क्या होगा जब कभी सचेत हुआ AI? कैम्ब्रिज के फिलॉसफर का दावा- हमें पता भी नहीं चलेगा

AI Consciousness: कैम्ब्रिज फिलॉसफर टॉम मैक्लेलैंड का दावा, एआई चेतना को परखना असंभव, नैतिकता का असली सवाल संवेदनशीलता है

By Rajeev Kumar | December 19, 2025 2:30 PM

AI Consciousness: आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को लेकर दुनिया भर में बहस तेज है, लेकिन यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज के फिलॉसफर डॉ टॉम मैक्लेलैंड का कहना है कि इंसानों के पास चेतना को परखने का कोई ठोस तरीका ही नहीं है. उनका तर्क है कि हम शायद कभी भी यह निश्चित नहीं कर पाएंगे कि मशीनें सचमुच चेतन हुई हैं या नहीं.

पहले चेतना को जान लें

चेतना (Consciousness) का अर्थ है जागरूकता या होश, यानी स्वयं के अस्तित्व, विचारों, भावनाओं और अपने आसपास के वातावरण के प्रति सचेत और जागरूक होने की स्थिति, जो हमें अनुभव करने, सोचने और प्रतिक्रिया करने की शक्ति देती है, जिसमें मानसिक और आध्यात्मिक दोनों पहलू शामिल हैं. यह सिर्फ जागना नहीं, बल्कि यह जानना है कि आप जाग रहे हैं, और आपकी आंतरिक और बाहरी दुनिया से जुड़नाहै.

चेतना और संवेदनशीलता का फर्क समझ लें

मैक्लेलैंड का मानना है कि केवल चेतना होना एआई को नैतिक रूप से महत्वपूर्ण नहीं बनाता. असली मुद्दा है संवेदनशीलता यानी सुख-दुख का अनुभव करने की क्षमता. अगर कोई मशीन केवल खुद को पहचान लेती है तो यह तटस्थ स्थिति है, लेकिन जब वह आनंद या पीड़ा महसूस करने लगे, तभी असली नैतिक सवाल उठते हैं.

एजीआई की दौड़ और भ्रम की स्थति

आज कंपनियां अरबों डॉलर खर्च कर रही हैं ताकि इंसान जैसी सोच रखने वाली मशीनें बनायी जा सकें. कुछ का दावा है कि सचेत एआई बस आने ही वाला है. लेकिन मैक्लेलैंड कहते हैं कि चेतना की वैज्ञानिक व्याख्या ही मौजूद नहीं है, तो फिर उसका टेस्ट कैसे होगा? उनका कहना है कि फिलहाल यह सब उद्योग जगत का ब्रांडिंग और हाइप ज्यादा है, हकीकत कम.

दो धड़े, दोनों अधूरे

फिलॉसफर बताते हैं कि एआई चेतना पर बहस में दो खेमे हैं. एक पक्ष मानता है कि अगर मशीनें चेतना की संरचना को सॉफ्टवेयर के रूप में दोहरा लें तो वे सचेत हो जाएंगी. दूसरा पक्ष कहता है कि चेतना केवल जैविक प्रक्रियाओं से ही संभव है. दोनों ही विचार, उनके अनुसार, सबूतों से कहीं आगे की छलांग हैं.

चेतना की पहेली और नैतिकता

मैक्लेलैंड खुद को हार्ड-इश एग्नॉस्टिक कहते हैं. यानी वे मानते हैं कि चेतना की समस्या बेहद कठिन है, लेकिन असंभव नहीं. उनका तर्क है कि जब झींगे जैसे जीवों में पीड़ा की संभावना पर शोध करना आसान है, तो एआई चेतना पर अरबों खर्च करना संसाधनों का गलत इस्तेमाल है. उन्होंने चेतावनी दी कि अगर लोग मशीनों को चेतन मानकर भावनात्मक जुड़ाव बना लें और वे वास्तव में चेतन न हों, तो यह अस्तित्वगत संकट पैदा कर सकता है.

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