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गणतंत्र में स्वाधीनता और स्वशासन की खोज

घनश्याम, लेखक सामाजिक कार्यकर्ता भारतीय गणतंत्र के 68 वर्ष पूरे हो गये. विकास की कई सीढ़ियां हमने चढ़ी हैं. ज्यों-ज्यों हमने विकास की सीढ़ियां चढ़नी शुरू की, त्यों-त्यों विषमता और असमानता की खाई भी बढ़ती चली गयी. यह किस हद तक बढ़ी है, इसका आकलन होना जरूरी है. इस विषमता के क्या कारण हैं. कौन […]

घनश्याम, लेखक सामाजिक कार्यकर्ता

भारतीय गणतंत्र के 68 वर्ष पूरे हो गये. विकास की कई सीढ़ियां हमने चढ़ी हैं. ज्यों-ज्यों हमने विकास की सीढ़ियां चढ़नी शुरू की, त्यों-त्यों विषमता और असमानता की खाई भी बढ़ती चली गयी. यह किस हद तक बढ़ी है, इसका आकलन होना जरूरी है. इस विषमता के क्या कारण हैं. कौन हैं इसके लिए जिम्मेवार. कौन-कौन सी नीतियों ने हमें यहां तक ला पटका है, इसका गहन मूल्यांकन होना ही चाहिए. इसका विश्लेषण हमें करना ही पड़ेगा. अगर हम चाहते हैं कि देश समता, स्वतंत्रता और समाजवाद के मूल्यों की तरफ बढ़े, अगर हम चाहते हैं कि देश में लोकतंत्र मजबूत हो, तो हमें यह भी समझने की जरूरत होगी कि वह कौन-सी ताकत है, जो लोकतंत्र के नाम पर इसकी जड़ों में मट्ठा डालने का काम कर रहा है.

आजादी के बाद से ही देश को स्वशासन और स्वराज की तरफ बढ़ना चाहिए था, लेकिन वह हुआ नहीं, बल्कि स्वाधीनता प्राप्ति के बाद हमने अपने कर्तव्य का इतिश्री मान लिया. परिणाम आज सबके सामने है. आजादी तो मिल गयी, लेकिन आजीविका और आनंद अपने हाथ से छूटते चले गये. आजादी के बाद एक वर्ग उभरा, जिसे हम ‘प्रभु वर्ग’ कह सकते हैं. इनके हाथों में देश की नीतियां और नियम बनाने के अधिकार थे. इनकी नीतियों और नियमों के कारण जहां एक तरफ स्वतंत्रता के दौरान घोषित लक्ष्य और मूल्य संकुचित हो रहे थे, वहीं प्रकृति विरान हो रही थी.

जहां आजादी के बाद समाज में समता, समानता और लोकतंत्र के मूल्य स्थापित होने चाहिए थे, पर यह न हो कर समाज में विषमता, असमानता और सामंती मूल्यों को प्रश्रय दिया जाता रहा है. लोकतंत्र की स्थापना के बाद संसदीय प्रणाली में चुनावी प्रक्रिया ने जाति, धर्म, संप्रदाय और धन के वर्चस्व को बढ़ाया तथा वंशवाद को ठीक उसी प्रकार प्रश्रय दिया, जिस प्रकार राज घरानों में हुआ करता था. यह पूरी प्रक्रिया एक तरह से सामंती मूल्यों को आगे बढ़ाने वाली प्रक्रिया ही तो है. परिणामतः यह प्रक्रिया स्वाधीनता, स्वशासन और स्वराज की निष्ठाओं की तरफ बढ़ नहीं पायी. स्वशासन और स्वराज के प्रति निष्ठाएं नहीं बढ़ने के कारण लोकतंत्र में लोक गौण होता चला गया और तंत्र हावी हो गया. ‘तंत्र’ के हावी होने से ‘स्वराज,’ ‘स्वशासन’ की न सिर्फ परंपरागत प्रणाली, बल्कि अत्याधुनिक प्रणाली भी संकीर्ण होती चली गयी. लोकतंत्र में लोक महज वोट देने का हकदार भर रह गया, जिससे तंत्र का निर्माण होता है, न कि मूल्यों में इजाफा.

