिखती है. आश्चर्य नहीं होगा यदि चुनाव से ठीक पहले कोई बड़ी दुर्घटना हो जाये, और चारों ओर भय का प्रसार हो. इन संकेतों से नेता और पत्रकार निष्कर्ष निकालते हैं कि हो न हो बीजेपी की नैया डूबनेवाली है.
उधर चुनाव सर्वेक्षण के संकेत इसके ठीक उलट हैं. कोई ढाई महीने पहले प्रतिष्ठित संस्था सीएसडीएस ने एबीपी चैनल के लिए गुजरात में चुनावी सर्वे किया था. इस सर्वेक्षण के हिसाब से अगस्त महीने में बीजेपी, कांग्रेस से कोसों आगे चल रही थी- दोनों पार्टियों में 30 प्रतिशत वोट का फासला था.
हालांकि, इस रिपोर्ट के बारे में यह कहा जा रहा था कि चुनाव से इतने पहले हुए सर्वे में सत्ताधारी पार्टी के वोट बढ़-चढ़कर दिखते हैं, फिर भी इतने बड़े फासले को पाट पाना संभव नहीं दिखता. पिछले दो हफ्ते के सर्वे में बीजेपी की लीड ज्यादा नहीं है, फिर भी कांग्रेस से 10 प्रतिशत से अधिक की लीड में है.
वोट में 10 प्रतिशत के लीड के आधार पर ही गुजरात में सत्ताधारी को दो-तिहाई सीटें मिलती रही हैं.इसमें कोई शक नहीं कि गुजरात की भाजपा सरकार से जनता में बहुत असंतोष है. लेकिन, यह भी सही हो सकता है कि ईमानदार सर्वे में बीजेपी को स्पष्ट बढ़त हो. वोटर के असंतोष भर से सत्तारूढ़ पार्टी चुनाव नहीं हार जाती. सरकार के निकम्मेपन के प्रति रोष सत्ताधारी पार्टी की हार का कारण तभी बनता है, जब वोटर को एक भरोसेमंद विकल्प दिखता हो. हां, कभी-कभी ऐसा भी होता है कि वोटर सरकार से इतनी नफरत करने लगता है कि उसके खिलाफ अच्छे-बुरे किसी भी विपक्षी को वोट दे देता है.
गुजरात को देखें, तो एक बात तो साफ है कि थकी-हारी कांग्रेस एक समर्थ और सार्थक विकल्प नहीं हो सकती.पिछले 25 सालों में गुजरात की कांग्रेस ने न तो कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखायी है, न ही उसमें कोई दिशा बोध है, और न ही कोई भरोसेमंद चेहरा है. रही सही कसर शंकर सिंह वाघेला के पार्टी छोड़ने से पूरी हो गयी. इसलिए सत्ताधारी बीजेपी से असंतोष और गुस्सा होने के बावजूद एक सामान्य चुनाव में कांग्रेस बदलाव का प्रतीक नहीं बन सकती. इसलिए गुजरात में सवाल यह नहीं है कि वोटर बीजेपी सरकार से खुश है या नहीं. असली सवाल यह है कि क्या वोटर बीजेपी सरकार से इस कदर नाराज है कि वह चेहराविहीन, दिशारहित और संकल्पहीन कांग्रेस तक को वोट देने को तैयार रहेगा?
बीच-बीच में कुछ स्थानीय निकायों के चुनाव और लोकसभा चुनावों में बीजेपी को झटके जरूर लगे हैं, लेकिन वह कभी हारी नहीं है. इसी बीच हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में उसने कांग्रेस पर वोटों में 10 प्रतिशत या उससे अधिक की बढ़त बनाये रखी है. कांग्रेस का खाम (क्षत्रिय-हरिजन-आदिवासी-मुसलमान) गठबंधन ध्वस्त हो चुका है. सीएसडीएस की मानें, तो बीजेपी इन वर्गों में भी सेंध लगा रही है. प्रदेश भर में सांगठनिक मशीन, मीडिया पर कब्जे तथा धन बल में भी बीजेपी का कोई मुकाबला नहीं है.
आज गुजरात में बीजेपी की वही हैसियत है, जो कभी पश्चिम बंगाल में लेफ्ट फ्रंट की थी. या उससे पहले पूरे देश मे कांग्रेस की. ऐसे में पार्टी का चुनाव जीतना कोई खबर नहीं है. लेकिन, उसका चुनाव हारना भूकंप से कम नहीं होगा. केंद्र सरकार और नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता की परीक्षा और कहीं हो सकती है, गुजरात चुनाव नहीं. अगर 2019 के चुनावी फाइनल का सेमी फाइनल देखना ही है, तो अगले राजस्थान और मध्य प्रदेश के चुनाव की प्रतीक्षा कीजिये. तब तक टीवी से व्रत रखिए.

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