इसलिए हमें 68 वर्ष के बाद भी गणतंत्र की रक्षा के लिए चिंतित होना पड़ रहा है, क्योंकि स्वाधीनता के संघर्ष के दौरान जो संकल्प बार-बार दोहराये गये थे, उससे हम बहुत दूर हटते चले जा रहे हैं. संविधान में जो लक्ष्य निर्धारित किये गये थे, उसको पाने की बात तो दूर, उससे विमुख होने की प्रक्रिया ही तेज हुुई है. समता, समानता, लोकतंत्र, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता का ताना-बाना जो इतने वर्ष में मजबूत होने चाहिए थे, कहीं खोते से नजर आ रहे हैं. एक तरफ आर्थिक विषमता में जमीन और आसमान का अंतर बढ़ता जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ जाति की जकड़न ने चुनाव को इस कदर दबोच लिया है कि हमारा लोकतंत्र और गणतंत्र ही खतरे में पड़ता-सा दिख रहा है. समाजवाद की बात तो अब कोसों दूर-सी लगती है. क्योंकि श्रम के वाजिब मूल्य और श्रम के प्रति सम्मान का भाव ही कहीं खो गया है.

भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने उदारवादी व्यवस्था का जाल इस कदर फैलाया है कि उसमें आजीविका, आजादी और आनंद की सारी संरचनाएं और भावनाएं गुम हो गयी हैं. मनुष्य, जो प्रकृति का सबसे समझदार और सृजनशील प्राणी माना जाता है. उसे नयी गुलामी के मकड़जाल में फांस कर रख दिया गया है. आज का इंसान ‘आजादी का खतरा’ मोल लेने की जगह अब गुलामी की सुविधा भोगना चाहता है. आजादी का खतरा आज के युवा वर्ग को जितना डराता है, गुलामी की सुविधा उसे उतना ही लुभाती है. जबकि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान आजादी के खतरे से लड़ने को कफन ओढ़ कर युवा सड़कों पर निकलते थे. आज काॅरपोरेट सेक्टर युवाओं को कंप्यूटर से रिझाते हुए न सिर्फ उसे अपनी प्रकृति और प्रवृति से काट देता है, बल्कि उसे तंत्र का गुलाम बनने को विवश करता है. तंत्र की यह विवशता अब राजनीतिक दलों तक भी दिखने लगी है.

ऐसी स्थिति में आज के खेवनहार स्वशासन, स्वावलंबन और स्वराज की दिशा कैसे तय कर सकते है. उन्हें स्वशासन और स्वराज की मूल भावना और संरचना का भी पता नहीं है. शायद इसीलिए संविधान सभा की बहस में मरांग गोमके जयपाल सिंह ने कहा था कि लोकतंत्र अगर सीखना हो तो हमारे आदिवासी इलाके में आइए. तब यह बात जरूर उनलोगों को खली होगी, जो लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने के लिए संविधान सभा में बहस कर रहे थे. ठीक उसी तरह आज भी कथित लोकतंत्र के पुरोधाओं को स्वशासन और स्वराज की वे बातें खल रही हैं. इसलिए गणतंत्र के 68 वर्ष बाद हमें यह कहने को विवश होना पड़ रहा है कि स्वतंत्रता को अगर कायम रखना है, तो स्वशासन और स्वराज की प्रक्रिया को अमली जामा पहनाना ही पड़ेगा. इसके लिए न्याय पर आधारित कानूनों का निर्माण करना होगा, जो समुदाय की ताकत को मजबूत करे और लोकतंत्र को महज एक तंत्र न मान कर जीवन मूल्यों में तब्दील करने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाये.

Prabhat Khabar Digital Desk
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